पथिक प्रेमी | Kavita
पथिक प्रेमी
( Pathik Premi )
हे पथिक मंजिल से भटके, ढूंढता है क्या बता।
क्यों दिखे व्याकुलता तुझमें, पूछ मंजिल का पता।
यू ही भटकेगा तो फिर सें, रस्ता ना मिल पाएगा,
त्याग संसय की घटा अरू, पूछ मंजिल का पता।
जितना ही घबराएगा तू, उतना ही पछताएगा।
वक्त पे ना पहुचा तो, मुश्किल में तू पड जाएगा।
क्या पता मंजिल तुम्हारा, अब भी देखे रास्ता,
तू ना पहुचा जो वहाँ कोई, और ही आ जाएगा।
हे पथिक मुझकों बता क्या, तू ही है वो साँवरा।
जिसका रस्ता देखे राधा, बन गयी सु बाँवरा।
आज है उठने को डोली,पतित पिय के आस की,
तू अगर वो ही है तो फिर, पीछा कर बारात का।
हीर राँझा को मिली ना, सैती भी ना मुराद से।
प्रीत पूरा ना हो पाया, राधा का भी श्याम से।
अब भी भटके है पथिक बन,प्रीत के आकाश में,
सुप्त मन से शेर लिखता, पथिक प्रेमी प्यार से।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )