क्षितिज के तारे

क्षितिज के तारे | Kavita

क्षितिज के तारे

( Kshitij ke taare )

 

क्षितिज के तारे टूट रहे,
अपनों के प्यारे छूट रहे।
खतरों के बादल मंडराये,
हमसे रब हमारे रूठ रहे।।

 

नियति का चलता खेल नया,
कैसा  मंजर  दिखलाता है।
बाजार बंद लेकिन फिर भी,
कफ़न रोज बिकवाता है।।

 

मरघट  मौज  मना  रहा,
सड़कों पर वीरानी छाई है।
ईश्वर आज का हतप्रभ है,
लहर यह कैसी आई है।।

 

सबके मन में भय आशंका,
दिलों की धड़कन थमी हुई।
दूरी,  दूरी  बस  दूरी है,
घट  में बात  जमी  हुई।।

 

कोठी बंगला अब कार नहीं,
सांसो  की  डोर  बचानी है।
रग  रग  हौसला  जुटा हमें,
सबको हिम्मत दिखानी है।।

 

रण कौशल से महारथी,
संग्राम जीत जब जाएंगे।
तोड़ेंगे चुप्पी सड़कों की,
खुशहाली घर-घर लाएंगे।।

 

उन योद्धाओं का स्वागत वंदन,
जन-जन की मुस्कानों से होगा।
जीवन  की  जंग  में  सबको,
लड़ना  मैदानों में  होगा।।

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कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

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