मिलता किसी भी मोड़ पे क्यों राहबर नहीं | Milta Kisi bhi Mode pe
मिलता किसी भी मोड़ पे क्यों राहबर नहीं
( Milta kisi bhi mod pe kyon rehbar nahin )
मिलता किसी भी मोड़ पे क्यों राहबर नहीं
इस शहरे-कामयाब की आसां डगर नहीं
हर इक सफ़र में होता था जो हमसफ़र कभी
वो भी तो आस-पास में आता नज़र नहीं।
माना कि मुद्दतें हुईं बिछड़े हुए उन्हें
मैं उनकी हर ख़बर से कभी बेख़बर नहीं।
मारे ग़मों के बोझ से आंसू तो आ गये
रख्खा मगर ख़याल कि हो चश्मेतर नहीं।
वो देखते ही देखते शायर तो हो गया
लेकिन अभी कलाम में उसके हुनर नहीं।
वादे पे तेरे हमको जो आता न ऐतबार
फिरते यूं हम भी शहर में दरबदर नहीं।
ख़ुद पर यक़ीन अब तो निराला हमें भी है
कुछ ग़म नहीं के साथ कोई हमसफ़र नहीं।
शायर: शम्भू लाल जालान निराला
( कोलकाता )
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