वो मुझे मुज़रिम समझ कर यूंँ सज़ा देता रहा

( Wo mujhe mujrim samajh kar yoon saza deta raha ) 

 

वो मुझे मुज़रिम समझ कर यूंँ सज़ा देता रहा
होठों तक ला ला के वो साग़र हटा देता रहा।

बैठता है पास मेरे यूंँ तो वो हर रोज़ ही
जब भी छूना चाहा तो दूरी बढ़ा देता रहा।

उसकी ख़ूबी को बयां करने में है कासिर ज़ुबां
कैसा होता प्यार वो पल में जता देता रहा।

डोलती हैं उसकी आंँखों में सदा सरगोशियांँ
वो ख़ामोशी में भी जैसे सब बता देता रहा।

चुभ न जाये राह में कांँटा भी उसके पांँव में
गुल ही गुल बस राह में उसकी बिछा देता रहा।

तेरी महफ़िल में मुझे आने की अब हिम्मत नहीं
जो भी आता बज़्म से मुझको उठा देता रहा।

खिल गई दिल की कली अरमान सारे जग गये
आपका बस यह तबस्सुम हौसला देता रहा।

इस ख़लिश को लेके ही हम तो निराला जी रहे
चेहरे पे अपने सदा परदा गिरा देता रहा।

 

शायर: शम्भू लाल जालान निराला

कासिर — असमर्थ
ख़लिश — कसक,पीड़ा, चिंता
सरगोशी — कानाफूसी, चुगली, निंदा

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