Vriksh Ki Peeda | वृक्ष की पीड़ा
वृक्ष की पीड़ा
( Vriksh Ki Peeda )
काटकर मुझे
सुखाकर धूप में
लकड़ी से मेरे
बनाते हैं सिंहासन
वार्निश से पोतकर चमकाते हैं
वोट देकर लोग उन्हें बिठाते हैं
वो बैठ कुर्सी पर
अपनी किस्मत चमकाते हैं,
बघारते हैं शोखी, इठलाते हैं;
हर सच्चाई को झुठलाते हैं।
मोह बड़ा उन्हें कुर्सी का
नहीं चाहते कोई दूजा छुए?
सालों बैठा रहना चाहते हैं,
बैठे बैठे दूध मलाई चांपते हैं;
हिस्सेदारी नहीं किसी की चाहते हैं।
फिर भी मन नहीं भरता
लालची मन इनका
थोड़ा और थोड़ा और करता
इसी फेर में गरीबों की हड़पते,
पलक झपकते।
कहते हैं सुशासन चला रहे हैं,
कानून का राज स्थापित करा रहे हैं।
लेते निर्णय ऊटपटांग,
चाहे गिरे अर्थ व्यवस्था धड़ाम;
देख तरूवर भी हैरान ।
देखो !
पहले मुझको काटा
अब गरीबों की पेट काट रहा है,
ऊपर से झांसा एक पर एक दिए जा रहा है।
यार यह इंसान!
नेता बनते ही एकदम से बदल जा रहा है।
चाटुकारों से घिरकर,
गरीब की नजरों से गिरा जा रहा है;
फिर भी नहीं शर्मा रहा है।
देख दरख़्त भीतर से पिघल रहा है,
काश! मुझसे बनी कुर्सी भी पिघल जाती,
तो देश की ऐसी हालत ना होती।
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।
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