मुराद | Kavita Murad
मुराद
( Murad )
एक तू ही नही खुदा के आशियाने मे
कैद हैं और भी कई इसी अफसाने मे
दर्द से हुआ है फरिग् कौन इस जमाने मे
खोज ले जाकर भले अपने या बेगाने मे
मन माफिक मुराद सभी को हासिल नही
कैसे मान लिया कि तेरे लिए कोई मंजिल नही
बेशक्, बदल जाता है रूप फल के प्रतिसाद का
पर मिलता जरूर है फल कर्म के प्रसाद का
खुद को हि बना ले तू खुद का खुदा अपना
खुदा भी सुन हि लेगा हर हाल में तेरी सदा
तू भी तो है एक शिल्पकार ही अपने जीवन का
निकल उस भरम से, छोड़ उम्मीद उस दामन का
कर फैसला, बढा हौसला, देख निकलकर
और भी कई जूझ रहे तन्हा तुझसे बढ़कर
मौत की फ़रमाइश का रुख तेरा कायराना है
और भी है कोई तेरा, और ए जमाना है
हारनी थी हिम्मत तो कदम से पहले हि सोचते
संभल गये हैं यहाँ कई ,और भी गिरते गिरते
सफ़र मे किसीका साथ पुख़्ता हो यही जरूरी नहीं
तन्हा राही भी कर लिए हैं फतह मंजिल कई
( मुंबई )