मन जीता जग जीता | Man Jeeta
मन जीता,जग जीता
( Man jeeta jag jeeta )
मन की मुराद होत न पूरी
अनन्त का है सागर,
एक बाद एक की चाहत
होता रहता उजागर।
चंचल मन चलायमान
सदैव चितवत चहुंओर,
चाहत ऐसे सुवर्ण सपनें
जिसका न है ओर।
मन के वश में हो मानव
इधर-उधर धावत है,
सुख त्याग,क्लेश संजोए,
समय भी गंवावत है।
हर्ष-विषाद, क्लेश-द्वेष है
सबही का मन मूल,
प्रवृत्ति ढले जैसे मूल की
वैसा खिलता फूल।
जो मन जीता,वो जग जीता
बुद्धत्व को है पाया,
ज्ञानपुंज की छटा बिखेरत
सबका मन हर्षाया।।