Mohan

मोहन तिवारी की कविताएं | Mohan Tiwari Poetry

विषय सूची

समय की पुकार

पहलगाँव की भूमि पर फिर हुआ नरसंहार
बेकसूर मारे गए, मानवता हुई शर्मसार

बचे न कोई आतंकी, जनता रही पुकार
छलनी हो सीना उनका, जिसने किया प्रहार

हिंदू होना क्या जुर्म है, यह कैसा भाईचारा
कट्टरपंथी हो कोई भी, है वह शत्रु हमारा

वक्त नहीं है बंटने का अब, हर हिंदू जागो
जीवित रहना है तो, भ्रम जात पांत का त्यागो

हर काम करे सरकार, तब हर दिन कटना होगा
बैठके माला जपते रहो, ऐसे ही मरना होगा

आतंकी मन में सद्भाव का, होता नहीं संचार
दया धरम बहुत हुआ, अब केवल हो संहार

अस्त्र उठा लो हर हिंदू, समय की है यही पुकार
हाथ मिलाआगे आओ, या फिर सहो प्रहार

अगर तुम न मिलते

तेरी कुर्बत में आकर हि जाना जिंदगी क्या है
तनहाई ने हि सिखाया कि जमाना क्या है
तुम न मिलते तो रह जाते खुद से हि नावाक़िफ हम
अब जाके हमने माना कि याराना क्या है

रह लेते हम भी बिखरे पत्तों की तरह
हवाएं ही बनतीं रहगुजर राहों की मेरे
ढलते दिन रात यूँ ही रोज की तरह
मगर, रहता न ख्याल बदलते मौसम का
अगर तुम न मिलते

मेरे रहनुमा, रहबर, रहगुजर
मेरे हमनशीं, हमराज, हमसफर
मेरी जिंदगी, मेरी बंदगी, मेरी नज़र
क्यों नहीं आये याद हम अबतक तुम्हें
मर हि जाते हम अगर तुम न मिलते

प्रेम पर्याय नहीं, वही तो जीवन है
कोई और पर्याय प्रेम में ढल हि नहीं सकता
रहे तलाशते सुकून को ताउम्र से हम
रह जाती पूरी मंजिल ही अधूरी हमारी
अगर तुम न मिलते
अगर तुम न मिलते….

आफरीन

माना कि मुकाम की ऊँचाई एक ही है अपनी
तब भी रास्ते अपने अलग अलग हैं आफरीन
आपकी तराजू में रखा है एक ही बटखरा
हम बटखरे से किसी की हैसियत नहीं तौलते

चाहते तो हैं हम भी पहुंचना उस छोर तक
मगर मुड़ भी जाते हैं बाधक अवरोधक देख के
रास्तों से ही निकलते हैं रास्ते हम जानते हैं इसे
झूठे उसूलों को ही अपना जमींर नहीं मानते

दी हो जिंदगी खुदा या राम इंसानियत पहले
क्या फर्क है कि हममें में से आया कौन पहले
यह भी पता नहीं की जायेगा कौन पहले
अंडा हो या मुर्गी कोई तो आया होगा पहले

जिद्द क्यों कि, छाया आपके दरख़्त तले ही
खबर क्या तुम्हे जब हमसे कभी मिले ही नहीं
गंगा ने कहा नहीं खुद को आबे जमजम् कभी
एक बूंद में हि शामिल है दोजख् जन्नत सभी

आफरीन, एक परदा है महज, वहम का हममें
है न अलग कुछ हममें , न अलग है कुछ तुममे
फ़कत, नजरिये का खेल है नज़रों में बसा हुआ
वो तो बस शक्ति है एक, जो हर किसी मे रमा हुआ

लौट आना

लौट आना प्रिये तुम!
जब तुम्हे लगे कि जीवन क्या है
कौन है अपना कौन पराया
कौन अपनाया कौन भरमाया
कौन साया है कौन हमसाया
तब लौट आना प्रिये!

जब लगे कि ढलने लगी शाम
जब लगे कि खाली रहे ज़ाम
जब लगे कि रह गया बस नाम
जब लगे कि अब जीना हराम
तब, लौट आना प्रिये तुम!

होने लगें फीके रंग सारे
बदलने लगें जब ढंग सारे
बेदम लगें उमंग सारे
बदरंग से लगें नजारे सारे
तब, लौट आना प्रिये तुम!

होंगे हम तब भी तुम्हारे
रहेंगे भी साथ तुम्हारे
बस, तब हम हम नहीं होंगे
मेरे फर्ज ही होंगे तुम्हारे
जब लगे कि रहे अकेले
तब, लौट आना प्रिये तुम
प्रिये! तब तुम लौट आना!

औकात

टूटा हुआ प्याला जुड़ नहीं पाता
दरका शीशा फ़ेक दिया जाता है
आ जाती है जब घर में बदनशिबी
आता हुआ मेहमान भी रोक दिया जाता है

पड़ी नहीं रिश्तेदारी निभाने की
पैकेट का मोल आंक लिया जाता है
एक बुलाओ दस दौड़े चले आते हैं
औकात देखकर बांट लिया जाता है

उम्र का भी अब कोई परहेज नहीं
अधरों की लाली बस बनी रहे
बेताब दिल तो धड़क ही जाता है
पड़ोसन से घरवाली की बनी रहे

बंद कर दिया है मुर्गों ने बांग देना
मुर्गियों की आवाज़ में ही तेजी आई है
बच्चे तो व्यस्त हैं मोबाइल में
साहब ने देखा कामवाली आई है

उलझी हुई गुत्थियाँ हैं सारी
सुलझाने की फुरसत नहीं किसी को
ढाबे वाला भी पहुँचाने लगा है अब
कौन जाता है रोटियां पकाने को

शाब्दिक अर्थ

कही या सुनी गई बातों का असर
समझे गये अर्थ पर ही
निर्भर करता है
शब्द के अर्थ नहीं, कहे गये के
भाव ही रखते हैं मायने

रास्ते से ही निकलते रास्तों की तरह
अर्थ से भी निकलते हैं अर्थ
आप समझते हैं किस अर्थ को
यह दर्शाता है आपकी सोच और समझ
या फिर कहने वाले के प्रति आपके विचार

शब्दों में व्यक्तिगत सामर्थ्य
कुछ नहीं होता
भाव के साथ जुड़ कर ही
करते हैं प्यार या प्रहार
बांटते हैं मिठास या विष

शब्द स्वयं में अलौकिक ऊर्जा हैं
शक्ति हैं, गहराई उचाई हैं
शब्द कालातीत हैं अमर हैं
नाम और काम की तरह
प्रयुक्त तो करते हैं आप ही
परिणाम भी पाते हैं आप ही

इंसानियत की तलाश

सोचा था इंसान बनूं
पर, मर रही इंसानियत के बीच
बगुलों की टोली में
हंस की भी औकात क्या होगी

जहाँ बाज़ पर भी
झपट रहे हों गिद्ध
वहाँ कबूतरों से भी संदेश
पहुँच पाना मुमकिन नहीं

कौवओं की भीड़ में
कोयल की कूं कूं भी तो होगी
कर्कश ध्वनि के मानिंद ही
सियार के जंगल राज में

ढूंढ आया बाज़ार सारा
चेहरे हर जीव के मिले थोक मूल्य पर
चाहा था मगर इंसान बनूँ
वह दुकान ही मिली नहीं
होती जहाँ कद्र मानवता की

मंच पर बैठे संचालक मंडल ही
लड़ रहे थे संचालन के वास्ते
रह गई भीड़ देखते ही उन्हें
पता चला कि
सुधारक का चयन छोड़
सारी प्रक्रिया पूरी है

बनना चाहा था इंसान, मगर
इंसानियत के बस्ती की तलाश
अभी अधूरी है

आपकी गिनती

आप जब अनदेखा होने लगें
काटी जाने लगे हर बात आपकी
महत्व न हो आपकीअनुपस्थिति का
तब सब समझ लें कि आप गिनती में नहीं हैं

हिस्सा न बनें किसी हो रही चर्चा में
बुलाये न जाएं वहाँ आदर से
आपके चले जाने पर भी रोक न लगे
तब समझ लें कि आप गिनती में नहीं हैं

ली न जाए कोई सलाह मशविरा
आपसे कहा न जाए कि रुकिए जरा
भेज दी जाए दावत बिना आपसे पूछे
सब समझ ले कि आप गिनती में नहीं हैं

भूल जाएं लोग पद आपका
रिश्तेदारी में घट जाए कद आपका
अंतिम कड़ी में लिखा हो नाम आपका
तब समझ लें कि आप गिनती में नहीं हैं

खामोशी भी घटा देती है कद्र आपकी
ना बोल पाना भी दुर्बलता है आपकी
समझौता ही करने लगे हर बात पर
तब समझ लें कि आप गिनती में नहीं हैं

दर्द

दर्द इतना भी समेटे रहना
ठीक नहीं होता
दिलों के जख्म में कसूरवार
फ़कत एक नहीं होता

लगा देंगे लांछन बेहतर है
दिखा देंगे अक्स आईने में
खुद के दामन में भी
न झांक पाना ठीक नहीं

रास्ते जाते नहीं किसी ठौर
चाहत चली जाती है
पी लेना, शराब् को शरबत जान
फिर, मय को दोष देना ठीक नहीं

माना हिम को शीतल
कसूर उसकी तासीर मे कहाँ
नाकामियों पर खुद की
शोर मचाना ठीक नहीं

जला देती है आग जिश्म को
रूह को हि जला देती है बेवफाई
रखना था कदम संभलकर
व्यर्थ की दुहाई ठीक नहीं

जिंदा नहीं मरने के लिए

बेचकर स्वाभिमान अपना
जोड़े रहूँ रिश्ता आपसे
वह मैं नहीं हूँ
बिकाऊ सामान नहीं हूँ

माना बर्तन हूँ मिट्टी के जैसे
औकात कुछ भी नहीं मेरी
तब भी वजूद मेरा है
मैं खुद का अपना हूँ

कलाकार नहीं रंगमंच का
ढल जाऊँ हर किरदार में
मेरी बनाई पहचान अपनी है
बैसाखी रखने की आदत नहीं मेरी

बदलता हूँ मैं भी
मगर खरबूजे को देखकर नहीं
पका फल हूँ दरख़्त का
धूप से परहेज नहीं रखता

मैं जिंदा नहीं मरने के लिए
मरकर जिंदा रहना है मुझे
दिल तोड़कर जीने की हसरत नहीं
दिलों के भीतर जीना है मुझे

तुझे

साथी रहे साथी बनकर ही सदा
ऐसा तो होता है कभी यदा कदा
फल भी हो जाता डाली से जुदा
जीवन के फलसफे मे राम खुदा

बहती नदी मिल जाती सागर में
बन जाती है वही नाला भी कभी
होती है बात वक्त के जरूरत की
दुश्मन भी बन जाता दोस्त कभी

जीत हार सब यहाँ एक खेल है
गरज पर ही होता सबका मेल है
खुदगर्जी का ही बाज़ार चल रहा
कोई गिर रहा तो कोई संभल रहा

चलना है तो चल मंजिल के साथ
वक्त के हाथों में देकर अपना हाथ
निकल लिए जो बढ गए विवेक से
रह गये जो चिपके रहे बस एक से

देख तू भी फ़कत मुकाम अपने
अपने ही दम पर सजते हैं सपने
आज नहीं तो कल बह जाना तुझे
नाम के संग ही रह जाना है तुझे

चाहत की धुन

नाते हैं अपने जन्मों के, मगर
जरूरी नहीं कि हर बार मिलें
काफी है दिलों से दिल का बंधन
जरूरी नहीं कि तन से तन मिले

भावनाएं ही मिलाती हैं लगाव से
हर किसी से अपनापन नहीं मिलता
खिले हुए चमन की बहार मे भी
एक ही फूल हर जगह नहीं खिलता

कहने को हर बात ज़ुबाँ नहीं होती
ज़ुबाँ मे हर वो बात भी नहीं होती
मौन भी कह जाता है बहुत कुछ
कह देने से ही हर बात नहीं होती

न कहो तुम, न कहें हम
तब भी कहना क्या नहीं होता
गली में रख लेते हैं कदम आप
क्या उस गली में चलना नहीं होता

इतना ही काफी है दिल के सुकूँ के लिए
जुड़ हि जाती हैं राहें भी किसी मोड़ पर
एक ही राह से सफ़र सफ़र नहीं होता
सज हि जाते हैं स्वर चाहत की धुन पर

जो हूँ, वही हूँ

मैं जो हूँ, वही हूँ
बदल नहीं पाओगे आप मुझे
चेहरा छिपाकर जीना नहीं आता मुझे
आपकी सोच आपको मुबारक

जो दिखता हूँ, वही होता हूँ
भेदभाव की बातों के पीछे
लालसा नहीं किसी सम्मान की मुझे
आप लिहाज नहीं रख सकते

काबिलियत नहीं मुझमें
रह सकूँ खड़ा आपके साथ
आपके साथ चल सकूँ
लायक नहीं आपके अपनों के साथ
बसर हो जाये मेरा भी

न करना कभी याद मुझे
न देना कभी दाद मुझे
कद्र न हो जहाँ भावनाओं की
वर्षा हो वहाँ कंचन की
जाना वहाँ मुझसे न होगा
रहना वहाँ मुझसे न होगा
बदल नहीं पाओगे आप मुझे
मैं जो हूँ, वही हूँ

शुभ कामना

चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा की हार्दिक शुभकामना
शृष्टि प्रारंभ के प्रथम दिन की हार्दिक शुभकामना

नव वर्ष के प्रथम किरण की हार्दिक शुभकामना
आपके मंगलमय जीवन की हार्दिक शुभकामना

प्रति पल शुभ कर्मफल की हार्दिक शुभकामना
आज की अपेक्षा बेहतर कल की हार्दिक शुभकामना

उपजे मन सद्भाव सत्संगत की हार्दिक शुभकामना
ज्ञान की हो ज्योत प्रज्ज्वालित हार्दिक शुभकामना

दिन रात हो चतुर्मुखी विकास हार्दिक शुभकामना
मानव जीवन हो सफल आपका हार्दिक शुभकामना

संतुष्ट हूँ मैं

रोज बुनता हूँ माला ख्वाबों की
रोज बिखर जाते हैं मनके
छोड़ जाते हैं वे ही साथी मुझे
चाहता हूं चलना साथ जिनके

भाती ही नहीं साफगोई बातें उन्हें
चाहते हैं हर बात आधी अधूरी
चलते हुए भी चलने की चाह नहीं
जाने है किस बात की मजबूरी

बेवजह उलझा देते हैं बातों को
खुद भी रह जाते हैं उलझकर ही
करते हैं बात संभलकर चलने की
रह जाते हैं खुद ही गिरकर ही

न सोच पुख़्ता है न समझ उनकी
फिर भी माहिर हैं खेल के मैदाँ मे
चाहता नहीं मैं हुनर वही उनका
यही वजह है कि मेरा है कच्चा मकां

खुश हूँ इस अकेलेपन पर भी मैं
जिंदा है जमीर अभी तक साथ मेरे
मुबारक हों उन्हें चालाकियाँ उनकी
मूर्खता मेरी कबूल है मुझे, संतुष्ट हूँ मैं

सोचते रहिये

बाज़ को पता है कि
देखनी है दुनियाँ अगर तो
छूनी होगी आकाश की उचाई
बौने ही रह जाते हैं वे लोग
जो मंडराते रह जाते हैं इर्द गिर्द

व्हेल को पता है गहराई
पर्वत को विस्तार का पता है
पता है किसान को धूप की गर्मी
बौने ही रह जाते हैं वे लोग
पता ही नहीं जिन्हें कि चलना क्या है

किले फतह नहीं होते
बिना उठाये तलवार हाथ में
सोच मे दिखता हो मुकाम भले
पहुचाते तो हैं कदम ही
मोतीयां तो अनगिनत हैं सागर में
गहराई भी मगर बहुत है

आसान तो सांसें भी नहीं हैं
जो मिलती हैं मुफ्त में
देह का भी सफ़र है वयस्क तक
बैठे रहिये सोचते हुए आप सब
साँसे तो चलती हैं गिनती तक ही

अधिकता

वर्षा हो अधिक तो फसल गल ही जाती है
धूप हो अधिक तो फसल जल ही जाती है
घर मकां तो खड़े रहते हैं जमीं के ऊपर ही
टीले की उचाई से तो रेत फिसल ही जाती है

वक्त बुरा है यह, कीमत नहीं समझते हैं लोग
दान धर्म ठीक है, मगर उतने अच्छे भी हों लोग
मुफ्त बट रही रेवडियों मे कतार लंबी होती है
शराफत की उम्मीद मे बस पुकार लंबी होती है

देखे हैं हमने भी, घर फूक तमाशा देखने वाले
अपनों को गैर , गैर को हि अपना कहने वाले
हो गई मिट्टी पलीद, वक्त के बुरा आ जाने पर
अपने ही बुझाते हैं आग, आग लग जाने पर

रहमदिली के साथ समझदारी भी जरूरी है
बुरा नहीं साथ, मगर एहतियात भी जरूरी है
चलना है दूर तक, तो खुली नज़र भी रखिये
जरूरी हो बात जितनी, उतनी ही खबर रखिये

नवीनता

रुको तो रुको, झुको तो झुको
उहापोह की परिस्थिति मे कभी
रहती नहीं ठीक आपकी स्थिती।
होकर भी होती नहीं उपस्थिति

नम्रता में भी विनम्रता हो
शुभ्रता में भी धवलता हो
भाव में भी निर्मलता हो
व्यवहार में भी कुशलता हो

एकता में भी आतमिक्ता हो
लगाव की मानसिकता हो
अपनेपन की मिठास हो
एक दूजे पर विश्वास हो

दूर रहकर भी पास हों
सबके लिए खास हों
व्यक्तित्व में विवेक हो
लाखों में आप एक हों

मानवता की पहचान आपसे हो
अज्ञानता में ज्ञान आपसे हो
एक उदाहरण बनकर आप उभरें
नित नवीनता संग आप निखरें

चलन में

बहुत हैं जमाने में
शब्दों की मिठास घोलने वाले
वास्तव में
जहर की पुड़िया वे ही साथ रखते हैं

हर बात पर रहती है कसम सच्चाई की
रिश्ते नातों की तो दूर
खुदा की सौगंध का भी खौफ़ नहीं उनको

झूंठ की तिमारदारी में
सच को हि कर देते हैं झूंठ साबित
जो सच के करीब जाते नहीं
और झूंठ कभी बोलते नहीं

पहचान रखते हैं केवल वक्त की
या फिर अपने जरूरत की
मुहब्बत सबसे है
मगर अपने किसी के नहीं होते

पल में माशा पल में रत्ती
बिना पेंदी के लोटे हैं लोग
परखकर ही बढ़ाना हाथ यहाँ
बढ़ा है चलन बाज़ार में
खोटे सिक्के अधिक चल रहे हैं

जीत- हार

जीत तो होती है कर्म और धर्म की
प्रेम लगावऔर अपनेपन की
व्यक्ति तो महज जरिया है नाम का
जीत होती है भावना और कर्तव्य की

हार होती है हौसले और हिम्मत से
छल ,कपट , इर्ष्या और द्वेष से
चालाकियां कर देती हैं धराशाई
हार जाता है आदमी खुद के चलन से

लोभ,लालच, स्वार्थ की बुद्धि से
पराजित होता है विवेक हीनता से
जी ले भले सुख साधन सम्पन्नता में
हार जाता है मगर मानवीय दीनता से

देह तो नश्वर है उसे तो मर ही जाना है
अमर है नाम केवल उसे ही रह जाना है
मरकर भी रहते हैं किये कर्म साथ ही
भावनाओं में ही छिपे हैं उसके परिणाम भी

अज्ञानता में स्वयं को ज्ञानी मान बैठा
दिखावे के धर्म में स्वयं को दानी जान बैठा
भुला बैठा सत्य के परम तत्व को
वह भौतिकता को ही सर्वश्रेष्ठ है मान बैठा

जल ही सर्वस्व

जल ही जीवन जल ही जहान
जल ही पंच तत्व में है महान
जल बिन सब कुछ जाता जल
जल का है शृष्टि में प्रथम स्थान

जल जल कर जल बनता जल
जल से ही झरने कहते कल कल
जल से ही है आज और कल
जल ही निर्मल है और तरल

जल की रक्षा में ही बसी सुरक्षा
जल बिन और नहीं कोई अच्छा
अमृत सी बन जाती है एक बूंद
अंतिम स्वांस में रहता जब आँखें मूंद

समझना होगा जल के महत्व को
निभाना होगा अपने कर्तव्य को
बचाना होगा जल की एक एक बूंद
निभाना होगा अब इस दायित्व को

जल ही जीवन जल ही है कल
जल बिन हो न हर जीव विकल
रखिये ध्यान रहे जल शुद्ध निर्मल
तब ही होगा मानव सिद्ध सफल

तनहाई

सालती नहीं अब तनहाई
अकेलेपन में जीना सीख लिया है
देख लिये हैं रिश्ते अपनों के भी
अब बेगानों में भी रहना सीख लिया है

रहना, जीना, चलना, समझना
सब भाव हैं आंतरिक मन के
नियंत्रित कर लेना ही इन्हें
उपाय हैं उचित समाधान के

लालसा रहती पाने का सम्मान
चाहत में मान और मुस्कान
मानी जाये बात मेरी भी
रहता मन में यही गुमान

स्वयं की श्रेष्ठता का भी मोल हो
अपने काम और महत्व का भी तोल हो
सहमती रहे मेरी भी कही बात की
निर्णय मेरा भी अनमोल हो

इच्छाओं का पूर्ण न होना ही तनहाई है
विचारों का मेल न होना ही रुस्वाई है
साध लें यदि समझौता भी कुछ हद तक
फल से लदी डालियों की भी कम हो जाती उचाई

जागो अब तो जन समूह

बच्चियों पर हो रहा नित दुष्कर्म
बदलकर नाम जात और धर्म
देख रहा अब भी खड़ा जन समूह
धिक्कार है लानत है ऐसे जन्म पर

प्रतिक्षा किस न्याय व्यवस्था की
उम्मीद है किस इमानदारी की
पड़ोस मुहल्ला समाज सब चुप क्यों
कर्ज नहीं क्या उनके जिम्मेदारी की

लुटी लाज आज किसी और के घर की
घर रहेगा आबाद उनका क्या तय है
रहती नहीं क्या बहन बेटियां हर घर में
क्या हैं वे सुरक्षित, इसी से निर्भय हैं

व्यवस्था ही नहीं अब केवल पर्याय
लेना होगा संकल्प हर जन समाज को
विकल्प नहीं कि बने रहें मूक दर्शक ही
वक्त पर अस्त्र भी अब धरना होगा

प्रणाली जो कर न सके रक्षा प्राण की
उसपर ही अवलंबित रहना भी अपराध है
हुआ बहुत वाद विवाद, चली रसूख की
करनी होगी खुद ही रक्षा अब वजूद की

प्रवृत्ति

ताजगी हर कदम हो उतनी ही यह जरूरी नहीं
पाना है मुकाम पर जल्दी हो यह जरूरी नहीं
प्रयास की भावना रहे यूं ही बरकरार हरदम
बढ़ने वाले से भी दौड़ हो आगे यह जरूरी नहीं

ठहर जाइए कहीं थककर भले पड़ाव पर
हार कर मगर लौट आना यह ठीक नहीं होगा
बदलता है मौसम ये नियम है प्रकृति का भी
चौराहेकी भीड़ में दिशा बदल लेना ठीक नहीं

पराजय में भी छिपी रहती है जीत की उम्मीदें
जीत के पहले हार मान लेना भी ठीक नहीं
हो गई शाम अगर राह में चलते-चलते भी
तो रात को ही अंधेरा मान लेना यह ठीक नहीं

होगा सवेरा भी प्रभात का नियम अटल है
तलहटी के पंक से ही खिलता हुआ कमल है
आप हैं गुलाब खुद ,कांटे तो रहेंगे ही कुछ
महकता वही है मन में जिसके भाव निर्मल है

दस्तूर

सच के तराजू पर
तौलता रहे दुनियाँ को, मगर
सबसे अधिक झूंठ
इंसान खुद से बोलता है

देते रहता है सीख सभी को
चाहिए के महत्व पर
मगर, रहता है दूर दूर
खुद ही हर ” चाहिए “के सत्य से

झांकता है गिरेबाँ में हर किसी के
खुद की कमियों पर नजर जाती नहीं
अजीब दस्तूर है लोगों का
सही पर सही कभी रहता नहीं

बचाता है आग से खुद को
और के जीवन में आग लगा देता है
शरीफ होने का रचता है ढोंग
शराफत के करीब कभी जाता नहीं

घायल हैं लोग हरकत से अपनी
और के मरहम की बात करते हैं
सोये हैं खुद अपने कल से
दुनियाँ को जगाने की बात करते हैं

अच्छा है

रिश्ते हों कम मगर निभें ज्यादा तो अच्छा है
वादे हों कम यदि,चाहत हो ज्यादा तो अच्छा है

दिखावे की मुहब्बत में, प्रेम भला कहाँ होता है
बहता हुआ पानी है,आता है औ चला जाता है

सजते होंगे दरवाजे, कागज के फूलों से मगर
दिली चाहत में तो फ़कत , चमन ही भाता है

ये दौरे आलम है, फ़कत बेखौफ खुदगर्जी का
हकीकत में कौन यहाँ, वफादारी निभा पाता है

खामोश रह लेना अच्छा ,बातों की राजदारी में
तिल का ताड़ बना देते हैं लोग दुनियादारी में

चला जा ‘मोहन’ तू पकड़कर राह अपनी ही
भीड़ के बाज़ार से रह ले अलहदा यही अच्छा है

वक्त का ऋण

जाते नहीं हम बुजुर्ग के बुलाने पर
होता है एहसास उनके चले जाने पर
पलटते जाते हैं पन्ने तब बीती यादों के
आता नहीं वक्त फिर दूर चले जाने पर

रह जाता है मलाल, बचता कुछ नहीं
साथ सिवा पानी के बुलबुले के कुछ नहीं
समय में समय की परिभाषा का ज्ञान नहीं
होता है ध्यान तव समय निकल जाने पर

समय है आपके लिए, पर आपका नहीं
जगत है आपके लिए, पर आपका नहीं
गुलाम हैं वक्त के, पर वक्त गुलाम नहीं
है आज आपका, पर आपके नाम नहीं

रहता है पछतावा ही वक्त और व्यक्ति का
यादें ही रहती हैं शेष, नियम यही जगती का
अर्थ रह जाता नहीं, फिर पित्रभक्ति का
रहते ही ले लो आशीष तुम मातृशक्ति का

ऋण तीन ही मुख्य हैं, पितृ ऋषि और देव
इससे ही होते प्रसन्न देवों के देव महादेव
देते रहिये केवल जल इन्हें लोटा भर एक
रहेंगे बनते काम सब, कर लो चाहे देख

देख लेंगे

चाय पी रहे हैं देख लेंगे
काम कर रहे हैं देख लेंगे
देख लेंगे की इसी कहा कही में
देखे न जा सके काम कई
वक्त निकल गया, गाड़ी छूट गई

देखलेने का देखना हुआ कब है
टाल देने का सबब हुआ क्या है
पल बदल जाते हैं घंटों में कई
रह जाते हैं पूछते कई, हुआ क्या है
हो गये बाल धवल, गर्दन झुक गई

कर नहीं पाते अधिक, देखने वाले
चल नहीं पाते अधिक, चलने वाले
निकल जाता है समय देखते देखते
पछतावे मे रह जाते हैं हाथ मलते
बस, ढल जाता है दिन और शाम हुईं

मिलता है मुकाम चलते रहने से ही
हासिल होती है कामयाबी करने से ही
देख लेंगे मे गुजर जाता है वक्त, वक्त का ही
ठहरती नहीं साँसें भी जो रहतीहैं साथ ही
देखते हि देखते, जिंदगी भी बेनाम हुई

मैं, मैं हूँ, मैं मुझसे हूँ

मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि मैं सफल हूँ या असफल
कौन समर्थक है कौन विरोधी
कौन प्रभावित है कौन नहीं
कोई फर्क नहीं पड़ता

कर्मशील हूँ धर्मशील हूँ
दयावान हूँ सहयोगी हूँ
रखता नहीं किसीसे इर्ष्या द्वेष
फेंकता नहीं पासे जीत की खातिर
समझे न समझे कोई
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता

मंजिल मेरी, मुकाम मेरा
लगन मेरी प्रयास मेरा
उम्मीद रखूं क्यों और से
अवसर का इंतजार नहीं भाता
जीत या हार मेरी अपनी है
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता

जगत नश्वर देह नश्वर
निज कर्म से ही होगी पहचान मेरी
सब मेरे हैं और कोई नहीं मेरा
मेरा कर्तव्य ही व्यक्तित्व है
न हो कष्ट मुझसे किसी सत्य को
बस यही ध्यान रखता हूँ
मैं मैं हूँ, मैं मुझसे हूँ आत्मबल से हूँ
कौन क्या समझता है मुझे
इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता

खुद के आईने में

अच्छी लगती है तारीफ खुद की
मगर अब, करे कोई तो डर लगता है
कि, जाने किस स्वार्थ के लोभ में
हो रही है प्रशंसा मेरी

यूँ ही नहीं अब मिलता कोई
यूँ ही नहीं अब आता साथ कोई
पहचान मेरी योग्यता का आधार नहीं
उनकी जरूरत के श्रोत का है

देखे हैं बदलते रिश्तों को
अपने या बेगाने नातों को
दोस्त बने हैं दुश्मन कई
दुश्मन भी कई दोस्त बने हैं

कर लेता हूँ गर्व खुद पर
सम्मान तो लगता है सामान जैसे
मंच से उतरते ही देखा हूँ
बगल में कनाफुसी करते लोगों को

देख लेता हूँ खुद को आईने में
जो हूँ वही रहूँ तो अच्छा है
समझता हूँ जितना खुद को
और के समझने से वही बेहतर है

कीमत

वो चाहते तो हैं समझना
मगर समझना हि नहीं चाहते
चाहते हैं करना
मगर करना हि नहीं चाहते
वो जीतना तो चाहते हैं
मगर जीतना हि नहीं चाहते

चाहने मे भला चाहत कहाँ होती है
रेत से बनती है दीवार
मगर रेत से हि कहाँ बनती है ख्यालों के महल तो बन जाते हैं आलिशान
मगर उसमे रहने को जगह कहाँ मिलती है

माना, बीज मे हि होता है दरख़्त
मगर, बीज को भी चाहिए दरख़्त की जगह
काम तो कर सकता है हर आदमी
मगर काम की भी चाहिए वजह

हंस और बगुले तो हैं एक जैसे
मगर कीमत है उनकी अपनी अपनी
कोयल और काग की है अपनी जान फर्क ही तो नाम का आधार होती है

बहुत कुछ है पाने को यहाँ
औकात लेने की बनानी होती है
चाहते हो अगर पानी भी कहीं पीना
तो कीमत उसकी भी चुकानी होती है

अहमियत

न दो किसी को अहमियत इतनी
कि वो आपको ही नसीहत देने लगे
बहुत कम में ही अधिक समझ लेते हैं लोग
आपके दीये से ही आपका घर जलाने लगे

वैसे तो बनते हैं बड़े भोले
मिलती है सीख आपसे ही उन्हें
कर देते हैं वार पीठ पीछे से ही
आते हैं सामने मगर बेदाग धुले

व्यवहारिक माहौल राजनीतिक है
मतलब से ही झंडे उठाये जाते हैं
सीढ़ियों की बनावट मन माफिक है
देखकर हि लोग चढाये जाते हैं

देखनी होगी आपको भी जमीन अपनी
दल दल मे महल खड़े नहीं होते
हकीकत छिपी नहीं रहती किसी की
किरणें परावर्तित होती हैं सीध में ही

मन

चाहकर भी कुछ लिख नहीं पाते
चाहकर भी कुछ कर नहीं पाते
सब मन माने की बात है
मन को ही मिली हर सौगात है

ख़ुशी में भी दुःख ढूंढ लेता है मन
गम में भी सुख देख लेता है मन
हँसते हँसते भी रो देता है मन
रोते रोते भी हँस लेता है मन

भीड़ में भी अकेला हो जाता है मन
अकेले में भी जग देख लेता है मन
बना देता है अपनों को भी गैर मन
गैर को भी अपना मान बैठता है मन

अजब गजब रीत है मन की
इसके हि चाहे की प्रीत है मन की
मन की स्थिरता मे भी मन का ही हाथ है
मन के हाथों में ही मन का साथ है

संस्कारों से हि खिलता है मन
विकारों से हि गिरता है मन
जरूरी है अंकुश विवेक का मन पर
मन का ही प्रभाव रहता जीवन भर

हस्ती

यूँ तो चलता ही रहेगा दौर संघर्षों का
शिकायतों का, उलाहनों का
हवाएं तो बहेंगी ही आंधी तूफान बन
चलता रहेगा दौर गिरने और संभलने का

मिलते रहेंगे लोग बिछड़ते भी रहेंगे
आते रहेंगे लोग जाते भी रहेंगे
चुनौतियाँ तो मिलेंगी हर कदम पर तुम्हें
तुम्हें ही उसे चुनने और नकारने होंगे

और नहीं जिम्मेदार होंगे आपके
आपकी ही होगी जिम्मेदारी उनकी
बिना पेंदी कौन कब किस ओर लुढ़क जाए
होगी हर रास्ते की खबरदारी भी आपकी

लेंगे झंडे हाथ में या पहनायेंगे माला
आपकी जवाबदेही पर हि करेंगे घोटला
एहशान भी उनका आप पर ही होगा
बांटते रहिये भले आप रोज दुशाला

मतलबी बस्ती में सभी की मतलब परस्ती है
मुश्किल है बनानी यहाँ वफा की हस्ती है
समझ लो, यहाँ चमन है गुलाब का मगर
ख़ारों की ही चलती यहाँ मस्ती है

समय

समय समय की बात है, समय समय के साथ
समय गया आये नहीं, रहो आप समय के साथ

कठिन नहीं साथ समय का, है भी नहीं सरल
समय लिए अमृत कलश, समय ही भरा गरल

समय रहे समझ नहीं, आए समझ न रहे समय
समय मांगे मूल्य निज, बिना दिये न हो समय

समय हितैषी नहीं , समय न कोऊ बैरी होय
साथ उसी के वो चले, जो साथ समय के होय

रहे न बड़े महारथी , गए सब समय के गाल
समय हि तारनहार है, समय ही बने महाकाल

चला समझ जो समय , समय ने पकड़ा हाथ
जो खुद को माना बांकुरा, मलता हि रहा हाथ

फर्क

कहने और होने मे फर्क बहुत है
सुनने और सुनाने में फर्क बहुत है

मान लेने और मान देने में फर्क बहुत है
जान देने और जान लेने में फर्क बहुत है

गिरने और गिराने में फर्क बहुत है
उठने और उठाने में फर्क बहुत है

पाप और पापी में फर्क बहुत है
बाप और बेटे में फर्क बहुत है

कल और आज में बहुत फर्क है
आज और कल मे बहुत फर्क है

सबकी समझ समझ में फर्क बहुत है
तुममे और हममें फर्क बहुत है

समझ लेते हैं जो फर्क के मायनों को
ऐसे पढ़े और अनपढ़ों में फर्क बहुत है

जीवन की कमियां

जीवन की कमियां हि हमे भरपूर बनाती हैं
अभाव की मजबूरियाँ हि जीना सिखाती हैं

अंधेरा ही न हो तो उजाले का मूल्य क्या होगा
रिश्तों की चाहत हि तो संवेफनाएँ जगाती हैं

कमियों से ही दशानन को मुक्ति मिली राम से
कमियां ही असुरत्व को देवत्व से मिलाती हैं

कुछ कमियां भी दे जाती हैं सीख बेहतरी की
हार कर भी जीत की डगर वे ही दिखाती हैं

हुनर के बीज ही मिलते हैं जीवन के उपहार में
सीखने की कला हि तो परिपक्व हमें बनाती है

बनती हैं कमियां भी पथ प्रदर्शक यदि चाहो
अभिमानी को हि स्वाभिमान से वो डिगाती हैं

फर्क पड़ता है

कुछ भी लिख देना ही लेखन नहीं होता
सत्य को हि दर्शाना भी साहित्य नहीं होता
हर पहलू से न लिखा जाय यदि
तो बहुत फर्क पड़ता है
भले कुछ को पड़े न पड़े

साहित्य, होता है आईना समाज का
किंतु, प्रस्तुति की भि कोई मर्यादा है
अपनी ही समझ के घेरे में रहकर
फर्क पड़ता है
समाज को पड़ता है

अपनी हि जिद्द पर अड़े रहना
उड़यंदता है कलम की
दिखा देती है धूप लेखक के चमक की
फर्क समझदार पर पड़ता है
बहुत फर्क पड़ता है

शब्द बोलते हि नहीं चलाते भी हैं
बदल देते हैं दिशा समझ की
हो जाती है खंडित भावना आस्था की
संस्कारिक फर्क पड़ता है
विश्वास पर पड़ता है

बैठ डाली पर, तने की ओर काटना
हो सकता है, समझ ऊँची हो किसी की
किंतु, है जिन्हें यकीन उसपर
उन्हें फर्क पड़ता है
हाँ, बहुत फर्क पड़ता है

इच्छाएं

इच्छाएं
न कभी खत्म होती हैं
न कभी मरती हैं
वे तो फ़कत दब जाती हैं
परिस्थितियों में उलझकर
समय, सामर्थ्य, उम्र या सहानुभूति में

सोच, समझ, और व्यवहार
बन जाता है आईना व्यक्तित्व का
चरित्र के आधार से हटकर
जीवन के मकान टिक नहीं पाते

अपने को गैर कह नहीं सकते
गैर को हि अपना मान नहीं सकते
माना कि विश्वास का महत्व अधिक है
फिर भी रिश्तों से अलग रह नहीं सकते

परंपराएं बांधती हैं,सभ्यताएं तोड़ती हैं
माहौल की दीवारों को तोड़ना सहज नहीं होता
कल के लिए आज भी छोड़ना सरल नहीं होता
इक्षाओं में बंधकर भी जीना सुलभ नहीं होता

सीमित रहें ख्वाहिशें
आवश्यक की हि चाहत रहे
अवश्यकताएँ तो बहुत हैं जीवन की
सामर्थ्य के साथ ही जरूरत भी रहे

परिंदा

वक्त कभी नुमाइश नहीं करता
किसी चीज की फरमाइश नहीं करता
ढलना होता है आपको उसके साँचे मे
वह किसी की आजमाइश नहीं करता

परिंदा चुगता है दाना भले जमीं पर
मगर नज़र मे उसके गगन रहता है
फिक्र नहीं रहती जमाने की उसे
वह तो अपने ही लक्ष्य में मगन रहता है

हर तलाश में आपकी सोच ही बेहतर है
नजरिये की सोच ही पहुचाती है मुकाम तक
चलने को हर मुसाफिर राहगीर है यहाँ पर
हर पथिक भरता नहीं परवाज उड़ान तक

भरम रोक लेता है कहीं, तो कहीं वहम
दिल में संशय की फसल उग आती है
टूट जाता है छींका हाथ के पहुँचते पहुँचये
किश्ती डूब जाती है किनारे तक आते आते

हौसले हि काफी नहीं, आत्मबल भी जरूरी है
बरगलाने को खड़ी हैं कतारें राह में आपकी
परखने को नज़र भी पारखी होना जरूरी है

मुलाकात

रह जाते हैं सफ़र में हम उलझे
वक्त निकल जाता है दूर हमसे
यादें हि रह जाती हैं शेष हमतक
मिल नहीं पाते तुम हमसे हम तुमसे

क्षण भर का हि रहता है अपनापन
फिर वही, कब कौन जाने कहाँ रहता
यादें हि करा देती हैं याद फिर मिलन की
क्रम जगत का यही सतत चलते रहता

निभा लेते हैं लोग कुछ ,रिश्तों को
कुछ के लिए महज एक मुलाकात होती है
रह से जाते हैं, कुछ लोग हृदय में
कुछ के लिए तो फ़कत जज्बात होती है

मिलन महज एक संयोग हि नहीं
ये तो होतीं हैं जुड़े रहने की कडियाँ
तोड़ कर इसे, बढ़ जाते हैं कुछ लोग आगे
कुछ की शृंखला मे जुड़ते चले जाते हैं पन्ने

बड़ी हि अनमोल होती है किताब जिंदगी की
हर पन्ने में लिखी अलग दास्तान होती है
जीवन के खजाने की यही जागीर होती है
यादों की जमीं यही, यही आसमान होती है

बंधन रिश्तों का

गुजर जाता है वक्त
यादें हि शेष रह जाती हैं
छोड़ जाती हैं कुछ अमिट छाप अपनी
बातें हि विशेष रह जाती हैं

मिलना तो होता हि है बिछड़ने के लिए
मिलन की भावनाएं ही अमर होती हैं
बदल जाएं जज्बात भले दिल के
रिश्तों की पहचान मगर अमर होती है

होती हैं दूरियाँ फ़ासलों मे
लगाव से रहते हैं करीब हि हम
खुदगर्जी रहती है नज़र मे जहाँ
होकर भी करीब दूर रहते हैं हरदम

लगाव ही तो बंधन है प्रेम का
भावनाओं की हकीकत का
संवेदनाओं का सागर गहरा है
प्रतिक जन्मों के बने संबंध का

न मानिये तो फ़कत ज़रिया है मुलाकात का
मान लो तो मिलन है रूहों का
निभा लो तो रिश्ता लफ्ज़ हि खुदाई है
न मानों तो हर पल बस जुदाई है

पाने से पहले

पाने से पहले कुछ तो खोना पड़ेगा
हँसने से पहले कुछ तो रोना पड़ेगा
झीनी है चादर इस जीवन की प्यारे
संजोने के खातिर कुछ तो पिरोना पड़ेगा
पाने से पहले…..

उठने से पहले है गिरना भी मुमकिन
लड़खडाने से पहले संभलना पड़ेगा
खाईं है गहरी ढँकी शब्दों के मायाजाल से
उचाई से पहले चढ़ाई को समझना पड़ेगा
पाने से पहले…..

लगी हैं कतारें कहने को अपना
बढ़ने से पहले उनको परखना पड़ेगा
खड़े हैं सभी आज दलदल के उपर
जतन से कदम को भी धरना पड़ेगा
पाने से पहले…..

खोये हैं लोग ख्यालों में अपने
घिरे हैं लोग सवालों में अपने
जवाबों से रिश्ता नहीं कोई उनका
तुम्हे खुद के भीतर कुछ तो बनना पड़ेगा
पाने से पहले कुछ तो खोना पड़ेगा

अहमियत

माना वक्त से वक्त को खरीद नहीं सकते
किंतु, वक्त को वक्त से बदल तो सकते हैं
वक्त जरखरीद गुलाम नहीं होता है किसीका
प्रतिकूल को अनुकूल मे तोबदल हि सकते हैं

तदवीर से हि तकदीर भी बदल जाती है
लक्ष्य हो पुख़्ता तो नजरेतीर् भी बदल जाती है
हौसलों के घुटने टेक देती हैं नाकामियां भी
राहे भी बदल जाती हैं दिशा भी बदल जाती है

जीत के आगोश में भी स्वाभिमान जिंदा रहे
हार मे भी जीत का अभिमान जिंदा रहे
पलट जाती हैं बाजियाँ भी आखिरी मुकाम पर
खुद के भीतर जुनून का ईमान जिंदा रहे

मंजिल पर कदम कोई भी आखिरी नहीं होता
गहराई या उचाई भी कभी आखिरी नहीं होती
शेष रहता है बहुत कुछ भविष्य के गर्भ में
आज के दायरे मे हि कैद कभी कल नहीं होता

जरूरी है कि नज़र में आपके वक्त क्या है
जरूरी है कि वक्त से वक्त का मोल क्या है
तौलिये न गैर की औकात को कभी खुद से
परखिये गैर की में आपकी अहमियत क्या है

अहमियत

माना वक्त से वक्त को खरीद नहीं सकते
किंतु, वक्त को वक्त से बदल तो सकते हैं
वक्त जरखरीद गुलाम नहीं होता है किसीका
प्रतिकूल को अनुकूल मे तोबदल हि सकते हैं

तदवीर से हि तकदीर भी बदल जाती है
लक्ष्य हो पुख़्ता तो नजरेतीर् भी बदल जाती है
हौसलों के घुटने टेक देती हैं नाकामियां भी
राहे भी बदल जाती हैं दिशा भी बदल जाती है

जीत के आगोश में भी स्वाभिमान जिंदा रहे
हार मे भी जीत का अभिमान जिंदा रहे
पलट जाती हैं बाजियाँ भी आखिरी मुकाम पर
खुद के भीतर जुनून का ईमान जिंदा रहे

मंजिल पर कदम कोई भी आखिरी नहीं होता
गहराई या उचाई भी कभी आखिरी नहीं होती
शेष रहता है बहुत कुछ भविष्य के गर्भ में
आज के दायरे मे हि कैद कभी कल नहीं होता

जरूरी है कि नज़र में आपके वक्त क्या है
जरूरी है कि वक्त से वक्त का मोल क्या है
तौलिये न गैर की औकात को कभी खुद से
परखिये गैर की में आपकी अहमियत क्या है

कहो क्या लिखूँ

भोर सुहानी लिखूँ या शाम दीवानी लिखूँ
दिन की रोशनी लिखूँ या रात की वीरानी लिखूँ
तुम हि कहो कि जिस राह पर चल रहे आज
उसे बुढ़ापा लिखूँ या कल की मुर्दानी लिखूँ

लिखूँ गति विकास की या विनाश की लिखूँ
पढ़ूँ गाथा हास की या उपहास की लिखूँ
आज़ाद वतन मे आम लिखूँ या खास लिखूँ
अपनी अपनी डफली अपना अपना राग लिखूँ

बढ़ रही खुदगर्जी के आलम की दास्तान लिखूँ
या हो रहे विकास मे अर्धनग्न का बयान लिखूँ
बाल युवा वृद्ध की बेहयाई लिखूँ पढाई लिखूँ
मर रही इंसानियत की कहो नई चढ़ाई लिखूँ

कहो कभी था विश्व में महान वह भारत लिखूँ
या गिरता हि जा रहा पतन मे वह गारत लिखूँ
साहित्यकार हूँ सच लिखूँ या झूठ लिखूँ
हरियाली वतन की लिखूँ या हो रहा ठूंठ लिखूँ

मिलना आपका

मिलना आपका महज संयोग हि नहीं था
कर्ज किसी जन्म का चुकाना भी था मुझे

रिश्ते अतीत के कभी खत्म नहीं होते
संबंधों के महत्व को जताना भी था मुझे

अनंत जीवन यात्राओं का चक्र है यह
सिलसिले में इसी प्रभु को मिलाना था मुझे

लोग तो मिलते भी रहे बिछड़ते भी रहे
बिन आपके खालीपन सा सालता रहा मुझे

कुदरत ने हि भर दिया उस रीते एहसास को
खुदा रखे लबरेज जुड़े इस लगाव से मुझे

रख सकूँ खुश तुम्हे, तमन्ना है अब यही
निभाना है इसी चाहत को अब उम्र भर मुझे

छोड़ दो मुझे

छोड़ दो मुझे तुम मेरे हाल पर
पहुँच जाऊंगा मैं मुकाम तक

आजमाया हूँ बातों की तसल्ली को
छोड़ा हूँ चलना उम्मीदों की राह पर

वक्त पर सदा व्यस्त ही रहे हो तुम
रहना चाहता नहीं अब इंतजार पर

अपेक्षाएं बना देती हैं कमजोर इंसान को
चलना तो होता है खुद के हि कदमों पर

करते भी रहे तोड़ते भी रहे वादा तुम
ठहरेंगे भी कबतक आपकी जबान पर

दुनियाँ की नज़रों में हम नासमझ हि रहे
परखते हि रह गये हम भी यही उम्र भर

प्रथम

दस नहीं
साथी एक चाहिए
रास्ते दस नहीं, एक चाहिए
जीवन का उद्देश्य भी
दस नहीं एक होना चाहिए

सांसों की तरह
जोड़ कर रखिये इन्हें
कल की सोच में नहीं
आज के निश्चय मे रखिये इन्हें

एक हि प्रथम है
यही पूर्णता का आधार भी
पहला कदम, पहला गुरु
इनसे हि जीवन होता शुरू

बहुतों की चाह में
भटकाव की आशंका रहती
विश्वास, भरोसे, उम्मीद की
शंका बनी रहती

आप भी प्रथम स्वयं हैं
मानिये सक्षम आप स्वयं है
चाहते जो पाना स्वयं आप
उसके कर्ता धर्ता आप स्वयं हैं

वर्तमान

यकीन है मुझे
कि आज से कल बेहतर होगा
किंतु, उस कल के लिए
आज को निष्क्रिय नहीं कर सकता

जो आज कर सकते हैं
उसे करना है आज ही
कल के प्रभात मे
नई उम्मीद से जगना होगा
आज भी प्रभात ही रहा

क्षण में बदलती धारा का प्रवाह है
रास्ते से निकलते रास्ते हैं
हर अवसर हर आये दिन नहीं आते
मौके की प्रतिक्षा मे
वर्तमान को गँवा देना ठीक नहीं
आज को भि खो देना ठीक नहीं

चयन के लिए मार्ग खुलते रहेंगे
दिशा का चयन जरूरी है
उद्देश्य की पूर्ति होनी चाहिए
संकल्पित होना जरूरी है

कागजी ताज

कर्म के परिणाम हि होते हैं फ़लित
जीत या हार में
बिकता नहीं वक्त कभी
स्वार्थ के बाज़ार में

आश्वासनों के जाल तले
फैला दो कितने ही
प्रलोभनों के दाने
आ जाती है समझ मगर
फर्क आज नगद कल के उधार में

हंस कर देता है अलग दूध और पानी
हो जाती है उजागर कथनी और करनी
उजड़ गये तजोतख़्त शुरमाओं के
रह गये ताउम्र भरते पानी

दिल्ली में भी धड़कते हैं दिल
टिकाऊ नहीं कागजी टोपी का मोल
लगा देते हैं झाड़ू खुदगर्जी पर
वहाँ के लिए भी कुछ नहीं मुश्किल

खिल गया कमल महक उठा क्षेत्र
प्रकट हुआ ज्यों शिव का त्रिनेत्र
होगी विकसित हर बस्ती अब
रहा न वह दुर्योधन का कुरुक्षेत्र

बसंत सुहाना

लो आया बसंत सुहाना महक गई फुलवारी।
चली चली हवाएं मस्तानी लो बह रही पुरवाई।

बसंत की रातें रंगीन मौसम भी हुआ मस्ताना।
फूल खिले चमन में बहारों का फिर इतराना।

चेहरों पर मुस्काने मधुर गीतों का मधुर तराना।
मनमयूरा झूम के नाचे नजारा हुआ है सुहाना।

बसंती मदमस्त बयारे पुलकित करे तन मन।
फागुनी धुन ढप बाजते रसिया नाचे साजन।

वसंत की रातें चांदनी फागोत्सव सब मनाते।
चंग धमाल बजे बांसुरी स्वांग नए नए रचाते।

गिंदड़ डांडिया खेल प्रिय प्रीत की बहे रसधार।
संगीत सुरों पर थिरकती सजी-धजी घर नार।

हाथी घोड़े ऊंट सजते हदय सद्भावों की धारा।
रंग बसंती दिलों पर छाया मन बोले इकतारा।

आओ बसंत मनायें मिलकर गीत गाए भावन।
उमड़ रही भावों की गंगा बोल मधुर है पावन।

आपका अपना

आज को न टालिये कल पर
काम कल के आज ही निपटाइये
कल भी जाने कैसा हो कल
कल आज मे हि बदल डालिए

मिला है जो वही आपका है
और के हकदार आप नहीं हैं
ले न सकेगा कोई और भी आपका
इसी परम सत्य को समझ जाइये

वक्त आपका है आपका ही
किंतु, वक्त को वक्त भी देना होगा
समझकर हि समझे हैं लोग समय
आप स्वयं को भी परख लीजिये

अपने भी होंगे आपके अपने
गैर भी आयेंगे काम आपके
बशर्ते, मिलनसारिता हो आपमें
काबिल और के खुद को बना लीजिये

निर्भर है सब आप पर
आपका दिया हि आयेगा लौटकर
ढल जाती है मिट्टी भी आकर मे
आप भी खुद को ढाल लीजिये

बेहतरी

कुछ न होने से कुछ का होना बेहतर है
आज के न होने से कल का होना बेहतर है

दस न होने से लायक सुत एक बेहतर है
भोग छप्पन न होने से रोटी एक बेहतर है

अधिक न होने से मिला इक अवसर बेहतर है
जाते हुए पूरे से आधे की समझ बेहतर है

अपना ही रिश्ता होने लगे, अजनबी के जैसे
तब रिश्ता ग़ैर से जोड़ लेना अपने से बेहतर है

माना कि झूठ में लज्जत बेशुमार पाई जाती
झूठ की लज्जत से सच की कड़वाहट बेहतर है

क्यों आरज़ू करते हो लंबी लंबी उम्र की यारों
मोहब्बतों में गुजारी हुई एक शाम बेहतर है

आज जो लम्हें मिले उनमें जी लो जी भर के
कल फ़िक्र न छोड़, आज में भि जी लेना बेहतर है

रुकना नहीं

चलते चलते थक भी गये अगर
तो थम जाना भले
रुक गये तो फिर चलना नहीं होता
आकर भी करीब जीत के
फिर जीत पाना नहीं होता

मन की भी अपनी एक सीमा है
जिसे बदल देती हैं हवाएं
दौर में घुल गई है चंचलता
स्थिर रहती नहीं इच्छाएं

दिशा के बदल जाते हि
बदल जाती है मनोदशा
लगता नहीं वक्त कोई
लक्ष्य से भटक जाने मे

पहुँचने के लिए
चलते रहना जरूरी है
एक और अगले कदम को भी
आजमाते रहना जरूरी है

आज का दिन आखिरी नहीं
सफ़र रखें जारी पहुँचने तक
उदाहरण हैं आप स्वयं में
मिशालों की गणना जारी रखें

मेला

लगने लगा है मेला सामानों का
दिलों का मेला छूट गया
बिछडों के मिलन का जरिया रहा जो
महज शौक चलन में रिश्ता वह गया

अब जाते नहीं लोग मेले मे मिलने
जाते हैं फ़कत मन बहलाने
खिलता है मनचलों का मन वहाँ
बन जाते हैं स्पर्श के बहाने

मेला तो आत्मिक मिलन का बहाना था
रिश्तों की प्रगाढ़ता का अवसर था
बन गया हुड़दंग का अखाड़ा अब
जो कभी संबंधों का गढ़ था

भीड़ की व्यस्तता से अलग
यादें जहाँ होती थी ताजा
दूर होते थे शिकवे गिले
प्रेम मे सने रहते थे राजा

वास्त्विक्ता वही अब भी लानी होगी
या फिर खत्म हो चलन इसका
एकता के सूत्र का प्रयोजन है यह
अनुपम प्रमाण है मेला मेल का

आतिथ्य धर्म

घर आये कोई आपके
यह आपका सौभाग्य है
कर न सकें आतिथ्य आप
यह आपका दुर्भाग्य है

हर दाने पर लिखा नाम रहता
शास्त्र है यही कहता
रहती नज़र प्रभु की सबपर
उससे न कुछ अनभिज्ञ रहता

वैसा हि मिलेगा मान
देंगे जिसे जैसा सम्मान
लौटता है वक्त फिर वही
भले रूप हो अनजान

बंधे एक हि डोर से सभी
विधान नहीं भिन्न
सबका मालिक एक ही
जैसे है रात और दिन

समझ समझ का फेर सब
आज दिन आपका है
कल उसके खातिर रब
राम भी आपका खुदा भी आपका है

जाने कैसा हो

हकीम की हकिमी न रही
न रही पंडित की पंड़िताई
मुल्ला जी रह गये बांग देते
लोगों को आने लगी जम्हाई

किसीका किसीपर ऐतबार नहीं
किसी का किसीसे प्यार नहीं
अपनी हि गफलत की मस्ती है
किसी दिल के चमन में बहार नहीं

संगीत मे की सुर ताल नहीं
हकीकत में ठीक हाल नहीं
गुमान है तब भी बेहतरी का
उठा भी दिये गये तो मलाल नहीं

अजीब सी फितरत में जी रहे
हँसते हुए भी जिल्लत मे जी रहे
कल की खबर नही किसी को
आज खुशी मे रूहानी जाम पी रहे

ऐसे मंजर का गुल जाने कैसा हो
आज के बीते कल जाने कैसा हो
वक्त को समझ लें वक्त के भीतर
वरना, मुकद्दर फिर जाने कैसा हो

उचाई

और की उचाई देखने से पहले
अपनी जमीन देख लें
पथरीली राहों से चला है वो
उछाल को भी समझ लें

समय उसका अपना था
जरिया और लगन उसकी थी
आपकी मंजिल आपकी अपनी है
रास्ते और प्रयास आपके अपने हैं

रास्ते बहुत हैं मुकाम तक
हर रास्ते की तासीर अलग है मगर
बेहतरी का चयन आपका है
विवेक की परख है अगर

यकीन भी करें तो यकीन से करें
दो नाव की सवारी ठीक नहीं
सागर तो है एक सा ही
मीन या मोती निश्चित करें

पछतावा फिर वक्त नहीं देता
लौटकर फिर चलना नहीं होता
जो भी है, वर्तमान हि आपका है
भला किसी और से नहीं होता

बुनियाद

गहराती हि जा रही है शाम
लगाव का दीप जलाये रखिये
जाने कब डंसने लगे भयावहता
उम्मीद के कदम बढ़ाये रखिये

भटकने लगे हैं बच्चे अभी से
संस्कार की डोर से बांधे रखिये
निगलने को झपट रहा बाज है
तरकस की कमान साधे रहिये

समझिये आज के विकास को भी
कल को भि परखते रहा करिये
आज हि होता है भविष्य कल का
कल को भी आज मे देखते रहिये

बीज हि तो होता है बड़े शजर जैसा
गाँव हि बढ़ते हुए होता है शहर जैसा
तब ये दौर भी चलते हुए होगा कैसा
बोये अनुसार हि तो होता है फल वैसा

पीढ़ियों के प्रति भी चिंतन करते रहिये
सोच पर भी अपने मनन करते रहिये
आप हि तो हैं कर्णधार आते हुए कलके
कल की बुनियाद को आज मे हि गढ़ते रहिये

अनुराग

रहे उम्रभर स्वार्थ और कुकर्म मे
आज गंगा नहाने से क्या होगा
वाणी पर रखे नहीं बंधन कभी
आज भजन गाने से क्या होगा

आस्था मे आये नहीं कुम्भ स्थल
दिखावे के भाव हि रखे अंतस्तल्
आकर यहाँ भी दृष्टि मैली हि रही
धुलेगा कर्म कैसे लेकर भी गंगाजल

मोक्ष दायिनी गंगा भी भ्रमित हुयी
देख भक्ति एकदिन की सशंकित हुयी
चेहरे भी बदल लेते हैं पल मेंचेहरे कैसे
धोये तन या मन,धारा भीअचंभित हुयी

भारद्वाज की तपस्थली क्षेत्र पावन प्रयाग
अवध नरेश श्री राम जी का रहा अनुराग
आत्मशुद्धि की धारा ले बहता सुरसरि जल
मन निर्मलता मे हि मिलता मोक्ष का फल

गंगा यमुना की मिलती जल धारा जैसे ही
होता यहीं पाप पुण्य का लेखा जोखा भी
परिणाम तुम्हारे हाथों में हि सुरक्षित है
तज दो कर्म बुरे या करते रहो खुद से धोख़ा

कीमत अपनी

चलते चलते चल देना ही
सत्यता है जीवन की
जाना है सब छोड़ यहीं पर
नहीं संभावना फिर पुनर्मिलन की

तय है कि भावना नुसार हि
किये गए कर्म के आधार पर हि
बनता है प्रार्बद्ध अगले जन्म का
रह गये तब भी अचेत कल से हि

आप बने नहीं उम्रभर परिवार से ही
समाज ने ही दी है कुशलता
औरों ने ही दी है परिपक्वता
तब भी रहे बंधे निज स्वार्थ से हि

करते रहे कत्ल स्वयं ही जमीर का
और कहते रहे दुनियाँ बदल गयी है
बदलकर रास्ते चले खुद हि तुम
कहते रहे भटक गये हैं लोग सारे

देखी है कमी हर इंसान मे तुमने
भूल गए मगर, उस हर मे खुद को तुम
लगाई कीमत दुनियाँ की तुमने
पर, भूल गए तुम खुद ही कीमत अपनी

विकास का मोल

आते रहेंगे दिन गुजरते रहेंगे
मनाते रहेंगे हम दिन विशेष
और भूलते रहेंगे दूसरे हि दिन
इसकी सार्थकता क्या रही तब!

पढ़ते रहेंगे गज़ल गीत साहित्य
भूलते रहेंगे पन्ने पलटते ही
समय पैसा सब खर्च कर भी
वक्त की बर्बादी का मोल क्या तब!

करते रहेंगे प्रेम आकर्षण पर
बदलते रहेंगे रिश्ते स्वार्थ पर
अपने भी रह गये पहचान भर
ऐसे लगाव का लाभ क्या तब !

महज औपचारिकता हि रही
कहने भर को रह गया सम्मान
कागज के फूलों की सजावट मे
स्वागतम का तात्पर्य क्या तब!

सोचिये, दे रहे सीख क्या पीढी को
रहेगा महत्व क्या ऐसी सीढ़ी को
उचाई की धरातल हि दलदली रही
ऐसे विकास की उपमा हि क्या तब!

मैं स्वयं में

मैं स्वयं में
परिवार हूँ, समाज हूँ, देश हूँ
फिर भी, मुझ जैसा
मैं हि खुद हूँ
न बन सका किसीके जैसा
न बना सका किसीको खुद जैसा

लिखा पढ़ा भी बहुत
सुना, सुनाया भी बहुत
समझा समझाया भी बहुत
फिर भी
सोच वही रही, नजरिया वही रहा
ख्वाहिश रही बदलने की
मगर, मैं तो वही रहा, जो रहा

पहुँच गए कई
जो मुकाम उनका रहा
मुकाम की तलाश मुझे भी थी
रह गया तलाशता ही
फिर भी
तसल्ली है कि मैं भी
बदल न सका उनकी तरह
बदलते रहे लोग जैसे
संतुष्ट हूँ कि अभी तक
जमीर जिन्दा है, क्योंकि
मैं वही हूँ, जो रहा हूँ

हमारा गणतंत्र

लगे हैं फंदे मतलबी
उलझ गई हैं गांठे
बुने हैं जाले खुद ही
छिपकली का दोष नहीं

हुए थे मुक्त दास्तां से
भूखे हुए भात भात
पिस गए बल हीन
समर्थ लूटे दिन रात

प्रश्न रहे अनुत्तरित
कौन हुआ आज़ाद
देश या नेता हमारे
गणतंत्र की जय हो

चूकते रहे आम जन
छलते रहे चतुर गन
परखे नहीं उनको
समझे नहीं खुद को

जागे नहीं अब भी तो
संभले नहीं अब भी तो
देव भी रूठे समझो
पिढियाँ भी डूबी समझो

वक्त के साथ

चलना होगा आपको
वक्त के साथ
वक्त चलेगा नहीं आपके अनुसार
सत्य सफलता का यही

खास सभी वक्त के लिए
आप हि विशेष नहीं
परखिये स्वयं को
और कोई विकल्प नहीं

कंकरीले पथ चले सभी
पाई जिसने भी मंजिल
नदी नाव दोनों आपके
आप ही साहिल

एक सूर्य एक हि चांद
एक वक्त एक हि राह
भिन्नता आपके लिए हि कैसे
आपका प्रयास आपकी चाह

नज़र नजरिया आपका
संगत और प्रभाव आपका
पहचान अपनी खुद बनानी होगी
प्रयास और लक्ष्य से लगाव आपका

समय की समझ

गंगा जमुना और शारदा की
मिलन स्थली तीर्थराज प्रयाग
मिला यह संयोग दुर्लभ महाकुंभ का
तज बैर भाव नर जाग सके तो जाग

तुलसी संगत साधु की
मिलें तीर्थ या संत
प्रयाग मिलन त्रिवेणी का
जहाँ विराजें स्वयं कंत

हर माघ माह फहरे ध्वजा सनातन की
द्वादश बर्षों बाद मिले कुंभ संयोग
अलौकिक शक्ति से परिपूर्ण क्षेत्र यह
दर्शन मात्र से घटे दुख संताप वियोग

मानवता की पहचान लिए
प्रेम एकता का अटूट बंधन.
योगी भोगी साधु सन्यासी
एक हि घाट बहे जल पावन

मिट न पायेगी मन की तृष्णा कभी
माया और मोह के जाल हैं सभी
समझ जाँये यही है समय उपयुक्त
गये चूक तो कर न पाएंगे खेद भी व्यक्त

हो न पश्चाताप

समुद्र मंथन के समय
निकले अमृत कलश पर
असुर देवों की छिना झपटी मे
गिरी बूंद चार

हरिद्वार, नाशिक, उज्जैन और प्रयाग
द्वादश वर्षों बाद,
होता यहीं कुंभ आबाद
लगा अबकी यह जो महाकुंभ
मुहूर्त आया साल एक सौ चवालीस बाद

तलाश मे उसी बूंद खातिर
आते सुर असुर गंधर्व सभी
इसीसे यह क्षेत्र पवित्र
ऋषि, संत, उपदेशक का आगमन यहाँ
कर दर्शन,होते शुद्ध जीवन चरित्र

कर लो दर्शन ऐसे श्री स्थल का
हो मन शांत, मिले शांति अंतस्तल
लख चौरासी यौनि पश्चात पाए जन्म को
कर लो शुद्ध निर्मल शीतल
निकल न जाय अवसर महाकुंभ का
हो न पश्चाताप समझ के विलंब का

महाकुंभ

पाकर महाकुभ का दर्शन
हुआ सार्थक मेरा जीवन
फल पाप पुण्य का पता नहीं
आत्म तृप्ति का यह क्षेत्र पावन

सुर असुर गंधर्व प्रिय सभी का
गिरी बूंद अमृत कुंभ से तब का
नासै रोग हरै सब पीरा यहाँ
बसै धर्म सनातन का हृदय यहाँ

आश्रय स्थली विजय बाद लंका की
ठहरे प्रथम यहीं संगी संग राम जानकी
गये पवनसुत अवध देने विजय संदेश
लेटे यहीं बजरंगी, राम नाथहि नाय शीश

प्रयाग तट त्रिवेणी संगम पुनीत
समदर्शी श्री राम की गाथा अतीत
गंगा यमुना सरस्वती मिलन घाट
समय शीत का भी देता है ठाट

यूँ तो प्रति वर्ष लगे माघ माह में
महाकुंभ बारह बर्ष पश्चात
जीवन कर लें धन्यआओ हम सब
जाने फिर कब हो कुंभ की बरसात

कुंभ प्रताप

चलो चलें महाकुंभ, नहाने संगम तीर
दुःख दारिद्रय वहाँ हटे, मिटे मन की पीर

तन मन की मैल घटे, मिले देवों का स्नेह
त्रिवेणी का जल निर्मल, शुद्ध करे है देह

विस्तार तीस मील का, महाकुंभ का क्षेत्र
मन पावन कर रहा, दृश्य अद्भुत नेत्र

हैं अचंभित सैलानी, देख पर्व सनातन का
सत्यापित हो रहा, हिंदू धर्म पुरातन का

अमृत घट की बूँद पर, लगे कुंभ का मेला
दानव, देव किन्नर सभी का, बढ़ रहा है रेला

पधारे जो पुण्य स्थल पर, हरे दुख संताप
हो सफल जन्म यह, ऐसा शुभ कुंभ प्रताप

महाकुंभ दर्शन

कर दर्शन महाकुंभ का
कर लो सफल सार्थक जीवन
फिर फिर सौभाग्य न आये ऐसा
फिर फिर मिले न ऐसा दिन

कुंभ क्षेत्र की धरती पावन
फैली किलोमीटर तीस
त्रिवेणी संगम के तट से लेकर
सजा सेक्टर क्षेत्र चौबीस

विश्व धरा से आये भक्त यहाँ लाखों
शक्ति सनातन की देखो अपनी आँखों
तैतिस् कोटि के देवों का है आगमन
वैश्विक शांति का मिलन मनभावन

गंगा जमुना सरस्वती का संगम
देता पवित्र संदेश परम
आये साधु संत के अखाड़े कई
नगरी लगती देवों की बस गई

आया समय पुनीत यह
साल एक सौ चालीस चार बाद
फंसे लख चौरासी के जाल से
कल्पवास कर हो लो अब आज़ाद

मुक्ति द्वार

मन की निर्मलता मे ही गंगा पावन है
नहीं तो बहती केवल जल की धारा है
भगवान् बसे हैं कण कण में लेकिन
शुद्ध हो दर्शन तब हि लगता जग प्यारा है

शंखनाद हो या होती रहेअजान सुबहो शाम
पूजा ईबादत व्यर्थ है यदि अलग रहीम राम
मानव मानव के मन में रही न यदि मानवता
मुल्ला हो या पंडित पनपे केवल मन दानवता

नर वह पशु है जिसके मन पलता अलगाव
पढ़कर भी क्या सीखा, कैसा लिया प्रभाव
बँटकर मिला न किसी को खुदा या भगवान्
हर कुल मे जनमी एक हि जैसी सब संतान

देख लो तुम चाहो तो अपने जीवन दर्पण में
क्या खोया क्या पाया अबतक के जीवन में
कटुता पाली इर्श्या पाली, पाले बैर भाव मन में
लिया न सुख चैन कभी तुमने जीवन दर्शन मे

रुकता नहीं वक्त उम्र भी रुकती नहीं है
बहती हुयी धारा है ये कभी थमती नहीं है
होगा नहीं हर बार मनुष्य का जन्म आपका
है यही द्वार मुक्ति का, निर्णय भी है आपका

मित्रता

हमे ऊंचा तो उठना है, मगर
पतंग सी मित्रता नहीं चाहिए
मिलकर गले जो गला काट दे
लगाव का धोख़ा नहीं चाहिए

सोच के धागे से खेला गया जो
जीत की हि चाहत से हो मेल जो
ऐसा संग जीवन में नहीं चाहिए
धुल जाए जो वो रंग नहीं चाहिए

पतंग तो खेल है सिर्फ चौसर सा
जहाँ देते हैं झांसे दो दो शकुनि
छिड़ जाता है महाभारत समर में
कांच की कीर्चों ने है किसकी सुनी

मित्रता मे चल रहा यही दांव पेच
बनावटी चाह की खिचम् खेंच
सत्यता मे मृत अपनापन रहा
वजह यही कि कल बिगडापन रहा

हो साथ तो दूध और जल जैसा
हो साथ तो धागे और मोम जैसा
एक की पीड़ा दूसरे का जख्म हो
मित्रता का हमे यही आधार चाहिए

पालक

पूजा पाठ नियम जप तप
मिलते हैं सब प्रभु के प्रताप से
होता मन चंचल निर्मल शुद्ध
सद आचरण कर्म के प्रभाव से

हवन यज्ञ मंत्रोच्चार से मिले दिशा ज्ञान
सत्संग से मिटे तन मन का अभिमान
गुरुमुख वाणी से खुले कपाट अज्ञान
मानव जीवन की सार्थकता का यही विज्ञान

हम सुधरेंगे जग सुधरेगा
बिन सुधरे प्रभाव कहाँ रहेगा
लिखी हर बातें किताब में ज्ञान की
देखना खोलकर दीमक हि चाट् रहा होगा

उचित है ज्ञान बांटना भी
उचित है फर्ज निभाना भी
सर्वोत्तम है व्यवहार में लाना भी
समझाने से पूर्व समझ लेना भी

उदाहरण देने से पहले
बनिये स्वयं उदाहरण के पालक
दिखाएँ प्रेरणा श्रोत बनकर
जलायें ज्योत प्रथम बढ़कर

विश्व हिंदी दिवस की हिंदी

विश्व हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
दिल से हिंदी को आओ हम सभी अपनाएं
पहचान यही है भारतीय सभ्यता संस्कृति की
अपनी संस्कृति को अब हम हृदय से लगाएं

एक दिन की इस महिमा मंडन से क्या होगा
विदेशी संस्कृति के झूंठे खंडन से क्या होगा
दिखावे से आचरण की शुद्धता नहीं होती
कहने मात्र से ही कोई निराकरण नहीं होता

होगी न जबतक स्वाभिमान देश की हिंदी
जबतक पा न सकेगी हार्दिक सम्मान हिंदी
तबतक केवल कागज के पन्नों पर हिंदी होगी
कहने भर को ही केवल माथे की बिंदी होगी

वेद, पुराण, ग्रंथ सब लिखा है जब हिंदी में
रसखान, सूर, तुलसी कबीर लिखे हिंदी में
आदर,लिहाज,व्यवहार,आचरण सब हिंदी में
तब भी होता क्या व्यवहार दिल से हिंदी में

प्रथम प्रयास को आधारशिला होगी जब हिंदी
हर जन के मन की संगीत बनेगी जब हिंदी
तब हि हमारी आन, बान, शान बनेगी हिंदी
वरना तो हिंदी दिवस का सम्मान हि होगी हिंदी

आदमी

जीवन एक यात्रा है
हम सभी सिर्फ मुसाफिर
तय नहीं वक्त रहने या जाने का
क्या मौलवी, क्या काफ़िर

प्रमाणित नहीं जगह आने की
प्रमाण नहीं जाना है कहाँ
भिन्नता है महज विचारों की
आया जहाँ से जो जायेगा वहाँ

चंद मुलाकातों के दौर में तब
आपसी वैमनस्यता क्यों
जिसने भेजा उसे हि खबर नहीं
इंसान खुद मे लड़ता है क्यों

देखा नहीं विद्रोह् करते राम रहीम को
देखा है मगर लड़ते कमला करीम को
वैसे तो दो नहीं वो एक दूजे मे
वरना वो भि लड़ते अपने जमीर मे

समझेगा इंसान कब इस सत्य को
हकीकत को छोड़ थाम लिया किताब को
मानवता को छोड़ मानव बनता है आदमी
हद्द हुयी बुद्धि की बुद्धिमान बनता है आदमी

मैं तो बीज हूँ

बेशक आजमाते रहें आप मुझे
आजमाना मेरी आदत नहीं
प्रयास है कि अनभल न हो किसीका
फिरभी हो जाय तो यह संयोग होगा

कर्म हि मेरा जीवन है
मानवता हि मेरा आदर्श
फिर भी सत्य से आहत हो कोई
मैं चापलूसी नहीं कर सकता

सौ से सम्मान का अभिलाषी नहीं
दस का साथ भी बहुत है
तारीफों के दरख्त लगाकर
जड़ में नमक भरना नहीं आता मुझे

हुजूम के पक्षधर हो सकते हैं आप
समर्थकों की कतारें नहीं मेरे लिए
रंग जो धुल जाए बारिश मे
मुझे वो रंग रोगन नहीं भाता

बेशक, होंगे शीर्ष पर आप
जमीन की सोंधी महक से संतुष्ट हूँ मैं
बीज हूँ भले जमीन मे पड़ा हुआ
पेड़ न भि बना, तो खाद बन हि जाऊंगा

यादगार

कल धुंध हो या धूप
आज के उजाले को खोना नहीं है
कट जाये सफर जहाँ तक
वह भी कम नहीं बैठे रहने से

बूंद बूंद से भरता है घडा
कौड़ी कौड़ी से धन जुड़ता है
कदम कदम से हि मिलता है मुकाम
सफ़र मे चलना जरूरी है

शब्द से हि तो भरते हैं पन्ने
विचारों से हि ग्रंथ लिखे जाते हैं
माना कि औकात मेरी छोटी है
बीज ही तो दरख्त बनते हैं

क्यों मान लूँ पराजय पहले
कर लेता हूँ एक प्रयास और
टूटी नहीं शिला अबतक तो क्या हुआ
शायद यह प्रहार वज्र साबित हो

जीत भी नहीं पाया अगर
तो मलाल खुद की बेबसी का न होगा
जीत हुयी तो मिशाल बनूँगा
मेरी हार भी तो यादगार होगी

विशेष हैं आप

शक्ति खत्म नहीं होती कभी
रूपांतरित हो जाती है अन्य मे
अच्छाईयों को छोड़ देते हैं जब
बदल जाती है वह बुराइयों मे

शक्ति की शक्तियां निर्भर हैं आप पर
वे तटस्थ हैं आपके आदेश पर
बिजली के स्विच की तरह
चला लो उसे मनचाहे राह पर

आपके सोच की ऊर्जा
करती है प्रभावित इच्छित वस्तु को
पाते हैं तब हि आप उसे
परिणाम आपकी भावना पर है

दुर्लभ कुछ भी नहीं आपके लिए
सर्वस्व है आपके लिए
नेकी या बदी का चुनाव आपका है
विशेष हैं आप इस जगत में

संघर्ष हर किसी के साथ है
दिन है अगर तो रात भी है
मोड़ और विरोध तो मिलेंगे ही
हार है अगर जीवन में तो जीत भी है

उजाला

वक्त को पकड़ लो यदि मुट्ठी में
तो वह वक्त तुम्हारा है
वरना वो किसी के लिए ठहरता कहाँ है
रुकने का नाम वक्त होता हि नहीं

सगा नहीं विरोधी नहीं
पथ प्रदर्शक नहीं अवरोधी नहीं
वह खास किसी के लिए नहीं
खास तो सभी हैं उसके लिए

बना लेता है सखा जो वक्त को
बन जाता है कृष्ण वही सुदामा के लिए
रहती है तलाश जिसे वक्त की
वक्त ठहरता कहाँ है उसके लिए

वे थे नहीं अलग आपसे कभी
पा लिये मुकाम जो यादों में
समझे थे खुद को पहले
और, वक्त के साथ थे हो लिये

विशेष हैं आप भी स्वयं के भीतर
जगानी होगी खासियत अपनी
तुममे भी छिपा है अंधेरे का सूरज
तुम भी उजाला हो कल के लिए

हिंदी का मोल

हिंदी हिंदी सब कहें, पर ना माने हिंदी कोय
सबै प्यारी अँग्रेजी, हिंदी एक दिवस की होय

रहिमन, तुलसी, सूर सब, गये काल के गाल
पंत, निराला, अज्ञेय भी, रहे न हिंदी के भाल

हाय, हेल्लो, हाव आर यु, चमक रही है बोल
हिंदी केवल नाम की, मानो नमक रहे हो तौल

दुल्हिनियाँ बोले बड़े प्यार से, डू यू लव मी
डालडा से काम चलाव अब, कहाँ से लाई घी

हिंदी का है अब मान यही, कहूँ बात मैं खरी
जोगिन जैसे फिरे है हिंदी, इंग्लिश नभ की परी

भईया अब ना पूछउ हमसे,आगे हिंदी की बात
मेहरारू जैसे भागि चलौ, पड़े न विदेशी लात

भोर तक

कदमों के तले हि रहती है दूरी
धरती से अम्बर तक
पानी हैं बहुत सी उचाईयां तुम्हें
जनवरी से दिसंबर तक

पैर हि बढ़ते रहें यही जरूरी नहीं
सोच भी बढ़नी चाहिए
समतल हि रास्ते हों जरूरी नहीं
मोड़ भी आने चाहिए

मौसम में शीत भी है तो गर्मी भी
सहते रहना चाहिए
समय की धारा के साथ साथ ही
बहते रहना चाहिए

हर दिन खिलते नहीं फूल बाग में
सींचते रहना चाहिए
जीत ही मिलती रहे मुमकिन नहीं
सलभलते रहना चाहिए

विश्वास की गोद में रहती हैं सफलताएं
यकीन खुद मे रहना चाहिए
वह दिन हि नहीं जहाँ उजाला न हो
भोर तक चलना चाहिए

स्वागत नव वर्ष आपका

अलविदा दो हजार चौबीस
स्वागतम है दो हजार पच्चीस
क्षितिज सा लग रहा मिलन यह
आलिंगित हो रहा समय चक्र यह

गिला शिकवा कुछ नहीं किसी से
स्वीकार्य है हुआ जो भी जिसी से
नव वर्ष का अब मंगल गान हो
हर्षित रहे मन आंगन,ना विरान हो

नव सृजन का हो रहा पदार्पण है
तन मन धन सब चरणों में अर्पण है
जले ज्योत सत्य के सनातन की
गुंजित हो संस्कृति फिर पुरातन की

हर मानव बनकर रहे एक अंग देश का
हो कोई भी वेश किसी परिवेश का
बहे हर सोच मे गंगा सी निर्मल धारा
कहे अखिल विश्व भारत हि सबसे प्यारा

कर विदाई भर रहे अंक पच्चीस
स्वागत है वर्ष, आइये बन जगदीश
खुशियों से भर दें हृदय, आप सबका
करते हैं स्वागत हृदय तल से हम आपका

कृतज्ञता

कृतज्ञ हूँ उन बीते पलों का
जिनका योगदान हि
ले आया नव वर्ष की देहरी तक
कृतज्ञ हूँ उन परिचितों का
जिनसे मिले अनुभवों ने
दिशा दी जीवन की

कृतज्ञ हूँ उन अपने कर्मों का भी
जिन्होंने इस योग्य बनाया मुझे
कि मैं पहचान बना सका अपनी
कृतज्ञ हूँ उनका भी
मिला जिनसे समर्थन भी विरोध भी

कृतज्ञ हूँ अपने पूर्वजों का
जिनकी परवरिश मे
किया हूँ सफर यहाँ तक
और, कृतज्ञ उनका भी हूँ
जिनकी मैं उम्मीद हूँ, भरोसा हूँ

कृतज्ञता की इसी शृंखला में
कृतज्ञ हूँ इस नव वर्ष का भी
जिससे मिली है प्रेरणा है
कुछ और प्रयास की
स्वयं के आत्मविश्वास पर कल की

स्वागत है नव वर्ष , आपके आगमन का
करो स्वीकार सम्मान, देश के जन जन का

स्वागत है नव वर्ष का

बीत गया, वह समय की मांग
या कोई जरूरत रही होगी
ना चाह कर भी कर लेना उसे
वह कोई मजबूरी रही होगी

आए नववर्ष का स्वागत गान हो
निज कर्म पर अब स्वाभिमान हो
गर्वित हो, जो आने वाला कल हो
घर,समाज,देश का वह अभिमान हो

जात-पात, धन निर्धन का भाव नहीं
रहे स्नेह प्रेम किसी संग दुराव नहीं
रहे मजहब या धर्म घर के भीतर ही
बाहर केवल मानवता का लगाव रहे

भारत रहे भारत की अस्मिता के साथ
संस्कृति, सभ्यता और एकता के साथ
हृदय से हृदय का मेल बना रहे
मान ध्वज तिरंगे का नभ चढ़ता रहे

नव वर्ष है स्वागत आपका
बढ़े सत्य, फूटे घड़ा पाप का
मानव मानव की हम मिसाल बनें
नवोदित कल की हम मिशाल बनें

बदला हुआ दौर

रहकर भूखा, खाकर रूखा सुखा
पाला उसने रक्त बेच लाल को अपने
बांधी उम्मीद, सजाये सपने कल को ले
कहा लाल ने फर्ज निभाया बापू तुमने

पूजा, मन्नत, यज्ञ, हवन सभी कुछ
किया यह आपने पिता कहलाने को
पाला पोशा अपना नाम कमाने को
यही हमे भी तो करना है बतलाने को

बहू आपकी, माँ जैसी नही पिताजी मेरी
चिल्लाती बहुत यदि, हो जाती मुझसे देरी
बच्चे भी अब आने दो आने मे सुनते नहीं
बदल गया दौर, बीते जैसा कुछ रहा नहीं

गया दौर क ख ग का अब आई ए बी सी
खबर नहीं आपको लगती भूल भुलैया सी
दुगुने तिगुने खर्च बढ़ गए अब मेरे बाबूजी
पिज्जा बर्गर खाते हैं,भूले दाल रोटी सब्जी

गये नहीं क्यों आप, बचत बैंक के दरवाजे
गलती है यह आपकी, हम पर व्यर्थ विराजे
बदला नहीं तात , जो सब देखकर भी आज
ले उड़ी बुद्धि उसकी देखो कैसे पक्षी बाज

अटल जी अटल ही रहे

अटल बिहारी वाजपेयी
व्यक्ति नहीं एक शक्ति रहे
उन्हें स्मरण नहीं, उनके आदर्शों को
जीवन में लाना ही सच्ची श्रद्धा है ।

वे अटल थे, स्वयं के प्रति
निष्ठावान रहे देश और संस्कृति के प्रति
शास्वत रहे, निर्भीक रहे, तटस्थ रहे,
अटल को स्मरण नहीं
आत्मा मे समाहित रखना ही श्रद्धांजली है ।

गुलामी से स्वाधीनता तक
शासन से सुशासन तक
अटल जी अटल ही रहे
पराक्रमी, संयमी, साहसी रहे ।
उन्हें मात्र स्मरण नहीं
उनकी नीतियों पर चलना ही
उनके प्रति उनका सम्मान है ।

अटल जी वर्तमान ही नहीं रहे
अतीत और भविष्य के साथ रहे
दर्शक रहे, वक्ता रहे, शासक रहे
कर्ता रहे, निर्माता रहे सृजक रहे
अटल जी को स्मरण ही नहीं
अटल रहना ही उनके प्रति
उनके विश्वास को जीतना है

मेरा गाँव मेरा देश

मेरा गाँव मेरा देश
मेरी मिट्टी मेरा परिवेश
बोली भाषा की बात करूँ क्या
विश्व धरा पर हि रहा विशेष

जन्मी सभ्यता मानवपन की
अनुपम संस्कृति और संस्कार
वेदों का ले ज्ञान बने सब ज्ञानी
युगों युगों से भारत करता अगवानी

शान मे इसकी नत मस्तक सब
धरती से अम्बर तक मान लिए लोहा
कथनी करनी हम क्या बतलाएँ
सबके मन को इसने मोहा

ज्योतिष हो या ज्ञान विज्ञान
मेरा देश रहा सबमें महान
रत्न, धातु हो या वन संपदा
लहराता फसलों से खेत खलिहान

शोभा इसकी है वर्णातीत
विश्व बंधुत्व के भाव की रीत
ऐसा अद्भुत मेरा गाँव मेरा देश
इसीसे बनता यह जगत विशेष

पितृ आशीष

पैसा शोहरत नाम कमाया
मोटर गाड़ी महल बनाया
भूल गया पर जो पालक को अपने
वह तो केवल कुलपातक हि कहलाया

तिनका तिनका जोड़ा जिसने
जिसने तुमको राह दिखाई
हुआ न जो उस पितृ शक्ति का
उसने दौलत व्यर्थ कमाई

आशीष हि भाषा प्रभु की होती
जैसे निर्मल गंगा बहती
जीवन सागर में यदि मिल जाये
यशोगान की सरिता उसकी रहती

नश्वर है काया पंच तत्व की
अमर नामधन हि कहलाता है
नर जन्म वह सौरभ सा महके
जो मात पिता का सेवक बन जाता है

धन्य कुल वह, जिसमे जन्मे पूत सपूत
ले डूबा वंश भी, आकर पूत कपूत
श्रेष्ठ वही जो लेकर चले आशीष
जीवन पर ऐसे गर्व करें जगदीश

लाज़िमी

आते हैं मोड़ कई मुकाम आने तक
जो दे जाते हैं सीख नई जिंदगी की
खार तो चुभते हि हैं पैरों के बीच
कुछ मे होती है महक भी गुलाब की

स्वभाविक है गिरना लड़खड़ाना
तब भी जरूरी है संभल जाना
बेशकीमती होते हैं रिश्ते करीब के
जरूरी है बचाने में कहीं झुक जाना

मुमकिन नहीं कि हर किसी की
समझ हो आपके जैसे ही
पर, मुमकिन है तलब हो उसकी भी
समझने की आपको आप जैसी ही

विचारों की भिन्नता कभी फेर समझ का
बाँट देता है लगाव भी बेमतलब का
जरूरी है समझदारी से समझ लेना
भीड़ के बीच कहीं टकराव भी लाज़िमी है

बेशक् आज से हि बनता है कल
किंतु, आज ही आधार नहीं केवल कल का
अतीत की गहराइयाँ भी रखती हैं मायने
रत्नों की मौजूदगी सतह पर हि नहीं होती

अपनी मर्यादा

बहुत कुछ छोड़ते चलिए
रखिये वही, जिससे कल बने
कही अनकही बातों को
समझते रहिये परखते रहिये
लक्ष्य पर अपने चलते रहिये
अपनी दिशा में रहिये

समझिये निज भीतर की कस्तूरी
भागिये न मृग की तरह तलाश में
जो है संचित पास आपके
वह भी कम नहीं प्रकाश में
आपको हि आना है काम आपके
खुद के हि साथ चलिए
कर्म अपना करते रहिये

वाकपटुता , चाटुकारिता
दिखावे की औपचारिकता
स्थाई मोल रहता नहीं इनका
वक्त की धारा में जैसे तिनका
सदकाम् हो वही काम करिये
मर्यादा मे अपनी बंधे रहिये
अपनी दिशा में रहिये

घूँघट

घूँघट जरूरी है
बेहद जरूरी है घूँघट
पर, क्या चेहरा ढक लेना ही काफी है!
घूँघट किसलिए यह भी , और क्यों????

क्या पुरुष से खुद की सुरक्षा के लिए
या एक आदर और लिहाज वश
उनसे जो श्रेष्ठ हैं ?
कहाँ तक सार्थकता है इसकी
स्वयं को इस योग्य किसने बनाया है

क्या मानसिक सोच और घूँघट एक है ?
या महज दिखावा या प्रथा मात्र?

यह प्रशनचिंन्ह भी तो है
पुरुष की सोच और उसके नीयत की
एक चुनौती है नारी की ओर से कि
आखिर यह विवशता क्यों हुयी
क्यों पतित हुआ वह या
क्यों छुपाने को मजबूरी हुयी शक्ल अपनी??

जवाब क्या है, कौन देगा
पौरुषता पर लगे इस कलंक का दोषी
क्या मान सकता है पुरुष स्वयं ?
यह प्रश्न उत्तम है
किंतु उत्तर जटिल
घूँघट क्यों जरूरी हुआ!!!?

मुकम्मल

ख्याल रख दिल में फ़कत कामयाबी का
खामखाँ की तन्हाइयों में वक्त ज़ाया न कर

अभी तू है खास नहीं किसी के लिए,
खास होने से पहले न कोई फ़रियाद कर।

कर ले मुकम्मल तू खुद को पहले,
खुद ही खुद से बन, किसी से उम्मीद न कर।

फतह के बाद ही मिलती है सलामी,
जीत के पहले खुशी का इज़हार न कर।

चमकेगा तेरे भी मुकद्दर का सितारा,
उससे पहले तू खुद को साबित तो कर।

होगा फ़ना जिस्म, रूह ज़िंदा रहेगी,
रूह के खातिर ही ख़्यालो-करम कर।

बोलती कलम

बोलती थी कलम कभी
अब तो सिर्फ, लिखती है
आ गई है कांपते हाथों में
डरे सहमे से हैं जो भीतर से

सत्य व्यक्त कर नहीं पाते
गलत के विरोध की क्षमता नहीं
चापलूसी मे उलझी हुयी सोच है
उलझ गये हैं छपने की शौक मे

बहने लगी हैं भावनाएं केवल
विरह, शृंगार और याद मे
टूटे दिल, या प्रेम के विवाद में
दिन विशेष, या जन्म श्रद्धाञ्जली मे

कलम बोलती नहीं अब
सिर्फ वर्णन ही करती है
जगाती नहीं सुप्त चेतना को
दिखाती नहीं आईना अतीत के

प्रशंसा की चाहत में फंसी है
तारीफ और तालियां चाहिए
बचानी है अस्मत कलम को तो
अब धार कुछ पैनी होनी चाहिए

विशेष

कीमत तो होती है वक्त और जबान की
दौलत और शोहरत का तो मोल ही क्या है
ओहदे तो बिक जाते हैं ज़मीर के बदले
झूँठी शान ओ शौकत का मोल ही क्या है

दिखावे की आबरू हो या मिला सम्मान
बेपरदा तो हि जाते हैं वे किसी न दिन
मर हि गया हो स्वाभिमान जिस इंसान का
वह तो बिखर हि जाता है किसी न किसी दिन

औरत की हया गई, और पुरुष की मर्यादा
पतन इससे और हो सकता है क्या ज्यादा
बच्चे को मिला हि नहीं संस्कार यदि बचपन में
तो जीवन ही व्यर्थ है उसका पूरा हो या आधा

साँसें हों या वक्त रुकते नहीं दोनों कभी
साध लो तो मुश्किल कुछ नहीं कभी
बनना तो होगा विशेष खुद आपको ही
और ने बनाया नहीं खास किसीको कभी

सार्थक

एक से दिशा बदल जाती है
एक से दशा बदल जाती है
उस एक का होना जरूरी है
पहले आपमें कुछ होना जरूरी है

बीज कभी दरख़्त नहीं होता
तब भी बीज मे दरख़्त होता है
आपमें भी उचाई है गगन तक की
यह समझ आपमें होना जरूरी है

हर रास्ते का मुकाम होता है
हर मुकाम का रास्ता होता है
रास्ते की परख होना जरूरी है
परिणाम की समखा जरूरी है

आत्मबल से हि मिलती है फतह
फतह की भी होनी चाहिये वजह
चलना ही मकसद नहीं जीवन का
उद्देश्य का सार्थक होना जरूरी है

मन मतंग

मानवता से है मान मन का
मन से ही मन को गति मिलती है
मन हि करता विचरण भोग कर्म मे
मन से ही मिलती मुक्ती है

मन ही मानव मन ही दानव
मन हि सकल कर्म का आधार
मन ही पर्वत मन ही सागर मन
पर ही निर्भर जीवन सार है

मन मतंग चंचल सखा
चरित्र न कभी सरल रखा
धावक बन दौड़ा हर पथ पर
बिन विवेक न निर्मल रखा

साध लिया जिसने मन को
जीते लिया उसने जीवन को
मन के हारे हार रही जीते जीत
मन से बैरी जग हुआ मन से मीत

सजग

मानवता की राह पर जो चले
वही धर्म न्याय संगत होगा
चला जो शृष्टि के आरंभ से
वही धर्म सनातन होगा

हिंदू कहो या कहो सनातनी
स हृदयता प्रेम हि थाती रही
विश्व बंधुत्व की भावना से जुड़ी
सदैव जलती ज्योत रही

बाँट दे जो मनुज को मनुज से
एक क्षत्र राज की मंशा रहे
होगा क्या वह भी धर्म सत्य का
क्यों न उसकी सोच पर शंका रहे

जोड़ की भावना हि मूल आधार
हिंदुत्व मे होता नहीं व्यापार
सर्व धर्म सम भाव की श्रेष्ठता
एकता ही सनातन का विचार

है जरूरत जागरूकता की अब
शास्त्र शस्त्र कर दोनों रहें
बने न वर्तमान फिर अतीत
अलख सजग हम दोनों रहें

ज्योत

लहराते शांत सागर तले भी
उफनता हुआ दावानल है
खौलते हुए जलजले से
निकलता हुआ हालाहल है

मत देखो घूरति आँखों से हमे
हमारी आँखों में जलते सपने हैं
अंतस मे मथता हुआ बवंडर है
पिघलते हुए से मनके गहने हैं

सींचा था खून से देश हमने
जलाई थी मशाल अंधेरों में
आज कौड़ी के मोल हम हो गये
हो रहे मगन तुम महफ़िलों मे

हमारा नाम आम रहा
ख़ास की खुशियाँ रहीं आंगन तुम्हारे
छल कपट का दौर भी रहता नहीं
आ रहे हम अब घर तुम्हारे

बाँटकर आपस में हमको
राज की पोल खुल गयी है
निकल रही टोली आहतों की
ज्योत निज हक की अब जल गयी है

प्रेम प्रभाव

देते नहीं हैं साथ अपने
सजाने होते हैं खुद हि सपने
काँटों की राह चलकर ही
खिलाने होते हैं गुलाब अपने

रात भर के संघर्ष पर ही
मिली भोर को स्वर्णिम काया
भागा है जो तम के प्रभाव से
ताउम्र वही तो है पछताया

प्रहार ताप सब सहकर ही
कंचन बन सुंदर निखरा है
जीवन का सत्य न समझा जिसने
वही यहाँ पर बिखरा है

देकर हि साथ मिला सभी को
बिन बांटे जल भी दूषित होता है
बाँट रही प्रकृति स्वयं को
तब हि यह जग सुंदर होता है

बंटो नहीं संग चलना सीखो
मिलजुलकर हि रहना सीखो
प्रेम हि रच देता है अमर कहानी
जीवन तो है बस बहता पानी

संसार

चापलूसी के जमाने में दिखावे की बहार है
स्वार्थ मे नगद आज और लगाव मे उधार है

आँख के देखे हि उमड़ता हुआ प्यार है
पीठ के पीछे तो बस नफरतों का गुबार है

दिल की धड़कनों में बस मिलन का इंतजार है
वासना भरी नजरों में यहाँ झूँठ का हि प्यार है

रिश्तों के बीच भी होता मंडी का हि व्यवहार है
बाहर हो या भीतर अपनों मे भी व्यापार है

कूटनीतिक चाल में हो रहा हर कोई लाचार है
जात पात ऊंच नीच ये मानसिक अत्याचार है

मानव अपना रहा क्यों दानवी व्यभिचार है
अन्याय के गर्त में हि डूब रहा संसार है

सत्य

अब भी कुछ लोग गफलत मे जी रहे हैं
अभी तो फ़कत मिली मोहलत मे जी रहे हैं

खुली आँख के अंधे और कान के बहरे हैं
बस, अपने लिए हि सहुलत मे जी रहे हैं

बेखबर हैं सोये हुए, राम की उम्मीद मे
भगवान् के भरोसे हि कल मे जी रहे हैं

खून पानी बना, सोच रखे अस्तबल में
फरेब के भाईचारे मे गले मिल रहे हैं

शेर से थे लड़े कभी पुरखे हमारे अतीत में
कहानियों में उन्हीं स्वाभिमान मे जी रहे हैं

सत्य है सनातन तो सत्य को भी पहचानिये
गांडीव देखकर हि कृष्ण सारथी बन रहे हैं

दर्द

मर्द को दर्द नहीं होता
यह शरीरिक नहीं मानसिक सत्य है
जिनकी निगाहों में लक्ष्य होता है
वे उपेक्षाओं से परे होते हैं
डूबते नहीं झूठीं भावनाओं में
उद्देश्य ही सर्वस्व होता है
इसीलिए मर्द को दर्द नहीं होता

रहता है बोझ जिम्मेदारीयोँ का
कर्तव्य का, धर्म का, समाज का
फुरसत हि कहाँ सुस्ताने की उसे
खुद मे हि जीने वालों को बेशक्
दर्द बहुत होता है
मर्द को दर्द नही होता

मानव का लेकर जन्म
रहती है पैशाचिक प्रवृत्ति जिनकी
उनके रोग भी होते हैं तामसी ही
राजसी चाहत में
क्षीण हो जाती है सात्विकता
दर्द उन्ही को होता है
मर्द को दर्द नहीं होता
हाँ, मर्द दर्द को भी सह लेता है
वही युग पुरुष कहलाता है

मर्म

करिये न प्रतिक्षा वक्त की
हर क्षण ही शुभता के करीब है
संकल्प ही द्वार है भाग्य का
कर्म के भीतर ही रहती नसीब है

चौराहे खड़े हैं आपके खातिर ही
चयन राह का तो करना हि होगा
समझ को हि आनी है काम आपके
पथ के फल को तो चखना हि होगा

मर्यादा के भीतर हि रहें मर्यादित
सीमा के बाहर तो तम का निवास है
पहुँचता तो है वही मुकाम तक
स्वयं के साथ हि जिसे विश्वास है

आज और कल मे ही सफर जीवन का
मध्य का समय ही उत्थान और पतन का
वर्षों का भरोसा करें किस बात पर
उम्मीद हि नहीं जब कल की आश का

आज ही है सार कल का
तुम पर ही है भार धर्म का
कर्म की नाव ही है सागर में
समझना है राज इसी मर्म का

लालसा

यूँ तो हारा हूँ कई बार मगर
जीता भी हूँ नई उम्मीद पर
हार भी तो निशानी है जीत की
हार गंवारा नहीं जीत के बाद की

बहुत मुश्किल नही ऊँचाई
मुश्किल है ठहर पाना वहाँ
गिरने से लगा नहीं डर कभी
मुकाम से गिर जाना गंवारा नहीं

मोती की हि चाहत नहीं
अन्दाज है तैरने का मुझे
उतर कर प्रवाह की धारा में
डूब जाना गंवारा नहीं मुझे

लालसा नहीं खुद के मिशाल की
मिशालों से हुनर सीखा हूं मैं
चाहता हूँ छोड़ जाऊँ पड़चिन्ह कहीं
गुमनामी की मौत गंवारा नहीं

भले न मिले साथ आपका
हाजिर हूँ मगर आपके लिए
अपने खातिर भूल जाऊँ तुम्हें
खुद के खातिर यह भी गंवारा नहीं

काव्य सागर

स्वाभिमान का होना भी जरूरी है
निजता का प्रदर्शन होना भी जरूरी है
उलझ जाती है बात जब समूह के बीच
तब मूल तथ्य को भी समझना जरूरी है

झूंठे लगाव के इस समाज के भीतर
मुश्किल है स्वयं को भी निखार पाना
जलने दें निजता के दीप को स्वयं में हि
अभी अंधेरे को उजाले की समझ नहीं है

बढ़ाते रहें भीतर के विस्तार को अपने
खामोशी मे ही संगीत के स्वर सजते हैं
गाये जायेंगे कल, लिखे जो गीत आपने
आज हि न करें जिद्द सुनाने कि आप उसे

आती है समझ भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की
लगता है वक्त लेकिन उस पहचान तक
मानसिकता को समझना भी जरूरी है
ठहरना भी जरूरी है उस वक्त के आने तक

काव्य सागर में धाराएँ बहुत हैं बहने को
धाराओं से हि धाराओं का विस्तार होगा
न मानें एक धारा को हि सागर आप सारा
बूंद को भी संजोकर रखें यही महासागर होगा

सार्थक

कठिन कुछ भी नहीं
सरल कुछ भी नहीं
कर लो जो तुम चाहो
न चाहो तो कुछ भी नहीं

जानो तो तुम्ही सब हो
न जानो तो कुछ नहीं
ठान लो तो हि जन्म है
बैठ लो तो अंत है

तुम्हारे जैसा कोई नहीं
किसी के जैसे तुम नहीं
जलो तो लौ की तरह
बुझो तो दीप की तरह

उठो तो वाष्प की तरह
गिरो तो बूंद की तरह
बहो तो प्रवाह की तरह
ठहरो तो सिंधु बनकर

जन्म हो तो सार्थक हो
मृत्यु हो तो अमर हो
नाम हो तो राम की तरह
काम हो तो भागीरथ की तरह

छूने को गगन

बेशक छू लेना है गगन तुम्हें
परिंदे की नश्ल हि है तुम्हारी
समझना न कम कभी वृक्ष को
इसी से सधी है उडान तुम्हारी

घोसला हि था तब जहाँ तुंहरा
आने लगे थे जब पंख तुममे
बचाती रहीं गिरने से टहनियाँ
कहते उसी को ऊँचाई कम तुममे

अभी ही तो भरी है उड़ान तुमने
अभी हि तो गगन को देखा है
आने हैं मुकाम ठहरने के कई
अभी ही व्योम को देखा कहाँ है

पहुँचने को हो चाँद की जमी पर
सूरज बहुत ही दूर है अभी तुमसे
खड़े हैं उल्कापिंड भी कई राह में
सलाह भि लेनी होगी तुम्हें उनसे

सीखकर ही सीख को सीखना होगा
झुककर हि जीत को छूना होगा
फाड़फड़ाने को पंख हवा चाहिए
छू लेने को गगन अभी दुआ चाहिए

कदम

रखिये न कदम उन राहों पर
जो लौटकर न आती हों घर तक
वह फलक भी किस काम का
जिस गगन में चाँद हि न हो

हर सितारे आते नहीं जमी पर
हर अंकुर दरख़्त नहीं होते
ऊँचाई तो होगी छोटे कदमो में भी
तमन्ना एवरेस्ट की ही क्यों रहे

मुमकिन है हर काम इंसा के लिए
तब भी हर काम मुमकिन नहीं
अपने हक की उडान भर लेना
हर उडान का होना मुमकिन नहीं

गिर जाओगे कहीं फिसलकर
डूब भी जाओगे कहीं तुम
ये नगरी है भूल भुलैया की
अपने हि घेरे में उलझ जाओगे तुम

देंगे न साथ तुम्हे तारीफ़ वाले
चौराहे पर रह जाओगे तनहा
नजाकत भी वक्त की समझ लेना
होती है तुम्हारे उम्र की भी इंतिहा
…… ………………

गम नहीं

कईयों ने गिराना चाहा, कई बार मुझे
गिरा न पाए मगर, खुद ही गिरते चले गए

हौसले बुलंद थे, उम्मीद भी पुख़्ता थी
अंधेरे भी होते भोर देख, हटते चले गए

गम नहीं मुझे, मुकाम तक न पहुँचने का
ऊँचाई की खातिर, कोशिश तो करते चले गए

चल लिए, जहाँ तक चल पाए थे हम
कुछ तो औरों के खातिर निशां छोड़ते चले गए

करे न करे कोई याद गम नहीं मुझे
हम तो फकत धर्म अपना निभाते चले गए

सुकून है जाते हुए आपके इस जहाँ से
हो सका वहाँ तक, दौलत इंसानी लुटाते चले गये

संगठन

संगठन में शक्ति है खड़ा रखने की
विघटन तो गिरा हि देता है धरा पर
समझना तो होगा हि इस महत्व को
वैसे वश चलता है किसका किस पर

चल रही सदियों से फूट डालो की नीति
रही हि नहीं किसी से किसीकी प्रीति
टूट रहा परिवार समाज और देश सभी
जाने कब होगी खत्म सोच की यह रीति

गति है तेज समय के चलते चक्र की
ठहरता नही अवसर लेकर हाथ में
बन जाती है माला एक एक मनके से
पहुँचता है वही जो चलता है साथ मे

तय है ,बंटे तो कटेंगे निश्चित है
रहे एक तो शायद किंचित है
स्वयं में जीना ही मरना है
अब तक क्यों इस सत्य से वंचित हैं

बूंद बूंद से हि भरता है सागर
बूंद से हि सूख जाता है सरोवर
बचाना है सनातन को तालाब होने से
कतराओगे कब तक जवाब देने से

सोचिये

सजा है खेल चौसर का शकुनि खड़ा बाज़ार
लगा है मानव दांवपर, कर लो यह व्यापार

मानव मानव बेच रहा, बस्ती लगी बिसात पर
मानवता की कद्र नहीं, बोली लगे औकात पर

धरम करम खामोश हैं, पीकर मदिरा स्वार्थ की
दया धर्म सब अतीत हैं, ये बातें हैं व्यर्थ की

नेता की जय जयकार जनता आम रही बीमार
रक्षक हि बने हैं भक्षक, कौन लगाए बेड़ा पार

पंडित,मुल्ला,शिक्षक के अपने अपने धंधे हैं
सत्य बंधा लाभ हानि मे, ऐसे अबके बंदे हैं

गलत कौन सही कौन, एक हि घट का पानी है
जमींर नहीं वर्तमान का, बूढ़ी हुयी जवानी है

ऐसे ही रहे तो ,हासिल किसको क्या होगा
हालत रही आज की,तब सोचो कल क्या होगा

समझ की लौ

मिल जाती है माफी अनजाने की भूल पर
लापरवाही की भूल पर क्षमा नहीं मिलती
आकर निकल जाते हैं मौके सौभाग्य के
बंजर ही हो धरा तो वहाँ कली नहीं खिलती

पछतावे से हि कभी प्रायश्चित पूरा नहीं होता
प्रायश्चित के खातिर फिर वक्त नहीं मिलता
समझ आए वक्त पर तब हि उसका मूल्य है
बीते वक्त पर ज्ञान सारा आपका फिजूल है

दिली भावनाओं पर जागरूक रहना जरूरी है
मन की चंचलता पर लगाम का रहना जरूरी है
मिलेगी सलाह कबतक हर कदम पर तुम्हारे
होता नही मुकाम हासिल उम्मीद के सहारे

हम हैं आज संग मगर साथ कल रह न सकेंगे
आज की तरह हि तुम्हें कल भी कह न सकेंगे
अपनी परछाई को चाहो तो हमसफर बना लो
विवेक पर ध्यान दो उसे हि रहबर बना लो

पहुॅचाती है सड़क मगर खुद कभी चलती नहीं
महज बीज के सोच लेने से कली खिलती नहीं
वक्त है अभी कर लो याद अपनी कमियों को
कहना न फिर कभी लौ समझ की जलती नहीं

पर्व महात्म्य

आई गई बातों की तरह हि
हो जाता है हर पर्व आया गया
रह जाती हैं बातें याद के पन्नों में
कलम की नोक पर कोई दिवस नया

अर्थ ही क्या उत्सव का ऐसे
खत्म ,उठते बुलबुलों के जैसे
होना जब कल हि प्रभाव हीन
समझो तब पर्व भी निंद्रा के स्वप्न जैसे

आवश्यक है चिंतन मनन
पर्व के महत्व पर भी हो मंथन
गुण हों आत्मसात हृदय से भी
तब हि महात्म्य नित नव नूतन

दायित्व है यह शिक्षित वर्ग का
निभाना होगा फर्ज निज कर्तव्य का
आमजन से अपेक्षा संभव नहीं
प्रयास से कुछ भी असंभव नहीं

लेखक, शिक्षक, उपदेशक सभी
करें निर्वहन यदि निज कर्म को
तब हि वे सेवक सच्चे अपने पथ के
अन्यथा वे हि विद्धवंसक् समाज रथ के

मैं मानव हूँ

भाग्यशाली हूं कि मानव हूं
सौभाग्यशाली हूं कि मानवता के साथ हूं
और क्या चाहिए कि कर्मशील हूं
भाग्यवादी भी हूं, सहनशील भी हूं
निश्चय दृढ़ है उद्देश्य के साथ हूं
मैं भाग्यशाली हूं कि मैं मानव हूं

कोई अर्थ नहीं कि कौन क्या समझ रहा मुझे
किसके लिए सही या गलत हूँ
धन से रिक्त हूँ लेकिन,
साथ किसी के लिए तन से हूँ
किसी के लिए मन से हूँ
शरीर तो नश्वर है
मिल हि जायेगी पंच महाभूतों मे
किंतु, अपने कर्म से अमर हूँ
सौभाग्याशाली हूँ कि मानव हूँ

स्वीकार्य है प्रारब्ध से मिली तकदीर
किंतु वर्तमान से भविष्य गढ़ता हूँ
आज मेरे साथ है
इसी के आधार कल पढ़ता हूँ
कुछ हैं प्रेरणाश्रोत मेरे
उन्हीं के पदचिन्हों पर चलता हूँ
भाग्यशाली हूँ कि मैं मानव हूँ
सौभाग्यशाली हूँ कि मानवता के साथ हूँ…..

मैं दीपक हूं

मैं दीपक हूँ, जल रहा हूँ
गुजर गई हैं कालांतरों की दूरियां
जल रहा हूँ जलता ही रहा हूँ
अथक अनवरत पिघलता रहा हूँ
मैं, दीपक हूँ….

सहता ही रहा हूं नित ताप हरदम
आंधी, वर्षा, या सुबह शाम
देने को प्रकाश इस जगती को
नित नित नूतन बन तपता रहा हूँ
मैं, दीपक हूँ……

कहीं दीया, कहीं झालर बल्ब कहीं
कहीं सूरज, कहीं चाँद तारे बनकर
कहीं बन श्रोत ऊर्जा का हृदय में
जन जन प्राण जीवन भर रहा हूँ
मैं, दीपक हूं…..

शत्रुता नहीं तम से कोई मेरी
मैं तो केवल कर्म अपना कर रहा हूँ
उम्मीद, साहस, बन पथ प्रदर्शक
बनकर दीप स्तंभ खड़ा रहा हूँ
मैं, दीपक हूं…

भय ताप से, त्याग दूं निज कर्म क्यों
शीतल की चाह में वार दूं निज धर्म क्यों
अस्तित्व हीन महत्व हि क्या होगा मेरा
मैं तो बस कर्तव्य पथ पर चल रहा हूँ
मैं, दीपक हूं, इसीलिए जल रहा हूँ
मैं, दीपक हूँ….

जीवन सत्य

परिवर्तनशील जगत में है बदलाव प्रति पल
होगा बदलना आपको भी आज नहीं तो कल

बदलाव स्वयं में करे, जो देख समय की चाल
व्यक्ति वही समाज में, रहे सदा खुश हाल

मिलती संगत समाज में, जैसी जो करना चाहे
निर्भर उसके कर्म पर, जैसा जो बनना चाहे

पर्व सिखाते प्रीत प्रेम की, लेकर रूप अनेक
आधार आपकी समझ है, बुरा बनो या नेक

बढ़ता जीवन भ्रम आपका, घटता जीवन सत्य
आज आपके हाथ है, इसपर हि कल का तथ्य

आनंद हि आनंद है, यदि बंधो तुम प्रेम की डोर
निज स्वार्थ से हि अंत है, विपदा छाई चहुँ ओर

भ्रमित मन

अभिमान नहीं जिसे निज धर्म ध्वजा पर
वह नर पशु जैसा ही बोझ है इस धरती पर

आलोकित होकर भी तम को स्वीकार किया
धिक्कार उसे जो, निजता का प्रतिकार किया

स्व धर्म निज भाषा हि है आधार सभ्यता का
संस्कार हि तो सिखाते हैं पथ हमें कर्तव्य का

गर्वित हो स्वाभिमान प्रयास यही नित रहे
अखंड रहे सत्य सनातन, इससे जुड़ी प्रीत रहे

खारा जल मिला रहे कुछ आतंकी गंगा जल में
भ्रमित हुए क्यों पाल रहे मल, निर्मल मन में

चेतन मन को सजग करो नीर भरे ना नयनों मे
समय सुझाए ना मार्ग कभी भटक रहे जो वन में

प्रकाश पर्व

कर दोगे पर्व प्रकाशित तुम
घर घर में अब दीप जलाकर
मन मैला तो है तम मे डूबा
होगा क्या घर द्वार सजाकर

बीत गये हैं वर्षों दीप जलाते
नाम परंपरा की रीत निभाते
क्या उजियारा फैल सका है
मिले हाथ क्या प्रीत निभाते

घर आंगन सब द्वारसजे हैं
जगमग करती दीप शिखायें
द्वेष कपट को तो रंग न पाए
बदले की भीतर बढ़ी लताएं

मंशा मे निज हित ही साधे
बंटते बंटते रह गए हो आधे
समझ न पाए तब भी लेकिन
जाने अब दिन हों कैसे आगे

जली हैं जैसे दीपों की माला
मन के भीतर का भी दीप जले
गर्व रहे अब निज हिंदुत्व पर
हर उत्सव में सब आ गले मिले

दिल का दीप

दिवाली आई, हो रही चहुँओर सफाई
सजे द्वार तोरण, आ रही घर घर मिठाई

हुयी है जीत सत्य की, दे रहे सब बंधाई
सबके मन हर्षित, ज्यों राधा संग कन्हाई

बाल, युवा, वृद्ध, सबके मन है तरुणाई
वृद्धा भी कर शृंगार,यौवना सी सकुचाई

मन मैल तो जमी रही, जैसे नाली में काई
सड़ी सोच अब भी वही, गहरी पैठ बनाई

मन भीतर आलोक नहीं, तन शोभा हि बढ़ाई
प्रेम दीप हृदय नहीं तब कैसे दिवाली आई

रावण भी है देख रहा, मन हि मन मुस्काई
धन्य सनातन पंथी हैं, तनिक न लज्जा आई

जले दीप दिल का, इसीलिए क़ाली रात आई
जला हि नहीं दीप प्रेम का, कैसे दिवाली आई

नियति चक्र

ख्वाहिश नहीं कि मैं दुनियां को बदल डालूँ
औकात भी नहीं इतनी कि कमाल कर डालूँ
चाहता हूँ कि दिखाऊँ हकीकत का आईना
औरों के खातिर पहले खुद को हि बदल डालूँ

शब्दो से पहले शब्दों के अनुरूप हो जाऊँ
जुदा न हों शब्द , शब्दों के स्वरूप हो जाऊँ
अर्थ हि क्या, फर्क हो जब कहने और करने मे
क्यों न पहले मैं हि, सार्थक मिशाल बन जाऊँ

चाहता नहीं कि मैं हि विशेष बनके उभरूँ
यह भी नहीं कि अशेष बनके निखरूं
चाहता हूँ कि चलूँ साथ सबके सबका होकर
चाहता हूँ कि सभी के खातिर खास कर डालूँ

न रहे दंभ मुझमें, न वहम के मध्य रहूँ
हो गर्व निजता पर, स्वाभिमान के साथ रहूँ
नश्वर है सब धरा पर, शाश्वत कुछ नहीं
सबके हृदय में बस, प्रेम के हि बीज डालूँ

जी रहा हूँ तन लिए, कल हृदय में जी सकूँ
मनुजता के भाव हि प्रबल, बस यही कह सकूँ
सत्ता परम है एक हि, नही कुछ भेद उसमे
आना जाना चक्र नियति का, सच यही बतला डालूँ

फर्क

मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि
मेरे विषय में कौन क्या सोचता है, लेकिन
मुझे इस बात से बहुत फर्क पड़ता है कि
मैं उन्हे कहाँ तक समझ सका हूँ

उनकी सोच उनके विचार
उनकी सभ्यता उनके संस्कार
उनकी संगत उनकी पंगत
उनकी अपनी हो कोई भी रंगत
मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता
कि मैं उनके लिए क्या हूँ
बल्कि फर्क इस बात पर पड़ता है कि
वो मेरे लिए क्या हैं

उनकी जिंदगी है उनकी अपनी
वो जीते हैं सिर्फ अपने लिए
हमपर भी तो है कुछ जिम्मेदारी उनकी
बने हैं कभी वो भी कोई श्रोत मेरे लिए

जर्रा जर्रा तिनके तिनके ने भी
दिया है मुझे बहुत कुछ
कैसे कह दूँ कि पहुँचा हूँ तनहा हि यहाँ तक कर्जदार हूँ सभीका मैं इस धरा पर

इस बात से फर्क नहीं पड़ता मुझे
कि किस किस ने तोड़ी है मेरी उम्मीदों को
लेकिन इस बात से बहुत फर्क पड़ता है कि
किसी की उम्मीद न टूटे मुझसे कभी

हमारे बीच में बैठे होंगे हिंदू कई , मुसलमान कई
जैनी, ईसाई खालिस्तानी कई
पाकिस्तानी अरबी तुर्किस्तानी कई
मुझे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि
उनके धर्म क्या है, मजहब क्या है मानते कैसे हैं, उनका तरीका क्या है
मुझे तो फर्क इस बात से पड़ता है कि
उनमे इंसानियत कितनी है।
मानवता कितनी है। अपनापन कितना है
मुझे इस बात से

हर आदमी

मिलने वाला आदमी अकेले मिलता हि नहीं
आदमी के भीतर रहते हैं मौजूद आदमी कई
दो राहे पर खड़ी है जिंदगी हर आदमी की
जानोगे कैसे यकीन के काबिल कौन आदमी

डूब जाती है नेकी भी दरिया के भीतर कहीं
खो जाती है पहचान भी वक्त के बाद कहीं
रह जाना होता है खुद को छिपाकर उनसे
जिनके खातिर न देखे थे आप दिन रात कहीं

एहशान फ़रामोशि का दौर है आजकल
लगाव भी नहीं हाथ भी जोड़ते हैं आजकल
कागज के फूलों मे इत्र की महक फैलती है
दिखावे मे दुल्हन भी शर्मीली सी लगती है

स्वयं पर हि यकीन नहीं आप पर होगा कैसे
जो हुआ नहीँ अपनों का आपका होगा कैसे
आप खुद भी तो हुए नहीं किसी के कभी
आपही के जैसे तो लोग हैं इस जमाने मे सभी

खुद की परख पर हि और की परख है सही
दिये हैं जो आपने, मिलेगा भी तो वही सही
दीप के तले की जमीन पर तो रहता अंधेरा है
एक दूजे को देखकर हि तो सबका बसेरा है

ये चाहत बुरी

यकीन तो नहीं होगा
किंतु, सत्य यही है कि
जब भी आते हो याद
बहुत याद आते हो….

रह जाते हैं मन मसोसकर
कुछ कहना मुनासिब नही होता
बन चुके हो अमानत गैर की
अब चाहना भी वाजिब नहीं होता

पर, हृदय की धड़कनों को
मुश्किल है रोक पाना
दिन की यादों से दूर हुए भी तो
मुकम्मल है ख्वाबों मे आ जाना

रात की वीरान तन्हाइयों मे
सालता है बहुत अकेलापन
आप भले हों बाहों के आलिंगन मे
होता हि नहीं महसूस बेगानापन

हद्द के पार की चाहत बुरी
मिल हि न पाए उसकी हसरत बुरी
तब भी देते हैं दुआएं खुशियों की
क्या हुआ जो ये आदत बुरी

निज धर्म

जरूरी है मुल्य के बराबर मूल्य की अदायगी
दाम के अभाव में रह जाती है वस्तु सोच मे ही
मुकाम की दूरी मे चलना जरूरी है कदमों को
मील के पत्थर पहुचाते नहीं निष्कर्ष तक कभी

चाहते हो कि मिले मान सम्मान शीर्ष का
तब मूल्य भी होगा चुकाना परम उत्कर्ष का
सहज नहीं होता दिलों में और के बैठ पाना
तपना भी होता है जैसे तपता है खरा सोना

स्वयं की प्रसिद्धि मे चाहते हो साथ और का
मिले मान भि मुफ्त में मंच के सिंहासन का
सहयोग बिना क्या प्रभाव को बल मिला है
कांटों से बचकर क्या कभी गुलाब खिला है

कल्पना मात्र से हि कभी उचाई नहीं मिलती
बीज भर से हि कभी फसल नहीं खिलती
उर्वरक भूमि भी जरूरी है हरियाली के लिए
श्रम और अर्थ भी जरूरी है खुशहाली के लिए

सूर्य तो कर हि लेता है सफर तय शाम तक
मिले न मिले साथ उसे भले आपके जागने का
मगर रह जाती है मंजिल अधूरी आपकी ही
उसका तो है निज धर्म धुरी पर भागने का

आत्मबल

पूर्णिमा हि दर्षाती है पूर्णता को
बाकी तो अधूरा है कहीं न कहीं
पानी है धवलता तुम्हे भी यही
परखिये खुद को भी कहीं न कहीं

मथना जरूरी है घी के लिए
चलना जरूरी है जीवन के लिए
मंजिल की परख भी हो पहले
दिशा जरूरी है मुकाम के लिए

अपूर्णता से पूर्णता हि ध्येय है
सदमार्ग हि जीवन का ज्ञेय है
साथी तो हैं अनगिनत सफर में
पर सधेगा किससे जो उद्देश्य है

हर रात में चांदनी नहीं होती
तब भी रात आती जरूर है
सरलता की चाह में भटकाव है
मोड़ भी राह में मिलते जरूर हैं

आत्म्बल के साथ संकल्प भी हो
साधना मे कुछ विकल्प भी हो
सबल निर्बल तो सोच है मन की
स्वयं में बस दृढ़ता का बल भी हो

अधिक मे अन्यथा

आपकी मंजिल आपका मुकाम
हमारी मंजिल हमारा मुकाम
अधिक की आत्मीयता रिश्ते खराब
हर सवाल का संभव नहीं जवाब

व्यक्तिगत कथा, अपनी अपनी व्यथा
निज व्यक्तित्व, निज की कुशलता
संछिप्त सलाह, हि सर्वोत्तम सर्वथा
अधिक की अपनत्वता मे निष्कर्ष अन्यथा

संभव नहीं कि सुलझा सकें हर गांठ को
चलने दो आज, कल की देखेंगे कल को
जी रहे लोग अधिक इसी अपनी सोच मे
मानसिकता हि बाधक है समझने को

कहना उचित यही मानवता का धर्म
स्वीकारना, उनका अपना ब्यक्तिगत कर्म
बने दिशा सूचक केवल चयन की राह उनकी
भले उम्मीद आपकी, मगर मुख्य चाह उनकी

निष्कर्ष यही कि अपनी डफली अपना राग
जलाना ज्योत हि धर्म, कोई जाग से तो जाग
अधिक की अंतरंगता मे हो जाता हर रंग स्याह
बहना है हर जल को उसकी अपनी प्रवाह

हद्द है

गरज हो तो रहती है फुरसत हि फुरसत
निकल जाए वक्त तो समय हि नहीं मिलता
कितना अजीब होता है यह वक्त भी कम्बख्त
रिश्ते भी आते हैं याद केवल अपने वक्त पर

बन गया है जीवन भी लोहे की मशीन जैसा
लगाव की अहमियत मे भावना विहीन जैसा
वाणी हो या व्यवहार बदलते हैं वक्त के साथ
कभी गर्दन पर तो कभी आते हैं हाथ मे हाथ

कहते हैं मिट गया वफा का नामों निशान
और के भविष्य का लगा लेते हैं अनुमान सभी
ढूंढ लेते हैं कमियां हजारों गैर की लोग यहाँ
परख नही पाते मगर खुद के हि कल को कभी

मुख मोड़ लेते हैं भुलाकर एहशान सभी
रहते थे पड़े पहलू में थी जरूरत जब कभी
कहते हैं अब कि दिन तो बदलते हि हैं सभी के
दिखाते थे रुआब तब, है याद हमे अब भी

ऐसी फितरत के लोग भी चाहते हैं साथ मिले
कोई हो उनका भी जो कभी दिल से मिले
हद्द है बेवफाई की, वफा की तलाश झूठी है
बनकर शरीफ भी, कहते हैं मुकद्दर हि रूठी है

बेहिसाब इश्क

करते हैं बेहिशाब इश्क तुमसे
कर लो भले आजमाइश तुम
लफ़ज के हर अल्फाज मे हो
हृदय की हर गुंजाइश में हो तुम

कतरा कतरा ढलती शबनम जैसे
उतर गए तुम हर धड़कन में ऐसे
अब नज़र हो या हो खयाल कोई
तुम्ही रूहे बदन औ जीवन हो जैसे

किनारे हैं माना कि अलग अपने
बहती धाराओं का मिलन हो जाए
सागर भी तो होगा करीब कभी
इश्क की दरिया में खुद को बहाएँ

कह दो फ़कत कि सबर् रखिये
गुजर जाएगी उम्र भी हँसते हँसते
सितारे फ़लक के होंगे जमीं पर
गुजर जाएगी रात भी कटते कटते

नारी स्वयं में

भूल चुकी नारी ही जब अपने नारित्व को
तब रखे कौन कायम उसके व्यक्तित्व को
प्रथम पुज्या ,प्रथम आराधक वह रही सदा
पर, खो रही नित मूल्य अपना ही सर्वदा

माता वही, पत्नी, बहन और सखी भी वही
दया, ममता, करुणा की वीरांगना भी वही
साथी, सहयोगी और सलाहकार भी वही रही
तब भी है सोचनीय कि वो कहीं कि नहीं रही

झोंक रही खुद को वह स्वयं के व्यर्थ श्रृंगार में
रही प्रेम से अनभिज्ञ उलझ रही झूंठे प्यार में
हटाकर परिधान तन से मन से निर्बल हो रही
त्यागकर हया लाज, खुद हि निर्लज्ज हो रही

स्वरूप सौंदर्य तो महज छलावा है मन का
आत्मरुप सौंदर्य हि तो सत्य है जीवन का
पाने को सम्मान चाहिए, सम्मान के योग्य भी
खो रही नारी आज, स्वयं का आत्म्बोध भी

नग्न , तन हो या मन हो, सोच हो या कर्म हो
न हो स्वाभिमान जिसमे या न कोई धर्म हो
नारी ही कर न पा रही, रक्षा निज गुण धर्म की
कहे तब दोषी किसे, अनभिज्ञ स्वयं के मर्म की

सीख लो चलना

भले न बनकर फूल तुम महको
भले न कोयल सी तुम चहको
पर रहो सलामत सांसों के साथ
दौरे वतन की हालत तुम समझो

बढ़ रहीं हैं चालें अब षड्यंत्र भरी
मानवता के कातिल पनप रहे हैं
तुम बैठे हो अपना गौरव गान लिए
भीतर दीमक जड़े अब कुतर रहे हैं

गर्व नहीं अपनी अस्मिता पर तुम्हें
गर्व नहीं अपनी सभ्यता पर तुम्हें
गर्व है तुम्हें सिर्फ झूठ के दिखावे पर
गर्व नहीं अपने ही पहनावे पर तुम्हें

जी रहे हो किस भाईचारे के भरम में
पी रहे मलिन जल गंगाजल के के अहं मे
जूठे स्वाद के भोजन को स्वादिष्ट कह रहे
साथ किसके भाईचारे के संग रह रहे

खोकर एकता अपनी एक मे रहोगे कैसे
तामस् के बीच सात्विक बन कर जियोगे कैसे
रहा नहीं समय बहुत अब हाथ से आपके
अब भी बेहतर है सीख लो चलना भाप के

आक्रोश

डूब जाना है मुझे शब्द की गहराइयों मे
जलानी है ज्योत अब ज्ञान के प्रकाश की
बढ़ रहा तिमिर नित आक्रोश के स्वरूप में
दिखानी अब राह उसको एकता के आवेश मे

बँट रही धाराओं में घट रहा वेग प्रवाह का
होगी बदलनी दिशा, सोच के बहाव की
खंडित हो रही वेदना हृदय के ताप की
लज्जित हो रही अस्मिता भारत के भाल की

विद्धवंशक् सोच मे, शांति बाधक हो रही
स्वार्थ के सिंहासन पर नीति घातक हो रही
साध रहे मौन वाचाल, उद्द्यंड भी हैं वक्ता बने
ज्ञात नहीं दिशा कल की, वो भी हैं कर्ता बने

होगा झांकना विगत काल की विकरालता मे
जंग लगी सोच को होगा बदलना कुशलता मे
आज हि मे कल की भी नीति अपनानी होगी
संस्कृति भारत की अब हमें हि बचानी होगी

रहे भारत अखंड यही उद्देश्य हो हम सभी का
देना हो बलिदान भी तो ध्येय हो हम सभी का
पनप रहीं कुछ आसुरी शक्तियाँ भी आज देश में
होगा कुचलना सर उनका, हों किसी भी भेष में

वश की बात

कलम चला तो लेते हैं सभी मगर
कलम चला पाना सबके वश की बात नहीं
जी तो लेते हैं सभी मगर
जिंदा रह पाना सबके वश की बात नहीं

उड़ना तो चाहते हैं सभी मगर
उचाई छू पाना सबके वश की बात नही
मोती की रखते हैं सभी ख्वाहिश मगर
गहराई में उतर पाना सबके वश की बात नहीं

रखते हैं उजाले की चाहत सभी, मगर
अंधेरे को मिटा पाना सबके वश की बात नहीं
लगा तो देते हैं आग दिन दहाड़े मगर
आग बुझा पाना सबके वश की बात नहीं

हजारों लाखों मे होते हैं कोई एक
जिनमें होता है जुनून किसी जज्बे का
गुजर जाती हैं पिढियाँ कई, मगर
नींव खड़ी कर पाना सबके वश की बात नहीं

रास्ते तो खोज लेते हैं लोग गगन मे भी
जमी पर भी चलना सबके वश की बात नहीं
गिराकर चाहते हैं उठना, मगर
गिरे को उठा पाना सबके वश की बात नहीं
जिंदा रह पाना सबके वश की बात नहीं

मंजिल

अंधेरा तो रहता है व्यक्त सर्वदा सदा
रहती तो है खोज प्रकाश की सदा
होते रहती है क्षरण नित वसुधा सदा
रहता है अटल अखंड आकाश सदा

सरल नहीं किंतु सत्य की धरा पर रहना
जलते लावा सा रहता है नित तपना
यूँ ही होता नहीं नाम इतिहास के पन्नों में
सतत संघर्ष से हि बनता है जीवन गहना

विरोध के बाद ही मिलते हैं समर्थक भी
हर प्रयासों मे होते हैं कुछ निरर्थक भी
घर्षण से हि तो ऊर्जा का उत्पादन होगा
अपमान के बाद हि तो सम्मान भी होगा

घर से हि निकलती है मंजिल मुकाम की
पर,घर के बाहर हि मुकाम खड़ा नहीं होता
अनगिनत मोड आते हैं जिंदगी के सफर में
हर सफर में साथ हर किसी का नहीं होता

मिलता नहीं अनुकूल वक्त और माहौल सदा
होता है बनाना उन्हें अपने अनुसार सदा
परिस्थितियाँ हि तो लेती हैं इम्तिहान सदा
न मानने वालों की हार ही होती है जीत सदा

दिखावा

दीप मे तेल और आपस में मेल होना जरूरी है
बिना आधार के, कोई सपने सजाना व्यर्थ है

शास्त्र जरूरी है ,तो शस्त्र होना भी जरूरी है
नासमझों को, समझाने का हर प्रयास व्यर्थ है

धर्म मे आस्था है, विश्वास है, समर्पण भी है
किंतु रखना नहीं सुरक्षित,तो हर पूजा व्यर्थ है

बन जाता दिखावा सब, दिखावे की चाह में
धर्म पर स्वाभिमान नहीं, तो अभिमान व्यर्थ है

जरूरी है माल के मनके की तरह बनकर रहना
धार्मिक एकता नहीं,तो भजन कीर्तन व्यर्थ है

धर्म है परिवार और हम सभी उसके सदस्य हैं
नहीं निभाई जिम्मेदारी, तब हिंदू बनना व्यर्थ है

जरिया

मिले जरिये को हि चलिए आधार मानकर
मिल जायेंगे रास्ते और भी आगे चलकर

उंची टहनी पर हि देखिये फल को हरदम
मिल जायेंगे फल कई, पहुचें तो वहाँ चढ़कर

धरा पर हि धरा नहीं कुछ, किसी के लिए
मिलता है व्यक्ति को,सिर्फ लक्ष्य संधानकर

कदम कदम से ही,आती है मंजिल भी करीब
मिलता है जल भी उसे, जल तक पहुँचकर

बेहतर की चाह में आज को खोना ठीक नहीं
आज के संग हि भविष्य भी आता है चलकर

घी तो रहता है दूध के भीतर ही मौजूद सदा
मान बैठे हो खुद को हि क्यों जल समझकर

भीतर की शक्ति मे हि ऊर्जा भरी है जमाने की
बढ़ना तो होगा तुम्हें हि खुद को साधकर

ललक

न मोड़ कम होते हैं न बाधाएं कम होती हैं
ये रास्ते हैं जिंदगी के
न हवाएं कम होती हैंन बातें कम होती हैं….

उभरते और फूट जाते हैं बुलबुले जलाशय के जल पर
आसान नहीं सतह पर टिकना
जीवन की गहराइयाँ रहती हैं आतुर डुबाने को

रिश्तों के बंधन में जकड़ी हुयी जिंदगी
रह जाती है छतपटाती हि
आँखें देखती रहती हैं रिश्ते बदल जाते हैं

जरूरी नहीं कि जताए एहशान कोई बदले में
याद तो न दिलाये अभावों के दिन
हो जाती है मौत तब उम्र भर के संघर्षों की

करते हैं कितना, बस कीमत इसी की है
भावनाओं का मूल्य शून्य है
पहचान व्यक्ति से नहीं मतलब से होने लगी है

उजाले की ललक मे अंधेरों से बढ़ी यारी है अब
खामोशी से देख रहे हैं नतीजे
खोकर अपनात्वता अपने की तलाश जारी है

पथिक

चल पथिक तू पथ पर अपने
कर अनुसरण पहुँचे लोगों का
कल तेरा भी ध्वज फहराता होगा
पीछे एक नहीं पूरा हुजूम होगा

माना पथ पर कांटे लाख मिलेंगे
लेकिन आगे ही गुलशन भी होगा
आज है लगता दलदल तुझको
कल जल में खिला कमल होगा

मिलते हैं पथ से हि पथ अनेक
हार रहा क्यों तू ऐसे घुटने टेक
धरा मांगती वीरों की बलिदानी
जीवन पथ पर बन स्वअभिमानी

मनुज, महान तू मनु का वंशज
बन तू हि कल के दिन का अग्रज
तुझसे ही यह दीप जलेगा जब
होगा प्रकाशित यह पथ भी तब

अलगाव का वहम

उठती रहेंगी दीवारें, मकान बनते रहेंगे
बदलती रहेंगी धाराएँ, किनारे बंटते रहेंगे

हो जायेंगे लुप्त यूँ ही,ठहाके करीबियों के
कोने मे सुर शहनाइयों के धरे रहे जायेंगे

देते हैं दिखाई सूखे हुए पेड़ सब्ज पत्ते
हरित मौसम भी पतझड़ मे बदल जायेंगे

बंटते हि रहेंगे यदि रंग और जातियों हम
धर्म या मजहब मे फंसे फ़ना हो जायेंगे

मरती हि जा रही है जैसे आत्मा हमारी
मरी मानवता दानव हि बन रह जायेंगे

हों बंद चोंचले ये अमन और शांति के
नकाबों से भला कब खुद को समझ पाएंगे

जाँ हि नहीं रूह भी मर जाती है भ्रम में
क्या अकेले हि वसुधा पर हम रह पाएंगे

अलग न खुदा न राम,समझकर तो देखो
इक रोज परम सत्ता में हि सभी मिल जायेंगे

तब गम नहीं

कर्म का प्रयास कभी व्यर्थ नहीं होता
कौन कहता है व्यक्ति समर्थ नहीं होता
भावनानुसार हि होती है प्राप्ति फल की
हो जाय देर भले आज नहीं तो कल की

कहती है हवा कि तुम सतत चलते रहना
अग्नि कहती है अपनी ऊर्जा को परखना
कहती है पृथ्वी की सहनशील बने रहना
जल देता सीख शीतल बन विनम्रता की
नभ कहता रवि रजनी सा प्रकाशित रहना

पंच तत्व से निर्मित दे के ज्ञान का यही सार
प्रकृति प्रेम से ही मिलता जीवन का आधार
शक्ति सर्व व्यापित है स्वयं के हि निजता मे
किंतु भटक रहे हम झूंठे दम्भ की विद्वता मे

धैर्य की गति पहुँचा हि देती है लक्ष्य तक
विश्वास की ऊर्जा से होती नही हार कभी
दृढ़ता की ज्योति करती है मार्ग प्रकाशित
विवेक बुद्धि से होते नही हम भ्रमित कभी

जरूरी है जीवन में संस्कारों की सीढ़ी मिले
जरूरी है संगत में सत्कर्मियों की पीढी मिले
जरूरी है हर कर्म आपका धर्म से आबद्ध हो
तब गम नहीं कोई, कैसा भी मिला प्रारबद्ध हो

मिले रंग

जरूरी तो नहीं कि हर कोई चले
हर किसी की सोच के साथ
बदलते वक्त के बदलते प्रवाह में
यादें भी कहाँ ठहर पाती हैं

व्यस्त हैं सभी विचारों की भिन्नता मे
हर किसी की अपनी व्यस्तता है
सिमटने लगा है दौर अब प्रेम का
अपने निजी काम की ही आकुलता है

हो चली हैं संकुचित भावनाएं
औपचारिक निभाना हि शेष है
मिल जाते हैं गले नज़रों के सामने
बादे उसके निजता हि विशेष है

कतरनों से बनी गुड़िया के रंग जैसे
जुड़ने लगे हैं रिश्तों के धागे
मलमल का जमाना अब नहीं रहा
लुप्त हो चली है पारदर्षिता

मिल गये रंग अलग होते नहीं
खो गई है रंगों की पहचान इसी से
तलाश तो है सभी को अपनों की
मगर मिलता हि नहीं कोई किसी से

कर्म यु्द्ध

जीवन की सफलता हेतु
करना ही होगा स्वीकार कर्म यु्द्ध
कर्म की सबलता मे ही निहित है
परिणाम की सफलता
मात्र स्वप्न की धरा तो होती है बंजर ही

लक्ष्य न हो यदि कर्म मे शामिल
तो दिशा हीन से भटकाव का
कोई मुकाम नहीं होता
जीने के लिए सांसें हि काफी नहीं होतीं
उनमें जान का होना भी जरूरी है

खड़े हैं समर की रणभूमि मे हम सभी
स्थान रिक्त है दुर्योधन का भी
शकुनि, पांडव और कृष्ण का भी
चयन की स्वतंत्रता है अपनी
वंश रहे न रहे, सोच आपकी है

कर्म ही आधार है प्रारबद्ध का
श्रेष्ठता निर्भर है कर्म पर ही
कर्म का मूल आधार धर्म है
आश्रित है जीवन का सार धर्म पर ही
आप स्वतंत्र हैं कर्म और धर्म दोनों पर

प्रतिशोध

प्रतिशोध की ज्वाला मे
हर जाती है विवेक की बुद्धि
अपने हि बन जाते हैं पराये
रहती नहीं कर्म मे शुद्धि

अहं भाव पहुँचता है चर्म पर
ढह जाती है नींव लगाव की
बढ़ जाती है गैर की मध्यस्थता मे
बहती है हवा पड़ोस के प्रभाव की

हो जाती है प्रतिशोध मे शामिल
गीदड़ों की दहाड़ भी
समाधान रहता चुटकी भर का
रह जाता है छोटा पहाड़ भी

थे न कभी जो हमारे
वे हि बन जाते हैं समर्थक आकर
जरूरत क्या थी दखल अंदाजी की
सोचिये आ गये क्यों दूर जाकर

प्रतिशोध जला देता है सर्वस्व
घटा देता है अपना हि वर्चस्व
निर्णय मे जरूरी है समझदारी
बुझ जाती है स्वयं ही चिंगारी

मोह भंग

तय नहीं हो पाती है दूरी
रह जाती है मंजिल अधूरी
चार गज की मिली है डोरी
बंध हि नहीं पाती है पूरी

उलझनें ही रहती हैं सदा
होतीं पूरी कभी यदा कदा
अनगिनत मोड़ जिन्दगी में
कुछ सही कुछ गलत मे

सही मे मिलता सुख अनंत
कुमार्ग मे है भोग की पीड़ा
समझ नहीं यदि समय पर
तो जीवन जीव जंतु कीड़ा

आना जाना हुआ व्यर्थ
रहा शून्य होकर समर्थ
बीती उम्र खोकर ईश्वर
राख की ढेरी देह नश्वर

गमन मे साथ सिर्फ कर्म ही
रहता साथ केवल धर्म ही
बस यही परिणाम संग होगा
मोह सारा अंत मे भंग होगा

खुद की मुलाकात

खुद से खुद कि गर मुलाकात हो जाती
सच कहता हूँ कि ये जिंदगी संवर जाती

नज़रों ने देखी है दिल में जमाने की रंगत
दिल भी होता रंगीन तो जिंदगी संवर जाती

कोशिशों के बाद भी दिल से मैल गई नहीं
हो जाती सोच निर्मल तो जिंदगी संवर जाती

हिम्मत हि हुयी नहीं खुद को परखने की
चाहत भी हुयी होती तो जिंदगी संवर जाती

रही हो मिठास भले अल्फाज मे जबान की
दिल में भी अगर होती तो जिंदगी संवर जाती

आ गए अब तो खाई के आखिरी छोर तक
पहले हि समझ लेते गर, तो जिंदगी संवर जाती

भरता हि रहा उम्र भर फटी झोली को मैं
जमीं पर भी नज़र होती तो जिंदगी संवर जाती

मित्रता

मित्रता की चाह तो रहती सभी को
मित्र बिना जीवन है अधूरा रहता
मित्रता के अंक में सुखद एहसास
अनुभूतियाँ रहती हैं सदैव अस पास

लड़ना झगड़ना रहना फिर भी साथ साथ
न हो वजह कोई फिरभी बढ़े बात मे बात
मुश्किल है मिलना मित्र कृष्ण सुदामा सा
तब भी मित्र तो चाहिए ही भले तिनका सा

दुःख सुख सबमे रहती सहभागिता मित्र की
अतूट है बंधन जैसे रंग और रेखा चित्र की
हकीकत है एक यदि तो दूसरा है परछाई
मित्रता की रीत यह सदा युगों से चली आई

रखते हैं खंजर भी मित्रता की आड़ मे कुछ
तब भी बिन मित्रता के जीवन में नहीं कुछ
कर लेते हैं परख जो मित्रता की विवेक से
होते नहीं पराजित वो कभी अनेक से

तैयारी

पगडंडियों ने तो किया था प्रयास पहुँचाने का
सड़कों के मायाजाल ने तो भटका हि दिया
चले थे घर से सपनों की पोटली बांधकर
राह में लुटेरों ने हमसे हकीकत हि छीन ली

इच्छाएँ प्रबल थिं, जुनून भी पर्याप्त था
उम्मीद से भि थे सराबोर, यकीन भी था
अपनों ने हि बांध दी बेड़ियाँ पैरों में बढ़कर
मंजिल भी साफ थी मुकाम भी करीब था

गैरों से नहीं, शक है अपनों की वफादारी पर
सौंप दूँ चाभी किसे, किसकी जिम्मेदारी पर
सूरज का ढलना तो तय है एक वक्त के बाद
तारों की महफ़िल में चाँद अकेला है राह पर

घटता नहीं वक्त कभी चढ़ते हुए शबाब से
होती है देनी टक्कर, बस माकूल जवाब से
जगानी है चेतना को, समय के हिसाब से
बनी आज की नींव पर ही रहना है रुआब से

होता नहीं संभलना, लक्ष्य के चूक जाने पर
मिलती नहीं जीत, बाद के किसी पछताने पर
चाहते हो यदि रहें पीढियाँ, सलामत तुम्हारी
आज हि होगी तुम्हें करनी, कल की तैयारी

दिल की सदा

बेतरतीब सी निगाहें बस तुम्हें ढूंढती हैं
तुम नहीं तो कुछ नहीं बस, यही कहती हैं

सुबहो शाम की सांसों मे भी बस तुम्ही हो
बिन तुम्हारे साँसें भी नहीं, बस यही कहती हैं

पल पल निहारा है दिल की आँखों से तुम्हे
तुम भी उतर जाओ दिल मे, बस यही कहती हैं

फ़ानी है जहाँ, हो जायेगा दफ़न इक रोज
मिल जाओ रूह के साथ , बस यही कहती हैं

तुमसे हि रोशन है अब दिल का जहाँ मेरा
कर लो एहतराम इसे, बस यही कहती हैं

मुहब्बतों के सिवा कुछ नहीं, अपनायियत मे
जाहिर मे दिल की सदा , बस यही कहती हैं

आधी उडान

कुछ बातों से अभी और हमे सीखना होगा
पढ़ तो लिए हैं मगर अभी और समझना होगा

बना तो लिए हैं मित्र कई,अपने दिल से हमने
मगर समझ से उन्हें अभी और परखना होगा

राहों से हि निकलती हैं राहें कई, मंजिल की
मगर, निष्कर्ष भी रख ध्यान में चलना होगा

हर सख्श को मुहब्बत है, फ़लक की ऊंचाई से
मगर, गहराई से हि ऊंचाई तक पहुँचना होगा

रास्ते फिसलन के भी हैं, दलदल से घिरे भी
खेत की मेड़ से चलते हुए संभलना भी होगा

हर तरफ शोर है कि, हम अब बढ़ने लगे हैं
मगर, पहुचेंगे जाकर कहाँ,ये भी सोचना होगा

आधी उडान से ही फलक पे मुकाम नहीं होता
जमीं पर हि पंख को अपने, परख लेना होगा

चाहो तो

मझधार मे तो हूँ मैं भी
तब भी, चाहो तो पुकार लेना
बचा न सकूँ भले आकर
तब भी, दुआ तो कर हि सकता हूँ
चाहो तो आजमा लेना
चाहो तो पुकार लेना

होती है असीमित शक्ति धब्द की
यदि, भावना हृदय की प्रबल हो
बचा लेता है तिनका भी डूबते को
विश्वास की धरा पर प्रीत सबल हो
धैर्य को भी परख लेना
चाहो तो पुकार लेना

समझा था अलग आपने
आप अलग तो कभी रहे हि नहीं
मनु सतरूपा के वंशज हम
खून से अलग कभी हुए हि नहीं
देख लो कुछ देर पन्नों को पलटकर
रिश्तों को फिर से दुहरा लेना
चाहो तो पुकार लेना

बदलते वक्त के साथ ही
इतना भी न बदलो की फिर
हम चाहकर भी बदल न सकें
एक हि परिधि में रहना है हमें
मिलने से दूर होना मुमकिन नहीं
खुद को भी कभी परख लेना
चाहो तो पुकार लेना
चाहो तो पुकार लेना

विश्वास

हर कदम पर हो रही पहचान आपकी
ले रहे हैं हर कोई लोग इम्तिहान आपका
आप चल रहे हों भले गफलत के बीच हो
घूरति निगाहें करती रही हैं पीछा आपका

स्वयं पर कभी होती नहीं नज़र किसी की
व्यस्त हैं सभी आज दूसरों की निगरानी में
पता है कि जी रहे सभी दुनिया ये फ़ानी मे
तब भी समझ नहीं पाए सत्य जिंदगानी में

अतीत की सुध नहीं, कल की खबर नही
बहने लगी है गागर,फिर भी में सबर नहीं
समझ लेते हैं अपनों को हि नाकारा क्यों
करना है उन्हें भी, यहाँ मुफ़्त में बसर नहीं

कर्म की धरा पर,सिर्फ धर्म से ही प्रकाश है
अहम की दास्तां मे कभी होता नहीं विकाश है
काल के चक्र ने,रौंद डाला है सूर्माओं को भी
देख रहा कालपुरुष किसमे कितना विश्वास है

सनातन सभ्यता

बहुत हि उन्नत था बिता हुआ ईतिहास्
आज की तुलना मे था वो बहुत ही खास
मंत्रबल से हो जाती थी तय नभ की दूरी
जल के भीतर बैठकर होती थी साधना पूरी

तीन लोक चौदह भुवन के नभ का था ज्ञान
मौखिक गणित को भी समझ न पाया विज्ञान
ज्ञात थी समस्त सौर मण्डल की ऊर्जा शक्ति
कहने को थी केवल साधना और ईश भक्ति

बाल पवनसुत पहुँचे गए थे दिनकर तक
गिरी संजीवनी को लाए थे लंका तट तक
कुरुक्षेत्र का समर तब भी स्पष्ट दृष्टिगोचर था
पुष्पक विमान में बैठे सियाराम का सफर था

अभिमान आज का तब किस विद्वता पर
बिता होकर प्रौढ़, वही फिर बाल्यकाल है
फिर फिर का सृजन हि प्रकृति में अटल है
सत्य सनातन सभ्यता ही वसुधा मे निर्मल है

वेद पुराण ही शास्वत पूर्ण ज्ञान की खान
तबकी हासिल उपलब्द्धि ही परख रहा विज्ञान
भारत को ही सर्वश्रेष्ठता का मिला प्रथम सम्मान
सारे गुण विद्यमान, भूत भविष्य वर्तमान

ख्यालों में

शायरी भी तुम्ही, ग़ज़ल भी तुम्ही मेरी हो
धड़कन भी तुम्ही, साँसें भी तुम्ही मेरी हो
साज भी तुम्ही, आवाज़ भी तुम्ही मेरी हो
पंख भी तुम्ही, परवाज़ भी तुम्ही मेरी हो

तुमसे अलग अब निगाहों में कुछ भी नहीं
मेरी हर नजारों मे फकत अब तुम्ही तुम हो
सोच मे, ख्याल मे, ख्वाब भी तुम्ही तुम हो
हसरत तुम्ही जज्बातों मे भी तुम्ही तुम हो

दरबारे आम भी ,दरबारे खास भी तुम्ही हो
मुझसे दूर भी तुम ही मेरे पास भी तुम ही हो
तुम नहीं जो करीब मेरे तो कुछ भी नहीं
जीवन की मेरे गजल भी ,रुबाई भी तुम्ही हो

एहसास भी तुम्ही करता महसूस भी तुम्हें ही
दिलशाद भी तुम्ही मेरा उपहास भी तुम्ही हो
जहां भर में सिवा तुम्हारे कोई नहीं है मेरा
अर्श से फलक तक हमने देखा है कि तुम ही

हो कविता में तुम्ही लेख ,हर रचना में तुम्ही हो
हर हर्फ़ से जुड़े हर अल्फाज में तुम्ही तुम हो
कल्पना में,साकार में,प्रकार में तुम्ही तुम हो
नींद में,जाग में,मेरी लेखनी में तुम ही तुम हो

चाह यही

रुकना नहीं है, थकना नहीं है
बंधी है सांसों की डोर जबतक तन से
उठना, गिरना, और संभलना है
होना नहीं पराजित हमको मन से
बंधी है डोर जबतक तन से

निश्चित है पथ मे आना बाधाओं का
निश्चित है आना शंकाओं का
सरल सुलभ जीत नहीं होती
मिले साथ सहर्ष जग की रीत नहीं होती
लिपटे हि रहेंगे सर्प विषैले जीवन से
बंधी है सांसों की डोर जबतक तन से

चलना है कुछ के पदचिन्हों पर
जाना है छोड़ कुछ अपने पदचिन्ह भी
नश्वर तन का मोह धरूं कबतक
क्यों न करूँ प्रतिकार दुष्कर्मों का
क्यों न भरूँ भाव संघर्षों का
बंधी है सांसों की डोर जबतक तन से

मैं नहीं नभ का दिनकर भले
रजनिकर भी नहीं सुदूर गगन कt
दीपक हि सही, पर हूँ प्रकाशित
नन्ही सी ज्योत भी मेरी कम नहीं
पूर्ण हूँ स्वयं में, कुछ कम नहीं
चाह यही कुछ कर जाऊँ चिंतन से
बंधी है सांसों की डोर जबतक तन से

हिंदी का भी दिन

अब अपनों पर गर्व नहीं होता
हिंदी हो या बिंदी गर्व नहीं होता
मुह देखे का हि रिश्ता सारा है
अब दिल से दिल पर गर्व नहीं होता

दो दिन का ही संबंध है रहता
मतलब का ही अनुबंध है रहता
गैरों से ही सबकी प्रीत लगी है
जाने कैसी अब ये रीत जगी है

हर आदर्श छिपा जब हिंदी में
जीवन का सार बसा हिंदी में
जीव जगत का मर्म हिंदी मे
तब भी रखा क्या है हिंदी में

छपने खातिर रचना है हिंदी मे
नाम के खातिर वक्ता है हिंदी में
शिक्षा खातिर शिक्षक हिंदी में
दिन के बीते, व्यर्थ है सब हिंदी में

यदि है सत्य प्रेम निज की भाषा से
यदि है लगाव अपनी मातृभाषा से
तब हिंदी में प्रथम प्रयास तुम्हारा हो
तब प्रथम अटल विश्वास तुम्हारा हो

शब्द की महिमा

जरूरी है आपसी बेबाकपना भी बना रहे
साथ हि इसके,रिश्तों की गरिमा भी बनी रहे

जोड़ते हैं शब्द ही, तोड़ते भी हैं शब्द ही
शब्दों की कड़वाहट मे भी मिठास बनी रहे

भर जाते हैं जख़्म, खंजर से हुए प्रहार के भी
निरंकुश हुए शब्दों में भी प्रीत की डोर बनी रहे

भाव मन के बदल भी जाते हैं मौसम की तरह
जरूरी है लगाव की गर्माहट उम्र भर बनी रहे

हालात एक जैसे रहते नहीं जीवन भर कभी
दूरियों के बीच भी पास की उम्मीद बनी रहे

पछतावे के तहत् भी प्रायश्चित होता नहीं कभी
अलगाव के भीतर भी प्रेम की महिमा बनी रहे

बस देखा करिये

सोचा था दूँ समझ ज्ञान की
बच्चों ने कह दिया कि पता है
धर्म की बातें लेकर मत बैठ जाना
करते तो हैं हम भी पूजा अर्चना

पढ़ चुके हैं इतिहास की गाथा
ठनक उठता है अपना माथा
वही सभ्यता संस्कार की बातें
जो कर देती हैं खराब दिन रातें

आखिर क्या कर लिया आपने हि
रह गये बुनते सिर्फ सपने हि
जीवन भी एक जंग है जमाने में
अर्थ रखा है सिर्फ नोट कमाने मे

मॉडर्न होना भी गुनाह तो नहीं
समय के साथ बदलाव जरूरी है
आज से बड़ा न था न होगा कल
आप व्यर्थ हि मचाते हैं हलचल

ज्यादा न सोचिये आराम से रहिये
बुजुर्ग हो बस आप इतना हि करिये
हो गया खामोश हमे हि समझा दिये
मालिक हैं राम आगे, बस देखा करिये

अभिमान

गर्व से निखरता है व्यक्तित्व आपका
अहम कर देता है नष्ट आपके भविष्य को
चांदनी भी संवरती है तारों के साथ
अहं मे जलता है सूरज तनहा गगन में

थोड़ी सी ऊंचाई हि पर्वत नहीं होती
उचाई से भी उचाइयाँ और भी बहुत हैं
सरोवर की गहराई पर इतराते हो क्यों
सागर की गहराइयाँ उससे भी बहुत हैं

चले नहीं चार कदम वामन समझ लिए
पहली हि डुबकी मे खुद को पावन समझ लिए
देदीप्यमान हैं ऋषि आज भी नभमंडल मे
भर लिए थे जिन्होंने सागर भी कमंडल मे

केवल कर्म के साथ करते रहें प्रयास
न करें भूल कभी स्वयं को श्रेष्ठ समझने की
सहयोग से हि मिलती है कामयाबी इंसान को
अहं मे तो दी जाती है चुनौती भगवान् को

हिंदी हमारी भाषा

आ गई है बाढ़ सी फिर हिंदी के महत्व की
करने लगे हैं लोग बातें निज कर्तव्य की
दो दिन के बाद हि, हिंदी फिर न पूछी जायेगी
हाइ, हैलो, गुड, सॉर्री, मे फिर लुप्त हो जायेगी

होने लगी हैं बातें, श्रेष्ठ साहित्याकारों की
पथ प्रदर्शक, ज्ञान वर्धक आदितयकारों की
फिर रह जायेंगे, कवि हिंदी के मुहावरों मे
देहाती गाँव की बोलचाल और कहावतों मे

निम्नस्तर तक हिंदी, फिर औपचारिक शिक्षा
बैठे पद सिंहासन से मानो मांग रही हो भिक्षा
कृपया न करें सब, मिथ्या वर्णन हिंदी का
या फिर अंतस्तल से करें सम्मान हिंदी का

हिंदी में ही वर्णित है मूल्य विशुद्ध मानवता का
धर्म,कर्म,भाव,संस्कार,और मूल्य सभ्यता का
आदर,सत्कार,लिहाज,चरित्र आचरण हिंदी में
त्याग,तपस्या,पुण्य,पाप की परिभाषा हिंदी में

पहुँच रही आमजन तक वो भाषा विदेशी है
हर सरकारी पद पर बैठी भाषा वो विदेशी है
तब भी कहलाती क्यों हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी
आन, बान, शान और माथे की बिंदी हिंदी

जल की थाह

कलम सोने की हो या चांदी की
मूल्य तो उससे लिखे शब्दों का है
व्यक्ति धनवान हो या दीनहीन
मूल्य तो उससे जुड़े रिश्तों का है

ज्ञान मे व्यवहार होना चाहिए
स्वभाव में सम्मान होना चाहिए
शहर में तो भीड़ का बाजार है
घर का सुखी संसार होना चाहिए

जरूरी है कि भक्ति में भाव हो
जरूरी है लोगों मे प्रभाव हो
मानवता से भरी सोच जरूरी है
जरूरी है कि हृदय में लगाव हो

रास्ते नहीं, उस पर लोग चलते हैं
यहाँ दिल नहीं लोग मिलते हैं
चाहते हो गुलाब की खुशबु तो
हाथों में पहले खार मिलते हैं

जरूरी है चंदन का घिसा जाना
जरूरी है कंचन का तपा जाना
लहरों से मिलती नहीं थाह जल की
मोती के लिए जरूरी है उतर जाना

कैसे कहूँ

कर नही पाते व्यक्त हम
मन की तमाम व्यथाओं को
रह जाती हैं दम तोड़ती वेदनाएँ
मरु मे तृष्णा से तृप्ति कैसे पाएँ

सुलझ सकती थी गुत्थियाँ
होतीं यदि सहानुभूति की भावनाएं
मरी हुयी सोच के महासागर में
मुश्किल है मोती की शीप को ढूंढ पाएँ

यद्द्यपि आहत हैं हृदय सभी के
किंतु, यकीन हि नहीं अपनेपन पर
सूख चुकी हैं नदियाँ प्रेम की सारी
अंजली मे लगाव की बालू कैसे ठहर पाएँ

कैसे कहूँ, स्वयं भी तो
ग्रसित हूँ अविश्वास की महामारी से
स्वयं की विश्वसनियता भी कहाँ बना पाया
तब इल्जामऔरों पर कैसे लगा पाएँ

बनना होगा उदाहरण स्वयं ही
तब हि कहूँ कि हक है गैर पर
अर्धजल भरी गगरी है जब मेरी ही
तब प्यास कैसे संग और के बुझा पाएँ

अरमान

हर ख़्वाहिश हो मुकम्मल जरूरी तो नहीं
कुछ अधूरे अफसाने भी अच्छे होते हैं
सुना है रूह कभी मरती नही
हिफाज़त के कुछ जज़्बात भी अच्छे होते हैं

ताउम्र की यादें भी तो
देती होंगी सुकून कब्रग़ाह में
हो सकती है मुलाकात फिर कभी
हिज्र के पनाहगाह में

माना तू मुकद्दर में नहीं अभी
कयामत भी नहीं आख़िरी में अभी
रहेगी रूह धड़कती तेरे आने तक
हमे तो काफी है तस्वीर ही अभी

चाहता हूँ फ़कत एक वादा तुझसे
दूर होकर भी न रहना दूर मुझसे
मिल जाने दे रूह के संग अपने मुझे
सिवा और नहीं कुछ है मन्नत तुझसे

तू ही है बुनियाद साँसों की अब
तेरे ख्वाब में ही सजते हैं ख़्वाब मेरे
फ़ना तो हो जानी है दुनियां ही इक रोज़
तुझपर ही निसार हैं अब अरमान मेरे

निज अस्तित्व

अंत भी होता विलीन अनंत में
अनंत से हि सृजन का प्रारंभ है
नश्वर होकर भी नश्वर कुछ नहीं
यहाँ हर पल हि होता आरंभ है

कर्म से हि खुलता सृजन का द्वार है
सृजन से हि प्रारब्ध का संसार है
ठहरती नहीं कालचक्र की गति कभी
स्वयं आपके द्वारा हि आपका उद्धार है

सहयोग में है समस्त संसार आपके
आपके भविष्य में मूल कर्म हि आपके
संगत में हि निर्भर है राह जीवन की
शिल्पकार हैं आप हि अपने जीवन के

आप हि प्रथम बूंद हो इस सागर की
सागर से ही बनी तुम प्रथम बूंद भी हो
न तुम अलग, न है अलग तुमसे कुछ भी
मूल भी तुम्ही,अंत भी अपने तुम्ही हो

भुला निज शक्ति जहाँ से मांग रहा क्यों
पाल मन मे खार, सुख ढूंढता है क्यों
त्याग द्वेष इर्ष्या, प्रेम हृदय मे भर के देख
होगी जीत तेरी, मिलेगा न सम्मान क्यों

चुनाव

कुछ बातों को जुबा पर लाना नही होता
समय से पहले कहना सही नही होता

बदलते हुए मौसम के प्रवाह की धारा है
कैसे कहें कब कौन किसका सहारा है

लोगों की मेघ सी बदलती हुयी आकृतियाँ हैं
गर्ज को देखकर हि बदलती हुयी प्रवृत्तियाँ हैं

तेल और तेल की धार देखकर चलिए
अंधों का शहर है, रास्ता देखकर चलिये

गूंगे बोलते हैं, लंगड़ों की दौड़ चलती है
बटन का कमाल है, नोटों की होड़ चलती है

जीने की तमन्ना मे शस्त्र भी उठाना होगा
कृष्ण की परंपरा में अर्जुन को सिखाना होगा

रास्ते के मुकाम को तो आपको हि चुनना होगा
मिलेगा वरदान भी, श्राप भी भोगना होगा

सम्मान योग्य

सम्मान योग्य को ही, दें उचित सम्मान
अन्यथा वह आपका हि, रहे घटाता मान

भाषा की मधुरता मे, चलते तीखे बाण
होता नहीं सहन हिय, निकले मानो प्राण

समझ नहीं निज धर्म की, धरे ज्ञान अभिमान
अहम चढाये शीश पर, रहे न और का ध्यान

मर्यादा लाँघकर, करे जो कटु प्रहार सी बात
चार कदम की दूरी रहे, निभे न उनसे साथ

निज आपा खोयकर, लोभ न रखिये कोय
कर्म दिलाये ताज तुम्हे, जग बैरी जो होय

गर्व रहे निज धर्म पर, चलो नित सत्य की राह
क्या रखा झूंठे दंभ मे, मिले बहुत ही वाह!

शिक्षक गुरु नहीं

अति आवश्यक है कि
शिक्षक का आदर सम्मान हो
वे हि तो आधार हैं जीवन पथ के
मार्गदर्शक, सफलता की मंजिल

तब भी उन्हें गुरुत्व का स्थान
आज नहीं दिया जा सकता
गुरु और शिक्षक भिन्न हैं
एक मार्गी होते हुए भी

शिक्षा के इस व्यवसायिक युग में
शिक्षक भी दे रहा मात्र
जीवीकोपार्जन की जानकारी
भूल हि गया संस्कारों का ज्ञान वह भी

संस्कारहीन व्यक्ति जी सकता है केवल
भविष्य का आधार और
मानवीयमुल्यों का अनुसरण नहीं कर सकता
बिना आत्मिक ज्ञान भटकाव हि जन्म लेता है

बिकाऊ शिक्षा की पद्धति में
शिक्षक की नीति भी जब केवल
धनोपार्जन हि रह गया हो तब वह भी
सम्मान पात्र भले हो, किंतु
गुरुतुल्य पूज्यनीय भी है, यह कैसे कहें

आमंत्रण

क्यों बंट रहे हो भाई आपस में तुम
कर लोगे हासिल क्या अलग रहकर
लहराता था ध्वज जहाँ विश्व भर
रह गये हो शेष वहीं अब मुट्ठीभर

पुरातत्व की खोज में अपना सनातन
मिलता है हर किसी के घर आँगन
तब भी पतित हिंदुत्व का देश कहाँ
निजता के गर्व में खंडित कर का कंगन

अर्धनिन्द्रा में होता नहीं उत्थान कभी
भरोसे और के मिलता नहीं सम्मान कभी
निज बाहुबल से हि किले फतह होते हैं
सुप्त चेतना में कल ख़्वाब की तरह होते हैं

होता है आज से ही सदा निर्माण कल का
कल के विश्वास पर सिर्फ पश्चाताप होता है
धिकारेंगी भविष्य की पीढियाँ जब तुम्हे
होकर मृत स्वयं, तुम हि करोगे मृत उन्हें

न आये वक्त वही फिर कौरव के काल का
करना पड़े वरण, उन्हें भी मृत्यु के गाल का
अभी है वक्त, जगा लो अपनी सुप्त चेतना को
कर रहे क्यो आमंत्रित विरह की वेदना को

अस्मत अपनी

अब अति आवश्यक हो गया है कि
हर रचनाकार केवल कला हि न् दिखाये
बल्कि अपनी उकेरी हुयी कला को भी
अपने जीवन में उतारकर हि सामने आये

बहुत हो चुकी हैं अबतक उपदेश की बातें
रह गये हैं वैसे ही कभी दिन तो कभी रातें
बातों हि बातों में बस घूमती रह जाती हैं बातें
बदलता कुछ नहीं बस होती हैं बातें हि बातें

चढ़ा हो नकाब खुद के हि चेहरे पर जब
तब और को बेपरदा क्या कर पायेगा कोई
जगा सकेगा और की आत्मा को कैसे कोई
उसकी ही आत्मा जब अबतक हो सोई हुयी

बुझा न सका जो अपने हि घर की आग को
दौड़ रहा है वही बुझाने जलते हुए शहर को
बढ़ा नहीं अन्याय कभी बढ़ते गुनाहगारों से
फला फूला है वह समझदारों की खामोशी से

आ गया है वक्त अब जगा लो चेतना अपनी
मिट जाओगे,जो समझे न कथनी और करनी
हर बार न आयेंगे आज़ाद भगत या कृष्ण तुम्हे
बचानी होगी अब तुम्हे खुद ही अस्मत अपनी

मूल कारण

मानसिक बदलाव
हमारे कहने या आपके पढ़ने से नहीं
आपके समझने और अपनाने से होगा

ज्ञान किताबों का चाट् जाते हैं दीमक
किंतु वे ज्ञानी नहीं बनते
आप हि जाने नहीं धन और समय का मूल्य
भूल गए जब सुन समझकर भी

वक्ता, लेखक, उपदेशक
करते हैं सिर्फ कर्म अपना
जीते मरते हैं आपके लिए
आपने समझ लिया व्यवसायी उन्हें
समझ स्विकारेंगे तब कैसे

तर्क से तर्क ही होंगे पैदा
बनकर सूप सार लेना होगा
गर्द उनकी छोड़ दो उनके हिस्से
आपको तो अपने हिस्से की लेना होगा

पल पल है अनमोल
आपका आभास आपको हि नहीं जब
तब असंभव है समझना अन्य का मूल्य
यही वो मूल है जो मिटा न सका तम
जगत से अज्ञानता का

समय की धरा पर

बदरंग हुए भाव मन के
छिन गयी कर्म की उज्ज्वलता हमसे
घर कर गई सोच मे मलिनता
विमुख होते रहे हम धर्म से

मरती रही मानवता पल पल हृदय की
बढ़ती रही भूख तम मे विलय की
आभास मे रही प्रकाश की आभा फैली
होती रही परिणाम मे चादर मैली

अंकुरित वासना वृक्ष बनती गई
बेल लोभ वैभव द्वेष इर्ष्या की बढ़ती गई
दृष्टि में चाहत रही आकाश की
पर कदम की दिशा रही पाताल की

समय की धरा पर खार हम बिछा रहे
कैसे होगा चमन हरा हम कहाँ जा रहे
कलियों मे मधुरस जब हम भर हि न पाए
गुलशन में पुष्प जब हम उगा हि न पाए

है वक्त अब भी यदि जगा लें चेतना को
मुश्किल नही कि मिटा न पाएँ वेदना को
समझ लें यदि असत्य के परिणाम को हम
दुर्गम नहीं कि छू न लें व्योम को हम

मानसिक बेड़ियाँ

चाहते हि नहीं हो तुम
कैद से बाहर निकलना
और का देकर हवाला
खुद गुलाम हुए बैठे हो

टूटती नहीं मानसिक बेड़ियाँ
जकड़ लेती हैं समझ को
सोच को मिलता हि नहीं विस्तार
कोल्हू के बैल की तरह

एक हि बन जाए आधार जब
घूम कर आते हैं हर बार वहीं
दिखता है सत्य बस वहीं
वही बन जाती है दुनियाँ अपनी

विफल हो जाते हैं हर प्रयास
समझना ही न चाहे जब व्यक्ति
स्वयं को ही मान ले जो सत्य
काम आती नहीं कोई शक्ति

इतिहास में होता है वर्तमान
भविष्य तो बनाना होता है
अतीत को ही समझ ले जो जीवन
व्यर्थ उसे कुछ भी बताना होता है

जटिलता

जरूरी नहीं कि दरार के लिए
आये आंधी या तूफ़ान हि कोई
गलतफहमी नासमझी भी काफी है
कई प्रश्न खड़े करने के लिए

जरूरी नहीं कि आपके जितना ही
कोई समझ सके आपको भी
आप हि नहीं समझ पाए उसे
तो इसमें गलती तुम्हारी है

समंदर की हर लहर से
कभी मोती नहीं बन पाती
लेकिन लहरों के प्रयास से हि
मोती भी बन पाती है

महत्व कद्र के अनुसार दें.
चाहत सीमा के भीतर तक हि रखें
लगाव की अधिकता मे लोग
अक्सर स्वार्थी समझ बैठते हैं

आज भी हावी है रुढ़ि वादिता
मान्यताओं की कट्टर वादिता
सरलता स्वीकार हि नहीं बहुतों को
बांध रखी है उन्हें उन्हीं की जटिलता

कृष्ण जन्म दिन

आ तो गए कृष्ण तिथि रूप में
किंतु, उनकी उपस्थिति को
करना होगा धारण
स्वयं की आत्म चेतना मे….

बनाना होगा सबल स्वयं को
बनना होगा सारथी स्वयं को हि
हर अन्यायके विरोध में
युद्ध महाभारत जैसा ही है

दुशासन् की दुष्टता का हनन कर्ता
हर किसी को होना होगा
कृष्ण हि क्यों हर बार करें अंत
मानवीय अत्याचार का

पुरुष वही पुरुषार्थ हो जिसमें
कर न सके रक्षा जो उसकी
अधिकार नहीं तब उसे
पत्नी माँ बहन बेटी कहे किसी को

गुनाह करना ही नहीं केवल
देखना, सुनना, सहना भी
आते हैं गुनाह की परिधि में
यही है वक्त उपयुक्त
बसा लो कृष्ण को अंतर्मन मे

कायदा

मत होने दो कम रोशनी अपनी
अंधेरों की जाल बहुत बड़ी है
बिछा रखे हैं दाने शिकारियों ने
जब से तुझ पर उनकी नज़र पड़ी है

कलम दिखा सकती है सिर्फ आईना
देखने की समझ तो आपकी होगी
इतिहास के पन्नों में रहता है बहुत कुछ
उसे परखने की परख आपकी होगी

समझें या न समझें वहशी दरिंदे
सत्य को तुम्हे भी तो समझना होगा
बिना चिंगारी के आग भड़कती कहाँ है
तुम्हे भी तो बिना घी के चमकना होगा

रहोगे हवाओं में यदि बहते हुए
तो गिर जाना भी स्वभाविक है हवन मे
बन जाओगी समिधा तुम भी तब
जरूरी है नज़रों की समझ जीवन में

दोषी मे भी दोष किया जाता है पैदा
दोषी को हि दोष देने से क्या फायदा
देखना होगा खुद भी तुम्हे स्वयं को
लांछन लगाने का भी होता है कोई कायदा

आ गया है वक्त

निकल गया है वक्त अब
समझने और समझाने का
हो रहे अत्याचार पर अब
आ गया है वक्त खंजर् उठाने का

किस काम की ऐसी मित्रता
जहाँ हो रहा हो चीरहरण
निभा चुके रिश्ते भाईचारे के
अब होंगे कलम सर हत्यारे के

हर घर से निकलेगी मशाल जब
तब हि होगी रक्षा अस्मत की
दोषी का कोई वर्ण, समूह नहीं होता
गलत संग किसी से कोई मोह नहीं होता

इतिहास दोहराया भी जाता है
उसे जगाया भी जाता है
उदाहरण तो होते हैं उदाहरण ही
उनको जीवन में अपनाया भी जाता है

मत ढूंढो सहारा और के कंधे का
जगाओ खुद के आत्म सम्मान को
चीख रही हर बेटी बनकर अबला
अपने जैसे ही समझो हर के अपमान को

मत बांधना राखी

मानता हूँ कि राखी बंधन का पर्व
प्रतिक है भाई बहन के अटुट् प्रेम का
तब भी बेटी, मत बांधना उस भाई को
जिसकी नज़रों मे यह केवल मान्यता है

मत बांधना, जो दे बदले मे पैसा
और उतार फेंके दूसरे हि दिन
सोचकर कि बीत गया दिन
अब हर दिन है रोज की तरह

यह मत भूलना कि बेटी तुम केवल
बहन हि नही हो भाई की अपने
और के बहनों की तुम बहन हो
कहीं माँ तो कहीं बेटी भी हो

आजमा लेना पहले भाई की नज़रों को
परख लेना उसकी नीयत को
क्या उसी की और वही तुम्हारा है कोई सहेली भी तो होगी, बहन जैसे

मत होने देना तार तार इस बंधन को
समझना मूल्य तुम भी विश्वास का
परखना तुम भी अपने के चरित्र को
बेटी, मत बांधना दुशासन के हाथ मे राखी

बहुत हुयी बातें

बहुत हुयीं बातें भाई चारे की
अब अस्त्र उठाओ
और कर दो सर कलम हत्यारे की

हिंदू चीनी भाई भाई
गंगा जमुनी तहजीब की बातें
मत देखो जात, धर्म, वर्ण किसी का
चौराहे पर हो फांसी बलात्कारी की

बेटी बहन हो या माँ भाभी
वहशी को दिखते हैं एक सभी
हो चुकी बहुत न्याय की बातें
करो न प्रतिक्षा अदालती न्याय की

पाकर पद सब भरे हुए हैं
जमीर से सब मरे हुए हैं
केवल कुर्शी अपनी बची रहे
इसी सोच मे सब पड़े हुए हैं

करनी होगी रक्षा खुद अपनी
मर रही हों जब बेटियां अपनी
यही समय है जागो अब तो तुम
खोकर पौरुष नपुंसक से क्यों हो तुम

अब तक बाहर का यह अत्याचार है
नज़रों में कल आपका ही द्वार है
डर मे कब तक सांसे ले पाओगे
इंसान हि हैं तुम जैसे अत्याचारी भी
बढ़कर दिखलाओ साथ तुम्हारी

बहन की शर्त

राखी बान्धुगी मै भईया, पर शर्त मेरी है एक
और की बहना भी मुझ जैसी, खाओ कसम नेक

लाज किसी की ना जाये, जिसमे हो तुम्हारा हाथ
बची रहे अस्मत उसकी, उसमे तुम्हारा हो साथ

रक्षक बनकर रहना भैया, सौगंध तुम्हे धागे की
रहे सदा हृदय कोमल,मंशा भी यही हो आगे की

हाल न हो किसी बहन का, दिल्ली कलकत्ता जैसे
अश्त्र उठा लेना तुम भी चाहे परशु राम के जैसे

अन्याय सहन कर लेना भी , कलंक लगा देगा
बंधवानी है राखी यदि तो, वचन याद दिला देगा

कोई भी हो भाई, इज्जत सबकी प्यारी होती है
खोकर अपनी लाज को नारी, जीवन भर रोती है

पुण्य भले यह मत करना, पर पाप का भागी मत होना
पोछ सको गर ना आंसू, पर उसका भागीदार न होना

प्रकाश की धरा पर

सूख रही डाली प्रकाश की धरा पर
पनप रही हरियाली अंधेरों के द्वार से

चली थी लेकर प्रण आजीवन रोग मुक्ति का
मरी मौमिता नर पिशाचों के अत्याचार से

कोलकाता, दिल्ली हो या शहर कहीं का भी
हर बेटी आहत होती हरदम होते व्यभिचार से

करना होगा न्याय , समाज के हर परिवार से
उस घर की भी होगी पीड़ित नजरों के वार से

हरकोई उत्तरदायी, घेरे मे क्यों हो शासन ही
अनदेखी करनेवाले कैसे बरी हैं गुनहगार से

चेतोगे कब जब घर में ही हाहाकार मचेगा
हर नारी कह रही, डूबमरो पुरुषों शर्मशार से

किस पर लिखूँ

कहा गया है की अपने सबसे करीब पर लिखूँ
लिखूँ किसपर ,व्यक्ति या नसीब पर लिखूँ

रिश्ते तो रहे हैं पहचान भर के लिए हि नाते
तब किसी गैर को अपना कहकर कैसे लिखूँ

इंसानों को तो बांट दिया है धर्म के ठेकेदारों ने
बर्बरता की सोच को कैसे की मानवता लिखूँ

बहन बेटियों पर हो नज़र अश्लीलता की
वह समाज है पढ़ा लिखा यह भी मैं कैसे लिखूँ

निकलना मुश्किलि हो बच्चों की माँ को भी
तो उस समाज मे सुरक्षित हैं बेटियां कैसे लिखूँ

रह गई हों बातें ही जहाँ कहने को अच्छी सी
झूठी नसीहतों के बीच किसे मैं समझदार लिखूँ

जीवन का सत्य

धन दौलत सब नश्वर है, जीवन जैसे
शेष न बचता कुछ जलकर राख के जैसे
छोड़ यहीं पर जाना है कर्मों को अपने
केचुल् छोड़ के बढ़ जाता है नाग भी जैसे

होकर भी सब तेरा,तेरा कुछ ना हो पायेगा
रिश्ते नाते छोड़ धरा पर हि, तन्हा तु जायेगा
चार दिनों के आँसुं हि तेरी कुल कीमत होगी
बादे इसके तु केवल यादों में हि रह जायेगा

कर्मों का परिणाम हि केवल तेरा अपना होगा
अपना अपना कहना तेरा, सब सपना होगा
सोच समझकर जीने मे हि जीवन का दर्शन है
सत्य कर्म के पथ से हि मिलता जग का वंदन है

रहा न कोई शेष धरा पर,कितना हि हो रुस्तम
राजा हो या रंक, कर्मों से हि अपने हुए खतम
रह गये मिलकर मिट्टी में, राजमहल सारे
नियमों के बंधन मे हि बंधे यहाँ लोग हैं सारे

मिलजुलकर हंसी खुशी से हि सबको रहना है
रहना प्रेम परस्पर से हि हर मानव का गहना है
स्वर्ग नर्क सभी का है सार तुम्हारे हि हाथों में
पूजा हो या हो दुत्कार, सब सत्य तुम्हारे हाथों में

सच्चाई की तलाश

बरसते इन बादलों के बीच
तलाश है स्वाति के एक बूँद की
दुनिया के इस भरे बाजार में
तलाश है खुद के अस्तित्व की

देखे हैं हर तरह के लोग हमने
तलाश है उनमे एक इंसान की
सुनता हूँ भगवान् हैं सभी के भीतर
तलाश है उनमे से एक भगवान् की

रिश्ते हि बचाते हैं व्यक्ति की डूबती नाव को
तलाश रिश्तों मे उस एक रिश्ते की
बिकता नहीं स्वाभिमान स्वाभिमानी का
तलाश है उस एक स्वाभिमानी का

धर्म हि बुनियाद है जीवन के कला की
तलाश है उस एक बुनियाद की
सुन ली जाती हैं हर पुकार उस दरबार मे
तलाश है इंसानियत के उस पुकार की

रही तलाश ताउम्र हर एक अच्छाई की
तलाश है अब खुद के भीतर के एक अच्छाई की
गुजर गई उम्र जमाने की सच्चाई को तलाशते
तलाश ही न पाया मगर खुद के भीतर की सच्चाई को

भूल जा

निकालना होता है अब वक्त उनको
कभी गुजरता नहीं था वक्त उनका
बदलते वक्त की होती है तासीर यही
आज हैं कई, कल कोई न था उनका

बदल जाता है मिजाज मौसम का वक्तपर
हो जाता है व्यस्त हर आदमी हि वक्त पर
भूल जाते हैं पुराने नये के आने से वक्त पर
रह जाती हैं सिर्फ यादें हि, यादों के वक्त पर

रहा नहीं दौर किसी गिले या शिकवे का अब
जरूरतें हि बनाती हैं पहचान रिश्तों का अब
दब जाती हैं भावनाएं भी वक्त के तकाजे मे
बंटता हि जा रहा है आदमी किश्तों में अब

पास रहकर भी बढ़ने लगी हैं अब दूरियाँ
उथले पानी में हि डूबने लगी हैं अब किश्तियाँ
नहायें तो नहाएँ किस किनारे पर जा के हम
डूबी हि जा रही हों जब मतलब मे हस्तियां

कर नेकी और फेंकते चला जा दरिया में उसे
भूल जा कि तुने दिया था कभी साथ उसे
सफर में अपने तुझे ही तनहा चलना होगा
बढ़ा ले कदम मंजिल अपनी और भूल जा उसे

नजरंदाज

जरूरी है कि कुछ बातों को
नजरंदाज हि कर दिया जाय
हर बातों पर सोचते रहना
कल के लिए मुनासिब नहीं होता

कही गई बातें होती हैं निर्भर
तत्कालीन समझ पर
उन्हें उसी वक्त के तराजू पर
तौल लेना समझदारी नहीं होती

लगता है सूरज को भी वक्त ढलने मे
हर पन्ने में कहानी नई बनती है
एक हि रास्ते काफी नहीं होते
मुकाम हि अंतिम लक्ष्य होता है

स्वयं में दिशा का भटकाव न हो
और तो मात्र दर्शक हि होते हैं
जीत गये तो बजती हैं तालियां
हार पर मिलती हैं गालियाँ

समझेगा कोई नहीं आपको
नमन तो दर्ज है प्रभात के नाम
तपकर हि रहना है प्रकाशित
देखेगा नहीं कोई आपके ताप को

प्यार से

रुकिए, थोड़ा फंसे हुए हैं
आज यही जुबान हर इंसान की
व्यर्थ मे हि बीता जा रहा आज भी
तब करोगे कब किस वर्तमान में

रुकेगा नहीं समय आपके लिए
तुम्हे ही सोचना है कल के लिए
निकलिए अपने इस आज से
चलना है तुम्हे लक्ष्य के लिए

रुकावटें तो हिस्सा हैं सफर में
कुछ दी हुयी औरों की ओर से
कुछ आपकी कमियों की वजह से
आओ, देकर धक्का अब जोर से

जरूरी है नर्मी, सख्ती और सुधार
आपसे ही होना है खुद का उद्धार
इस भीड़ में हो रहा केवल व्यापार
इसी से है दुखिया सकल संसार

आते नहीं खास, अलग संसार से
होते हैं तैयार सब इसी बाज़ार से
इन्ही मे से करनी है जीत हासिल
जीत लो दिल सभी का तुम प्यार से

जीवन क्रम

मोती टूट जाय तो फिर बनती नहीं मनका
पड़ जाय गाँठ तो जुड़ता नहीं भाव मन का
बिखरने से पहले ही कोशिश हो जुड़े रहने की
भरोसा क्या है छूट जाय कब साथ तन का

समझेंगी नहीं औलादें कीमत आपकी
आपको हि समझनी होगी कीमत उनकी
फासले की दूरियाँ भुला देती हैं अतीत को
कहानियाँ रह जाती नहीं याद बचपन की

बदलते हुए दौर में बदल जाता है सबकुछ
बदलते नहीं एहसास गुजरे हुए वक्त के साथ
कर लेना चाहिए महसूस कुछ देखकर भी
हर बात की तारीख भी याद दिलाई नहीं जाती

पछतावा कभी किसी बात का हल नहीं होता
प्रायश्चित मे भी समाधान कहाँ मिलता है
करना होता है जो खुद को हि करना होता है
और की उम्मीद से गुलशन कब खिलता है

जो भी हो आप खुद ही स्वयं हो अपने लिए
और का होना तो महज एक मानसिक भ्रम है
खुद के चलते से हि मिलते हैं किनारे गंगा के
जीत हो या हार, यह तो चलते जीवन का क्रम है

कुछ तुम कहो कुछ हम कहें

रखिये न बात दिल के भीतर ही भीतर
बेहतर होगा कि कुछ तुम कहो कुछ हम कहें

कट जायेगा सफर हँसते हँसते जिंदगी का
खोल दो गांठे मन की, न तुम सहो न हम सहें

शिकवे गिले के बीच, उलझे रहेंगे कबतक
घुटन से आओ दूर कुछ तुम रहो कुछ हम रहें

कमियां होंगी तुममे तो कुछ हममें भी होंगी
समझ लेते हैं, दूर कुछ तुम करो कुछ हम करें

देखा है किसने कि कल के हालात कैसे हों
क्यों न मिलके साथ तुम भी चलो हम भी चलें

हो जाना है दूर हि जब, इक रोज इस जहाँ से
क्यों न कुछ के दिल में तुम रहो कुछ के हम रहे

सोच की अपंगता

दिव्यांगता अंग की हो तो
जीवन भंग नहीं होता
अपंगता हो यदि सोच की तो
जीवन में कोई रंग नहीं होता

वेद ,शास्त्र, शिक्षा सभी तो
श्रोत हैं महज जानकारी के
समझ का न हो समावेश तो
जीने का कोई ढंग नहीं होता

कुछ भी सुन लेना, सुना देना तो
होता है प्रभाव किसी और का
व्यवहार हि न हो जीवन में अगर तो
जीवन में कभी वसंत नहीं होता

लोभ से हि बनी संपन्नता है तो
उससे दिली सम्मान नही होता
बिक जाय अगर जमीर हि तो
उसमे कोई स्वाभिमान नहीं होता

मानवता रहित मानव है तो
उस पर किसीको गुमान नहीं होता
सिर्फ एक बोझ है वह धरती पर
असल में वह इंसान नहीं होता

अंजाम

खामोश रहना ही बेहतर होगा
अपने पथ पर हि चलना बेहतर होगा
किसे कहें कि गलत कौन है
खुद को सही रखना हि बेहतर होगा

सोच सभी की है अपनी अपनी
सोच के आधार पर ही समझ भी होगी
आपने भी बदली है कब सोच अपनी
खुद को ही समझ लो तो बेहतर होगा

औलाद ही रहती नहीं वश मे अपने
चाहते हो दुनिया हि आपके वश मे हो
रास्ते सभी के हैं अलग अलग अपने
समझ लो मुकाम को अपने तो बहतर होगा

गैर से लगी उम्मीद का भरोसा क्या
परिणाम के हकदार तो आप खुद होंगे
बदल जाते हैं लोग वक्त के साथ साथ
आप भी समझ लो यही तो बेहतर होगा

हर रास्ते का होता है मुकाम अपना
चयन पर ही आपका भी मुकाम होगा
पहुँचना है आपको अपने अंजाम तक
आज हि परख लो अंजाम को तो बेहतर हो

आत्म्बोध

अनगिनत भाषाओं का ज्ञाता होकर भी
जीवन की भाषा को समझ न पाया
बहुतों को खोज लिया मैने पर
खुद अपने को हि खोज न पाया

नाप लिया दूरी चाँद और ग्रहों तक की
सूरज तक भी पहुँच रहा हूँ
छिपा नही अब ब्रम्हांड भी मुझसे
पर, अंतर्मन तक पहुँच न पाया

विश्व पटल पर शाख हमारी
तोड़े बंधन हर भेद भाव के
सुलझा ली हर उलझी गुत्थी को
बस, मन को हि वश मे ना कर पाया

पाकर भी सब, कुछ पा न सका
होकर भी सब, कुछ हो न सका
अब गर्व करूँ या शर्म करूँ
क्या समझा, जब खुद हि को समझ न पाया

अब कर लूँ पहले, खुद को निर्मल
तब करूँ प्रवाहित जग में निर्मलता
दूषित रहकर कैसे शुद्ध करूँ मैं किसको
कालिख से खुद को हि अबतक बचा न पाया

तु अणु नहीं पूर्ण है

न करिये प्रतिक्षा किसी की
न रखिये विश्वास या उम्मीद
बनिये स्वयं में हि युगद्रिष्टा
बनिये स्वयं ही सबमे खास

करना है आपको हि हर काम
घर, समाज, देश के लिए
सक्षम, निपुण्, कुशल हैं आप
अपने धर्म सभ्यता, संस्कृति के लिए

उठानी हो कलम या लाठी
आप हि हैं भविष्य की काठी
बना लो स्वयं को हि सशक्त इतना
कि बन जाओ खुद ही सबके बैसाखी

अणु नहीं तुम स्वयं में ब्रम्हांड हो
तुम ही हरि हो, शिव हो, रुद्र हो
नर रूप मे है भले जन्म तुम्हारा
किंतु तुम हि ज्वाला तुम ही सब्र हो

मनुज तुम ही आधार हो शृष्टि का
तुम पर हि आश्रित पूर्ण प्रकृति है
समझना न कभी निर्बल स्वयं को
आपके लिए हि निर्मित पूर्ण कृति है

आज से कल

अब समय आ गया है कि
समझे हम अपने अस्तित्व को
करें रक्षा अपने निजता की
निखरें अपने व्यक्तित्व को

स्वयं के लिए हि स्वयं के न होकर
देखना है अपने समाज को भी
बीते को भी करना है आत्मसात
कल के लिए जीना है आज को भी

बाल, युवा, वृद्ध सभी के
हों एकमत एक विचार
समझें जीवन के अर्थ सभी हम
निज हो सभ्यता निज के शिष्टाचार

भारत भूमि बने विश्व श्रेष्ठ
पुन्ह :काल स्वर्णिम का आ जाए
सत्य अहिंसा की धर्म पताका
फिर जग मे फहराये

ना हो कोई भेदभाव
बढे न बैर द्वेष अपनों के बीच
समझें महत्व समय के हम
रहें सभी मिलजुलकर अपनों के बीच

हमराही

मेरी अनजान राहों के हमराही
तुम देना साथ सफर में पूरा
हैं मोड़ कई जीवन पथ पर
होगा तुम बिन हर काम अधूरा

जली ज्योत यह जीवन भर की
दोनों से हि होगा अब उजियारा
हृदय मिलन के इस नंदन वन में
रहे महकता अब घर बार हमारा

पूर्ण समर्पण मेरा है अब तुम पर
साथ हि करना होगा संघर्ष पूर्ण
पर करेंगे हर बाधा हम मिलकर
कर देंगे आधे को भी हम संपूर्ण

मेरे हमराही, हमराज हम सफर
आपके संग हि अब मेरी हर डगर
रहे न मन में संशय किसी के कुछ
होगा जो भी होगा आधा सबकुछ

टूट तारा

सफलता और सम्मान
खरीदे नही जा सकते
खरीदी हुयी वस्तु का मूल्य
कभी भी स्थाई नहीं होती

तौलिये न मुझे बीते हुए कल से
जगा हुआ मैं आज हूँ
कल की खबर है मुझे
अनुभवों के साथ ही मैं पला हूँ

माना कि तारा हूँ टूटा हुआ
राह में हि बिखर नहीं जाऊंगा
दे जाऊंगा कुछ उल्कापिंड की तरह
कर जाऊंगा साबित अस्तित्व अपना

बूंद हूँ, सागर बनूँ न बनूँ
बन जाऊंगा दरिया फिर भी
निकला हूँ घर से ठानकर
बन जाना है श्रोत प्रेरणा का मुझे

चलता नहीं लकीर के साथ
करनी है राह निर्माण खुद की
कोशिश न करो आंकने की मुझे
देख रहा हूँ मैं मुकाम को अपने

आवश्यक

आवश्यक हो गया है कि आज
खुद से हि खुद से लड़ा जाय
पहचान कर निज शत्रुओं को
उन्हे अपने वश मे किया जाय

शिक्षा से मिली जानकारी के भीतर
ज्ञान को भी शामिल किया जाय
बुद्धि और विवेक की तराजू में
भविश्यागत हल को भी तौल लिया जाय

बीज, वर्तमान से हि वृक्ष नहीं होते
अतीत की मिट्टी आज का जल कल की हवा
भी जरूरी हैं फलित होने के लिए
आज के बल पर हि कल सफल नहीं होते

मुश्किल नहीं बाहरी रिपु का दमन
आंतरिक शत्रु का भी अंत होना चाहिए
द्वेष, इर्श्या, छल कपट आदि से भि
हृदय हमारा शुद्ध होना चाहिए

रहे यदि कर मे माल मन में खंजर
तो हरित भूमि भी हो जाती है बंजर
होता नहीं कुछ साथ चलने से हि
सफर में साथ साथ चलना भी चाहिए

गुब्बारे सी जिन्दगी

बन गया है प्यार अब खेल तन का
मन से मन अब मिल कहाँ पाते हैं
कच्ची उम्र का उबलता हुआ इश्क है
जज्बात भी लोग संभाल कहाँ पाते हैं

होने लगी जब से हर अंग की नुमाइश
हो गई है तब से हि हवस की पैदाईश
लगी है होड़ दिखाने की फ़िगर अपनी
थमती हि नहीं अब दिल की ख्वाहिश

बहू बेटी संग संग सब नाच रहे हैं आजकल
कैंडल लाइट के डिनर का चलन बढ़ रहा है
खा रहे सड़क पर खड़े होकर लखपति भी
युवक हो या युवती पतन की सीढ़ी चढ़ रहा है

प्रेम हो गया है मानिंद अब फुले गुब्बारे सा
फूट जाए कब किस हवा के झोंके से क्या पता
रिश्ते चढ़ गये हैं सभी मतलब के तराजू पर
कौन झुक जाये किस तरफ किसको क्या पता

भाग रहे किस ओर परिणाम का पता नही
दिया नहीं साथ किसीने इसमें मेरी खता नही
दिया साथ जब आपने हि नहीं किसी का कभी
निश्चित था गिरना तुम्हारा क्यों तुम्हे पता नही

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें अनगिनत रहीं आपकी
सभी को पाने की ख्वाहिश रही
समझ लेते एक को हि लक्ष्मी यदि
अबतक न होती कोई रंजिश रही

माना कि आम लगते हैं बहुत मीठे
हर डाली मे पर फल कहाँ लगते हैं
मिलने वाले मिल जाते हैं अचानक ही
शहर में ढूँढने से हि कहाँ मिलते हैं

कोशिश मे गाँव वीरान भी आबाद रहे
हर दिल में तेरे चाह की बनी साद रहे
रख जवाँ हौसले बुलंद अपने तू हरदम
एक हि ख्वाहिश मे रहे तु पुर कदम

जा रही छाँव भी अब दोपहर की
लगता नहीं वक्त शाम के ढलने मे
मुकाम तक में थक न जाए तू कहीं
ख्वाहिशों में ढल न जाए शाम कहीं

चुन ले अब राह मंजिल कि कोई
किया इंतजार बहुत अच्छे वक्त का
मिले वक्त को हि कर ले वक्त अच्छा
आज से बेहतर वक्त हि नहीं वक्त का

मोल

अलगाव के रास्ते कई हैं जमाने में
लगाव के रास्ते तो होते हैं एक ही
रिश्ता हो जिस किसी से भी कोई
उसके प्रति भावना हो बस नेक ही

मिलते हैं लोग बिछड़ते हैं लोग
पथ मेहर तरह के मिलते हैं लोग
समझकर हि उनसे बढाइये प्रीत
पल भर में बदल जाने की है रीत

भुला देते हैं एहशान पल भर में
उठा देते हैं दीवारें भी कई ग़जब
कर देते हैं कत्ल हर जज्बात के
लाकर जात, धर्म और मजहब

मानव मानव के बीच का भेद यह
सोच के विकास पर होता है खेद यह
रखे है जो अलग थलग निज हृदय
हो नही सकता वह किसी मे विलय

हर मुलाकात है रूप उस परम तत्व का
निश्छल प्रेम ही है मूल मानव धर्म का
धन, शिक्षा, वैभव या साधन सब सारे
रखते हैं मोल द्वेष मे दो कौड़ी के सारे

दस्तक

कैसे कहें हम दरख़्त उसे
परिंदे भर की जहाँ छाया नही
खड़ा ठूंठ भले राजपथ पर
बचा कौन जिसे भरमाया नहीं

मकान की उचाई तो ईंटों का जोड़ है
उचाई तो दिलों के जोड़ की होती है
कपड़ों की सफाई हो न हो आपके तन पर
दिलों की सफाई मन पर कहाँ हो पाती है

शब्दों की मिठास कभी भी
हृदय की मिठास नहीं बन पाती
भावनाएं हि अटल सत्य हैं
किसी भी हाल में छिप नहीं पाती

दिखावे की मुस्कान मे सब हँसते
पक्के मकान कच्चे रिश्ते
आधुनिकता के दलदल मे खड़े सभी
तिल तिल जा रहे हैं धंसते

अपनों हि अपनों मे कटुता भरी
उठ रही दीवारें शत्रुता बढ़ी
बढ़ रहे खुशी की दौड़ में तनहा
पता हि नही मौत द्वारे खड़ी

चलना होगा

देंगे तुझे यदि साथ कोई
तो होंगे वे तेरे और हि कोई
तुझे तेरे न कोई साथ देंगे
तुझे न कभी वो समझ सकेंगे

होगा कभी संकोच बंधन
कभी होगा आगे स्वाभिमान
कभी तू कुछ कह न सकेगा
कभी अपने तेरे कह न सकेंगे

उलझकर न रहना इनमें कभी
जलेगी न ज्योत उनमें कभी
रास्ता तेरा मंजिल तेरी
होगी उम्मीद खोखली तेरी

चाहेंगे सभी पाना तुझसे
होगा न कभी कुछ तेरे लिए
निः स्वार्थ की बातों में स्वार्थ होगा
वरना वक्त नहीं तेरे लिए

खुद हि तुझे चलना होगा
गिरकर भी संभलना होगा
होगा उदित तेरा भी सूरज
पर, सूरज सा तुझे तपना होगा

रेतीली धूप

किताब से गायब हों पृष्ठ क्रमांक जैसे,
यादें भी गायब हुयीं ज़िंदगी से कम ऐसे।

मिले थे कब क्या बातें हुयी थीं उनसे,
भीड़ मे खो गई है वह हमदम जैसे।

करते क्या तलाश उनकी दिल से हम,
हम खुद ही खो गए खुद से एकदम जैसे।

चले थे औरों के लिए खुद को भुलाकर,
आये ही नहीं औरों की नज़रों में हम जैसे।

मशगूल हैं सभी हिकमत में अपनी,
हम ही फिर रहे, सिरफिरों में जानेमन जैसे।

हर शख़्स देख रहा फ़क़त अपनी अपनी,
रेतीली धूप में नूर सा दिखता है कण जैसे।

कलम पुजारी

हम तो ठहरे कलम पुजारी
लिखते रहना ही है काम हमारा
आपको प्यारी फूल की माला
तुम्हे मुबारक जग सारा

देखी है हमने धरती प्यासी
गगन को तपते देखा है
रही ऐंठती आतों को भी उर में
हमने खुद को भूख मे जलते देखा है

हाथ की माला जपकर हमने
कल की उम्मीद को बाँधा है
अश्क स्वेद सभी को पीकर हमने
तम के भीतर भी लक्ष्य को साधा है

हमे बनावट की सीख न दो
हमसे हि सजावट हुयी तुम्हारी
ऐसे हि कलम उठी नही कर मे
केवल कहने की नहीं अब तैयारी

अब बदलेगा दौर वक्त का
अब होगा नृत्य कर्म का
अब होगी रवि की किरण प्रखर
फहरेगा अब ध्वज सत्य धर्म का

मदद

जताकर मदद की हमदर्दी
ओढ़ा देते हैं कफन एहशान का
ताकि उठकर खड़ा भी हो जाये बंदा
तो सर झुका हि रहे हरदम

रखते हैं दबी जुबान से हाथ पर
खोल देते हैं जबान समाज में
आये हों भले किसी गरज से खुद
मगर गिरा देते हैं उसे आज मे

रहता है किसका उजाला ही
रहता है कौन अंधेरे में ही
बदलता है वक्त सभी का कभी
रहता है फंसा कौन घेरे में ही

खलता नहीं तन की दिव्यांगता
खल जाती है सोच की अपंगता
कर देती है आहत आम जन को
शब्दों में बंधी मिठास की विद्वता

यह समझ लेना उनका
कि समझ नहीं पाता है कोई नही
यही तो है नासमझी उनकी
जिसे कह नहीं पाता कोई

छाँव की तलाश

मैं तो हूँ एक खंडहर की
टूटी हुयी दीवार
मुझमे छाँव तलासोगे कब तक
खुद ही बन जाते क्यों नही मकान
किसी दिन महल कहलाओगे

आज जर्जर भले हूँ खड़ा
तब भी समेटे हूँ कई इतिहास
कह सकता हूँ गर्व से उन्हें
आकर गुजरे हैं जो पास
सुनानी तो होगी तुम्हे भी कल अपनी
होगा जिन्हे तुमपर विश्वास
कहो किये क्या तुमने खास

घूमता हुआ चक्र है काल का
जमीदोज हुयी हस्तियां कई
मरा जमीर अभिमान मे
खो गई भंवर मे किश्तियाँ कई

है वक्त अब भी संभल सकते
धुंध है शाम की रात नहीं आई
खोलकर देख लो बंद आँखें अपनी
पिघलने लगी है परछाई

स्वाभिमान आपका

बिक जाता है जमीर भी बाज़ार में
तब भी हर चीज बिकाऊ नहीं होती
माना कि जरूरतें जरूरी हैं जिंदगी में
मगर हर जरूरतें जरूरी नहीं होतीं

जगमगाती हो रात भले सितारों के साथ
रोशनी तो मिलती है मगर चाँद से ही
किसी प्रभाव के वशिभूत से हुआ अभाव
रखता नहीं वंचित आपको डगमगाने से

आप जो भी, जैसे भी जितने भी हैं आज
पर्याप्त हैं आज के अपने वर्तमान में
क्यों डुबा रहे किसी और कि तुलना में खुद को
तपिश के योग्य तो पहले बनाओ खुद को

स्वाभिमान से बड़ी दौलत क्या होगी
किसी के एहसान से बड़ा अपमान क्या होगा
बिक जाते हैं पुरखे तक आपकी गद्दारी पर
इससे बड़ा बोझ उनपर और क्या होगा

अंजान हैं आप अपनी स्वयं की पूर्णता से
मिलती है राह सदैव आवश्यक्ता से हि
बस, खोलनी होती है गट्ठर अपने समझ की
निजता मे हि दीप्ति है ज्योत आपके भव्यता की

चाहे तो

हम सब एक पथिक हैं जग में
करने आये अपना अपना कर्म
प्रारब्ध अनुसार हि मिला जन्म
करने हेतु हमे केवल सत्कर्म

लख चौरासी का चक्र जगत में
सबमे उत्तम यह तन मानव का
ईश्वर सम हि यह रूप मिला हमे
तज पथ मोक्ष का धरे रूप दानव का

चेत नर समय पर मिले न दुजी बार
सत्य सुलभ का धर हाथ अब चल तू
चाहे क्यों रहना बंधकर अब ले निकल तू
द्वार प्रभु का है खुला संशय न मन पाल तू

राही रह राह पर भटक मत जाना
चंचल मन संग गलत मत करना
अवसर न आता हर बार समझ ले
काया मिली अनमोल माया से बच ले

शृंगार सारथी न होंगे कभी मान ले
त्याग, तप, दया, धर्म को हि जान ले
समय न कर व्यर्थ पल भर तू यही सत्य है
चाहे तो मरकर भी तू अजर अमर नित्य है

कैसे कहें

कैसे करें कि हसरतें बयां नहीं होतीं
कैसे कहें कि चाहतें जंवा नहीं होतीं

भले न मिले कहने को अल्फ़ाज कोई
कैसे कहें कि तमन्नाएं रवां नहीं होतीं

जब से देखी है इन आँखों ने हंसी तेरी
कैसे कहूँ की इन आखों में तू नहीं होती

माना कि माकूल नहीं तेरा मिलना यहाँ
बेबसी के आलम मे सबर भी नही होती

मिलना हो मुमकिन कभी ये दुआ रब से
दिल कि ये हसरत कभी कम नहीं होती

खुश रहे, ये सोच के हंस लेते हैं हम
लमहा नहीं जब पलकें नम नहीं होतीं

पूर्णता का भ्रम

यह सच है कि सम्पूर्णता मे हि पूर्णता है
अपूर्णता मे रिक्तता है
किंतु, बदले हुए इस माहौल में
अपूर्णता मे हि सार्थकता है

आधे जल का घडा भरा लगता है
चालबाज हि खरा लगता है.
गलत का विरोध दुश्मनी होती है
न्याय के आँख पर पट्टी बंधी होती है

जिसकी लाठी भैंस उसकी
मजबूर की कहाँ है चलती
अपूर्णता ने हि पहना है चोला पूर्णता का
कहने भर को है सम्पूर्णता मे हि पूर्णता

अपनी अपनी डफली अपना अपना राग
मतलब मे हि लिपट गया है अनुराग
पता नहीं किस खातिर भाग रहे
मची हुयी है बस भागम भाग

पता नहीं होगा कैसा अंत
समझ रहे सब खुद को हि कंत
रहते समय यदि आई नहीं चेत
होगा केवल जल या फिर रेत हि रेत

फर्क एक का

कुछ लोग कहते हैं क्या बदला है
एक के जीत या हार जाने से
फर्क क्या है किसी के आने या जाने से
चलता आया है यही जमाने से

बेशक, न पड़ा हो वहाँ
पड़ भी सकता है कल परसों
एक के आने से हि बदल गई थी व्यवथा
जरूरी तो नहीं कि लग जायें बरसों

एक होता है प्रतिनिधि क्षेत्र का भले
किंतु करता है प्रतिनिधित्व देश का
एक नेता हि नहीं, मतदाता भी
बदल देता है भाग्य देश का

क्या एक राम के राज्याभिषेक ने
किया नहीं उथल पुथल
क्या एक राम से हि,
लंका रह पायी थी अटल

इसी एक से क्या होता है कि सोच ने
गिरा दिया है कितना सनातन को
एक ने हि किया था संकल्प
देश को दिलाने सर्वोच्च आसन

एक का मूल्य समझना होगा
दोष देना नहीं दोषी मानना भी होगा
एक क्षेत्र, एक व्यक्ति, एक प्रति को.
अपने एक के मूल्य को आंकना होगा

जिंदगी

करते तो हैं सभी इश्क जिंदगी से
पर, समझ नहीं पाते रश्क जिंदगी के
रह जाते हैं कुछ ख्यालों में उलझे हुए
समझ लेते हैं कुछ उसूल जिंदगी के

जिंदगी देन भी है प्रारबद्ध की
एक तोहफा भी है कुदरत का
समझ लो तो एक खेल है जिंदगी
मान लो तो बहुत अनमोल है जिंदगी

जो करते हैं इश्क जिंदगी से
उनके लिए एक वरदान है जिंदगी
है चाहत जिन्हे फ़कत आराम की
उनके लिए शमसान है जिंदगी

महज जीने का हि नाम नहीं जिंदगी
खुद के खातिर हि बनी नहीं जिंदगी
प्रकृति की अनुपम कृति है जिंदगी
हर योनियों मे विशिष्ट है जिंदगी

मुक्ति का द्वार भी है जिंदगी
उद्धार का मार्ग है जिंदगी
समझ लो तो तर जाती है जिंदगी
ना समझे तो जीते जी मर जाती है जिंदगी

दर्पण

सोचता हूँ छोड़ दूँ तुम्हे तुम्हारी हाल पर
मजबूर हूँ दिलसे मगर, जो मानता नहीं

समझ रहे तुम, अपनी ही समझ के दायरे से
चाहूँ कहना दिल की, मगर दिल मानता नहीं

भूल जाना था कल को,पर आज को मत भूलो
चाहूँ जगाना नींद से, मगर दिल मानता नहीं

बदलते दौर का वक्त है, समझ लो इस वक्त को
बता दूँ मोल वक्त का, मगर दिल मानता नहीं

सुनो न धुन बीन की, सपेरों की चाल है ये
बताना चाहूँ छल को, मगर दिल मानता नहीं

आश्रित है कल भी, तुम्हारे आज के हि हाथ में
दिखा तो देता दर्पण, मगर दिल मानता नहीं

हिंदी साहित्य में हिंदू

एक उलझन सी मची है दिल में
साहित्य की तलाश हो या साहित्यकार की
सत्य की हो खोज या सरोकार की

साहित्य को तो पढ़ा जा सकता है खरीदकर
साहित्यकार बिकाऊ नहीं होता
मगर भयभीत समाज में
साहित्य को दर्पण सा बनाना नहीं होता

माना कि देश मे प्रजातंत्र है स्वतंत्रता है अभिव्यक्ति की
तब भी क्या वास्तव में साहित्य भी है
अनगिनत हिंदी साहित्य समूहों में तो नहीं

हिंदुस्तान, हिंदी साहित्यिक समूह
हिंदी लेखन, हिंदू लेखक
हिंदुत्व स्वाभिमानी, हिंदू हित की बात
करे यह हिंदी समूह को बर्दास्त नहीं

वर्जित है धार्मिक चर्चा वर्जित है मानसिक
अन्याय की, प्रलोभन की, शोषण की
छूट है , प्रेम , प्यार, मौसम, दिन विशेष की
छूट है विरह, गर्मी, वर्षा की यही पहचान बनी है साहित्य की

समूहों के संचालक हिंदू
हिंदी साहित्य के लेखक हिंदू
हिंदुत्व की बात करे कैसे जब भयभीत हिंदू
विश्व व्यापी हो बन रहा बिंदु, तब भी
है अजर अमर स्वाभिमानी हिंदू
हिंदू हि बन न पाया कभी हिंदू
आज भी है कौन हिंदू कल भी रहेगा कहाँ हिंदू

अगुआई

अपनों ने हि लगा रखी हैं बंदिशें
सत्य बोलना मना है
प्रसंशा करिये दिल खोलकर
विरोध में बोलना मना है

करिये न बात सनातन की
हिंदू हो भले हिंदू होना मना है
हिंदू हि होने नहीं देंगे हिंदू तुम्हे
धार्मिक जड़ों को सींचना मना है

आप सामाजिक हैं सबके
अपने समाज का होना मना है
करे कोई भले घात प्रतिघात
उसकी पोल खोलना मना है

क्षेत्र है साहित्य का, जो आईना है
आईने मे जागना जगाना मना है
चापलूसी की छूट है पूरी
सार्थक बोलना मना है

शुद्ध लेखन होना चाहिए
चले न कलम अपनों पर
भले कल अपनों का रहे न रहे
स्वाभिमान निजता का रहे न रहे

रेस में दौड़ रहे गदहे कुत्ते सभी
गधों की जीत सुनिश्चित होगी.
नोच लेंगे कुत्ते हि कुत्ते को
कुत्ते के लिए कुत्ते अगुआई मना है.

बिकाऊ समाज.

बदलते हुए दौर का वक्त है
जरा संभलकर पैर रखिये
रास्ते कांक्रिट के बन रहे हैं
जमीनी नमी गायब हो रही है

सूरज हि केवल नहीं तप रहा
सोच के लहू मे भी उबाल है
समझने की फितरत अब नहीं
छोटी सी बात मे भी मचा बवाल है

कल के उजाले की फिक्र नहीं रही
आज की मुट्ठी मे चांदनी चाहिए
देख लेंगे वक्त को वक्त आनेपर
वक्त के लिए भी वक्त होना चाहिए

बिक जाता है जमीर एक कप चाय पर
बिकाऊ समाज में भरोसा किसपर
दिखता नहीं सम्मान के पीछे का छल
किससे करें उम्मीद किस बात पर

भूल जाता है पल भर में एहसान किसी का
रहा नहीं काबिल इंसान भरोसे का आज
हुआ नहीं जो राम की नगरी मे राम का
करें क्या नाज उसपर हम आनेवाले कल का

जीना है तो

हक खड़े हो गये हैं सारे
रेत के टीले पर
करें यकीन किसके अपनेपन पर
हो गये हैं कैद अपने जमीर पर

रही नहीं बात कुछ कहने की
सुनने को तैयार नहीं कोई
सबकी अपनी मानसिकता है
लगाव को समझता नहीं कोई

भावनाएं बन गई हैं बुलबुले सी
फूट जाती हैं जरा सी विरोध पर
धैर्य खो गया है अहम मे
सहशीलता रुक गई है अवरोधक पर

बर्दास्त का खून खौलता हुआ है
स्वाभिमान खड़ा लाठी लिए
लिहाज की नौका डूब चुकी है
आदर आ गया है कागज का फूल लिए

चाहते हो बची रहे पत पानी
तो रहो खामोशी के साथ तुम
ओझल है कल सबकी आँखों से यहाँ
जीना है तो जी लो बस आज के संग तुम

केवल

यूँ तो कट हि जाता है वक्त
बीत हि जाती है उम्र
बने हि रहते हैं गिले शिकवे
हाथ रह जाता है केवल सब्र

हर किसी की यही हकीकत है
खुद की बनाई फजीहत है
छिपी है तमाम मैल दिल में
सिर्फ होठों पर नसीहत है

ईमान पर यकीन नहीं
ज़मीर नहीं जमीन नहीं
हवाई महलों के ख़्वाब हैं
पूछो तो बेमिसाल जवाब हैं

दिखती हैं गलतियाँ औरों की
होती हैं बातें गैरों की
फरिश्तों के खानदानी हैं सब
हैरत मे हैं आज रब

जाने क्या हश्र होगा
जाने कब फख्र होगा
वक्त पर हि वक्त की कद्र है
फिर तो केवल कब्र होगा

अक्सर

यह सच है कि आप ईमानदार हैं
रखते नहीं कर्ज का बोझ किसी का
पर, चुका पाएंगे क्या कर्ज एहसान का
समय पर मिले उस वक्त के साथ का

होंगे रहे तब भी हमदर्द कई आपके
हो गये होंगे व्यस्त आपकी जरूरत पर
बढ़कर थाम लिया जिसने तब हाथ आपका
वही कर्ज है आप पर मानवता के धर्म का

चलते नहीं गणित के सिद्धांत हर जगह
लेन देन तो होता है चुकता केवल बहीखाते मे
मानवता हि बांधे रखती है प्रेम के बंधन में
करता है सिद्ध यही, आप अकेले नहीं रास्ते में

देना होगा तुम्हे भी साथ और का इसी तरह
दिया किसी ने तुम्हे तुम्हारे वक्त मे जिस तरह
यही तो है व्यवहार जगत का अनमोल
हल्के हैं इसके आगे दुनियाँ के सारे तोल

बदलते वक्त के साथ बदल जाती है हर बात
सदा एक जैसे रहते नहीं दिन हो या हो रात
समय की सीख से लें कुछ सीख तो बेहतर है
लौटकर आता है फिर वक्त, होता यही असर है

नशा तलब

नशा हर चीज मे होता है
तलब हर चीज की होती है
जीवन खुद भी एक नशा है
जीने की भी तलब होती है

नशा गांजा, भांग, तांबखु हि नहीं
नशा बियर, व्हिस्कि, दारू हि नहीं
नशा तो किसी के इश्क में भी होता है
तलब तो किसी को पा लेने की भी होती है

सुरापान मे हि नशा नहीं होता
धूम्रपान की हि तलब नहीं होती
बात कर लेने का भी नशा होता है
नज़र भर देख लेने की भी तलब होती है

जिंदा रहने को चाहिए भोजन
भोजन का भि नशा होता है
नींद को भी एक नशा हि तो कहेंगे
भटकते रहने की भि तलब होती है

चाहत का नशा भि बहुत बुरा होता है
ज्यादती हो किसी की भी बुरी होती है
धन, सम्मान नाम, घर सब नशा हि तो है
रह न पाएं बिना उसके यही बस तलब होती है

बड़प्पन

टूट जाता है दिल जब बातों से
बहती नहीं तब वो प्रेम की धारा
रिश्ते तो रह जाते हैं कायम मगर
मिट सा जाता है लगाव सारा

हो जाती हैं खामोश उमंग की तरंगे
रुक सी जाती है बढ़ने की हलचल
भरे रहते हैं जल जैसे निर्झर के
किंतु थम सी जाती है कल कल

तमाम कोशिशों के बावजूद भी
ताली एक हाथ से बजती हि नहीं
गाड़ी हो महंगी चाहे जितनी
भाव के इंजिन बिना चलती हि नहीं

बातों से हि रिश्ते कहाँ चलते हैं
उन्हें समझ लेना भी जरूरी होता है
स्वयं के कुछ कहने से पहले
उन्हें सुन लेना भी जरूरी होता है

पूर्णता नहीं किसी मे
जानकर भी कम नहीं किसी से कोई
ये कैसी भूख बड़प्पन की
किसी से झुकता नही कोई

कहाँ गये वो दिन

जब, पढ़ी जाती थिं ऋचायें, वेद पुराण
देते थे सुनाई महाभारत, रामायण
कहाँ गए दादा दादी, और नानी की कहानी
बैठे चौपाल, बूढों मे भी रहती थी जवानी

भाई भतीजे, नात हित, सब रिस्तेदारी
था अपनापन, करते दूजे की रखवारी
प्रेम था लगाव था अपनापन था
थे वो हंसी खुशी के दिन, कहाँ गए वो दिन

हुए वो दिन दुर्लभ, मिटे भाव मन के
जमी मैल मन में, बिखर गये मन के मनके
बोली, भाषा बदल गई, उतर रहे कपड़े तन के
कहाँ गये वो दिन, कहाँ गये!!!!?

खुश हूँ

पहुँचे नहीं हैं यहाँतक
सिर्फ क ख ग घ पढ़ते हुए हि
गिर गए हैं सिर के बाल आधे
इस दुनियाँ को पढ़ते हुए हि

सच है कि कर नहीं पाए फतह
ख्वाहिश थी जिस किले की
इतना तो नाम होगा हि कि
हो गया शहीद लड़ते लड़ते

हो उनकी हि ताजपोशी
चाहत हो जिनको राजपद की
हम तो ठहरे सिपाही जंग के
औकात हमारी छोटे कद की

सेवक हैं वतन के अपने
कर्म हि हमारी पूजा है
बसता है देश हृदय में हमारे
और नहीं कोई दुजा है

स्वेद भी बहाये कलम भी उठी है
वक्त को देखकर हि नींद भी लगी है
पहुँचे हैं सफर के करीब अब
खुश भी हूं कि सांसें भी कम हि बची हैं

भेद

वेदों का अनुकरण करें या न करें
सिद्धांतों का अनुसरण जरूर हो
ज्ञान हो न हो भले व्याकरण का
जीवन का समीकरण जरूर हो

जरूरी नहीं समाज का चिंतन हो
निजता का चिंतन बेहद जरूरी है
सपनों की उड़ान हो चाहे जितनी
उड़ने की हर हद्द मगर जरूरी है

शंकाओं का निराकरण चाहिये
समश्याओं का समाधान जरूरी है
नाप लें चाहे जिस पर्वत की उचाई
आकाश पर भी नज़र का जरूरी है

आज हि आज मे भले जी लें आप
मगर मरकर भी जिंदा रहना जरूरी है
आना जाना तो कर सकते हैं सभी
सदा के लिए दिलों बस जाना जरूरी है

नाम मे हि तो रहती है जान आपकी
काम से हि तो होती है पहचान आपकी
कुछ तो होगा फर्क नर और पशु जीवन में
इसी भेद मे छिपी है सार्थकता आपकी

जरूरी है

महज तदबीर हि काफी नहीं
तकदीर का होना भि जरूरी है
कोई माने या न माने बात को
खुद की रहमत होना भि जरूरी है

मंजिल तक पहुँचने की खातिर
सही दिशा का होना भि जरूरी है
थक जाएं कदम भले चलते चलते
मगर संकल्प का होना भि जरूरी है

मिलते हैं मोड भि अनगिनत राहों में
समझने के लिए विश्राम भि जरूरी है
विकल्प भि होते हैं सहायक कई बार
जटिलता मे कुछ पर्याय भि जरूरी है

सोच हि काफी नहीं सफलता के लिए
मन की दृढ़ता का भि होना जरूरी है
मिलते हैं लोग तो राह मे हर तरह के हि
मगर खुद पर विश्वास का होना भी जरूरी है

होते नहीं एक से हर वक्त के मौसम यहाँ
मौसम को देख बदलना भि जरूरी है
जल्दबाजी मे निकलता नहीं सूरज कभी
वक्त के होने तक ठहरना भी जरूरी है

प्रभावी

हावी होना चाहता है हर आदमी
प्रभावी बने बिना ही
संभव होगा कैसे यह भला
निज करतब के बिना ही

सुंदरता दिखाने में नहीं
बल्कि सुंदर होने मे है
ख्यालों की मिठास से
समंदर का जल मीठा नहीं होता

किताबों में लिखे ज्ञान को
चाटे जा रहे हैं दीमक
और तुम कह रहे हो
अच्छी किताबें मिलती कहाँ हैं!

रंगीन चश्मे से
कुछ भी रंगीन नहीं होता
नंगी आँखों से देखो तो जरा
घर के बर्तन खाली खनक रहे हैं

चलना तो होगा जमीन पर हि
पहाडों पर अनाज नहीं होता
कल के पाले हुए ख्वाब से कभी
किसीका सफल आज नहीं होता

धरातल

रहती हैं स्वागत मे व्याकुल आपके
सफलताएं और संभावनाएं
रास्तो को रहता है इंतजार कदमों का
जरूरी है की आप समझ पाएँ

होती है दूरी तय कदमों से चलकर
मिलते हैं मुकाम लगन से
समय होता नहीं विशेष के लिए
विशेष खुद को हि बनाना होता है

जमीन मे गिरकर हि बीज
छूता है गगन की उचाई
बूँद गिरकर हि बनती है गंगाजल
गिरने में भी विनम्रता जरूरी है

बुनियादी धरातल हो ठोस
तो मकान की उम्र लंबी होगी
हवाओं का भी जरूरी है आना जाना
तालमेल भी बनाये रहना चाहिए

अकड़ कर देती है दो भागों में
लचीलापन हो जाता है खड़ा फिर से
एक आप हि आदमी नहीं काम के
रहती है काबिलियत और के भीतर भी

मसले

घरौंदे के टूट जाने से
दरख़्त टूटा नहीं करते
एक रूठ जाने से
परिवार छूटा नहीं करते
बदलये रहतें हैं हालात समस्याओं के भी
समस्याओं से दिल कभी
छोटा नहीं करते

अंधी के आ जाने पर
बैठ जाना हि उचित है
अपनी सामर्थ्य की परख
खुद को हि करनी होती है
और के कहने पर
शेर से लड़ा नहीं जाता

मुश्किल नहीं होता काम कोई
तब भी
हर काम हर आदमी नहीं कर सकता
हर आदमी हि तैराक हो अगर
तो नाव की जरूरत ही क्या है

जरूरी है रिश्तों की डोर मे
बांधे रखना खुद को
उतार चढ़ाव स्थिति का हो या समझ का
सुलझाने से सुलझ जाते हैं
हर मसले
फिर वो परिवार के हों या जिंदगी के

विफलता

कंचन हो या चंदन
जरुरी है तपना या घिसना
गेहूं को सार्थक होने के लिए
जरूरी है जाँत मे पिसना

मान लो यदि रात को क़ाली
तो रहता है अंधेरा भी रातभर
रहता है सवेरा आँखों में जिनकी
वे हि चल पाते हैं भोर भर

तन अपंग हो तो हो भले
सोच की अपंगता नहीं चाहिए
सफलता मिले या न मिले
धैर्य की विफलता नहीं चाहिए

न हो खून रिश्तों का कभी
न हो आलम मतलबी
अपनों के साथ ही बढें कदम
न हो स्वार्थ की तिशनगी

मौसम की तरह है वक्त भी
ये आता है लौटकर भी
हार की उम्मीद से हो संघर्ष तो
हार जाता है आदमी जीतकर भी

खुद से वादा

गम तो बहुत हैं जिंदगी में
झाड़ झन्खाड से भरी हैं राहें
निकलना है इन्ही मे से तुम्हें
मिलेंगी आगे खुली बाहें

जाल भी अपनों की होगी
बात भी सपनों की होगी
चलना होगा आपको हि
तय करना होगा आपको हि

आकाश भले उपर होगा
पर्वत तो कदमों के तले हि होगा
देखोगे जब नभ की उचाई
तब पर्वत कुछ नहीं होगा

लघुता मे हि श्रेष्ठता है
अपूर्णता से हि पूर्णता है
कर्म से पहले की निराशा हि
समझ की संकीर्णता है

संकल्प से हि सफलता आधी
पहले कदम मे हि तय आधा
लौटना नहीं अब कर्म पथ से
कर लो यही खुद से वादा

सर्वथा

काश ! वो आ गया होता
वह काम बन गया होता
मैं पहुंच गया होता
ऐसे ही न जाने कितने काश!
आते रहते हैं जिंदगी में
जो कभी समाधान नहीं बनते

जाने दीजिए उन्हें
जो गुजर गया वह बीत गया
अमावस की रात मानकर
पूनम की ओर बढिये
एक-एक घड़ी बढ़ेगा उजाला
और आपकी रात भी पूरी चांदनी की होगी

उम्मीद ,भरोसा, गलतफहमी,
इंतजार ,अवसर
ये सारे निरर्थक शब्द है
आ गए तो नसीब अपने
नहीं तो भटकाव के रास्ते हैं

जो भी होगा हासिल
खुद के बलबूते ही होगा
रास्ता कभी नहीं चलता
पथिक के चलने से ही
भगत है दृश्य पीछे और हम
बढ़ते हैं आगे अपने मुकाम तक
सर्वथा यही सत्य और सार्थक भी है

प्रकृति

प्रकृति की छाया तले
होता अनुपम एहसास है
अकेले की तन्हाई में भी
लगता सब आस पास है

नदिया बहती कल कल
झरनों का शीतल जल
छूते नभ को गिरी देखो
होते मन को विवह्ल् देखो

झर झर पवन गीत सुनाते
हर पल्लव ज्यों संगीत बजाते
दूर दूर तक हो फैली आभा
समय साँझ की या हो प्रभा

बसता जीवन प्रकृति की गोद
मधुर मिलन आमोद प्रमोद
नारी जैसी क्या है प्रकृति की
अनमोल धरा पर माया प्रभु की

प्रकृति सुखद प्रकृति हि प्राण
वसुधा से अम्बर प्रकृति जान
सौ सौ बार नमन इस प्रकृति को
प्रकृति हि जीवन का अभिमान

आजमाइश

संभव, प्रोत्साहन, प्रेरणा
मे छिपे अनमोल भावों की
व्याख्या सरल नहीं
किसी शब्द से तुलना नहीं

आजमाकर देखिये कभी
साथ, समय, आर्थिक भले न दे सकें
इन्हे देकर देखिये कभी
प्रतिफल की कल्पना भी नहीं होगी

डूबते को मिले तिनके का मूल्य
बचा व्यक्ति चुका नहीं सकता
तिनका भी कईयों का बन जाता है प्राण दाता
अनुभव लेकर देखिये कभी

प्रेरणा के श्रोत हैं आप
व्यक्ति मे सर्वश्रेष्ठ हैं आप
खुद को भी पहचान कर तो देखिये
मानव बनकर तो देखिये कभी

भूलिए दुखद अतीत को
देखिये वर्तमान से भविष्य को
रात के संघर्ष से निकलकर
देखिये आते सूर्य को कभी

नदी से बूंद

शाखाओं से मिलकर हि
तना भी कहलाता है दरख़्त
अलग होकर तो दोनों हि
केवल ठूंठ कहे जाते हैं

कर लेते हैं इस्तेमाल लोग उसे
अपनी चाहत के जरिये मे
खूबी पेड़ की देती नहीं फल अब
ढल जाती है और की पसंद मे

घर से रिश्ते हों कमजोर
तो पड़ोसी बन जाते हैं अपने
दिखती नहीं जाल दानों के ऊपर
ऐसे में आप शिकार बन जाते हैं

सूरज रोशनी हि नहीं देता
देता है जीवन का दान भी
झुलसा दे बदन को भले
देता है कर्म का सम्मान भी

सागर की और बढ़ती नदी
बँटकर धाराओं में नाला बन जाती है
जुड़ी रही तो सागर कहलाती है
टुकड़ो मे हुयी तो बूंद बन जाती है

चाहत

मिलती नही चाहत कभी
चाहत को जाहिर किये बिना
माना कि मुमकिन नहीं मिलना उसका
पर व्यर्थ है जीना ख्वाहिशों के बिना

प्रेम होती नहीं बाजी जीत हार की
पाने की जगह हि नही इसमे.
बस होता है मिलन भावनाओं का.
तन नही मन के लगाव का नाम प्रेम है

खोजिये साथी कोई अपना
कह सको जिससे बात दिल की
घुटन तो मर्ज है एक जानलेवा
जीने भि नही देती मरने भि नहीं देती

अपाहिज न बनो सोच की अपने
रहे याद मंजिल भी अपनी
बाँट भी लो खुशियाँ प्यार की
सीमा भी बंधी रहे अपनी

हर हृदय कलुषित नही होता
हर निग़ाह दूषित नही होती
होता है निर्भर स्वयं की समझ पर
माना कि हर नदी गंगा नही होती

कोई बिरला तुमसा

मन की बातें रखना मन मे
शब्द न देना तुम उसको
समझ सके ना कोई दर्द हृदय का
समझ रहे तुम अपना किसको

एक अकेले तुम हि नहीं
सबके मन की पीड़ा अपनी
हो सकता है कोई भेद अलग
पर व्यथा सभी की है अपनी

देख रहा आकाश तुम्हें
तुम देख रहे क्यों धरती को
छूना है जाकर गगन तुम्हे
तुम बांध रहे क्यों कथनी को

कोई बात नहीं, कोई एक नहीं
सारा संसार तुम्हारी मंजिल है
कहना उसका उसके साथ रहे
साथ तुम्हारे कर्म तुम्हारा साहिल है

सौरभ सी है महक तुम्हारी
होगा कोई बिरला हि तुमसा
आँखें लाखों लगी हैं तुम पर
तुम देख रहे अब मुह किसका

श्रेष्ठता मे

आपका सहयोग वंदनीय है
किंतु, एक हि डोर पर्याप्त नहीं
जरूरतों को समेट पाने मे
एक हि रास्ता घर तक नही पहुँचता

मंजिल की पहुँच तक के लिए
रास्ते अन्य भी जरूरी हैं.
एक ही फुल की सुगंध से
बाग महका नहीं करते

किसी पर भी आपका
एकाधिकार नहीं, उसपर
विशेषाधिकार का होनाजरूरी है
नीव का पहला पत्थर हि अनमोल है

सोच मे विस्तार चाहिए
लगाव मे सहयोग चाहिए
साथ मे हि चलने की बाध्यता
निजी स्वार्थ कहलाती हैं

सागर को नदियों का जल चाहिते
मेघों सभी जल का श्रोत चाहिए
उड़ने को आकाश चाहिए
श्रेष्ठता मे देने को आशीर्वाद चाहिए

सगा

इस जमाने मे हुआ कौन किसका सगा है
हर किसी ने हि हर किसी को ठगा है

बहन भाई बाप माँ सभी का निजी स्वार्थ है
बनेगी बात कैसे, इसी ख्याल मे रतजगा है

रिश्ते प्रभु से भी रखे हैं मतलब के वास्ते.
करने को हल मसले, कोई दर दर भगा है

बोल मे घुली मिश्री, सोच मे नीम का रस मिला
गिराकर हि बढ़ने की होड़ मे, सारा जग लगा है

आज हि आज की है, सभी को पड़ी यहाँ
आज के खातिर ही, सभी ने सभी को ठगा है

आज का भरोसा क्या जो खड़ा अतीत के द्वार पर
देगा जो साथ अपना, वही तो कल का सगा है

वक्त

वक्त को मत तौलौ किसी के वक्त से
वह तुम्हे भी तौल लेगा तुम्हारे वक्त से.
रखता है ख्याल हर किसी के वक्त का
तौल लेगा तुम्हे भी तुम्हारे आज के वक्त से

वक्त सगा भी नहीं हमदर्द भी नहीं
वफा भी नहीं कोई बेवफाई भी नहीं
कर देता है दूध का दूध पानी का पानी
दरबार में उसके चलती सफाई नही

अमावस पूनम जैसे गतिक्रम् उसका
देता फल सबको देख कर श्रम उसका
चलता नहीं पक्षपात या दबदबा उसपर
स्वत्तंत्र प्रणाली से संचालित क्रम उसका

कर्म ही मूल है आपके निर्मित भाग्य का
धर्म युक्त कर्म ही मूल धर्म मानवता का
संयम, साहस, और व्यवहार कुशलता
करता जन्म सार्थक, हो पास विनम्रता

चला समझकर जिसने चाल वक्त की
वक्त ने भी रखा हरदम खुश हाल उसको
बदलता है रुख अपना वक्त अपने वक्तपर
संभला वही वक्त पर माना जिसने वक्त को

वास्तविकता

अपने ही साथ दें, यह जरूरी नहीं
गैर भी होते हैं बेहतर अपनों से
आपकी संगत का दर्जा ही
करता है निर्णय परिणाम का

रंग तो बाग के हर फुल मे हि है
खुशबु मगर किसी मे
दिखावे की चमक से कभी भी
घर रोशन नहीं होता

आपका व्यवहार और योग्यता ही
तय करती है गुणवत्ता आपकी
आपका वर्तमान ही
गढ़ता है आपके भविष्य को

गलत कोई नहीं होता
उसके सही गलत को बढ़ावा हम देते हैं
पानी कभी किसी की डुबोता नही
हमे ही तैरना नही आता

विष चंदन को प्रभावित नही करता
आप किससे क्या लेते हैं
और किसे क्या देते हैं
यही आपकी वास्तविक पहचान है

वक्त की बेक़दरी

वक्त टलता नहीं कभी
अपनी छाप छोड़े बिना
समझ लेता है वह हकीकत आपकी
बिन आपके कुछ कहे बिना

करता है आगाह जरूर
बेवफा कभी होता नहीं
बेक़दरी कर देते हैं आप उसकी
वक्त के लिए आप हीरे से कम नहीं

आता है वह समक्ष आपके
कभी व्यक्ति के रूप में
कभी उदाहरण के रूप में
आपको समझना है अर्थ मूल रूप में

प्रतीक ही बनते हैं साथी आपके
विवेक जरूरी है आपमें
चलकर किसी और की दिशा में.
भटक जाती है मंजिल आपकी

कौन जानता है भला
आपसे बेहतर आपको
अपने जिम्मेदार आप खुद हैं
गिरना भी संभलना भी आपको

निश्छल प्रेम

महज शब्दों की मिठास से हि
जायेगी न खटास मन की
मानवता की सोच होगी आत्मसात
तब हि कथा सफल जीवन की

ज्ञान भरा हुआ किताबों में
उपदेश धरा सबकी बातों में
समझना होगा जीवन दर्शन को
करना होगा चिंतन और आत्म मंथन को

ज्ञानी वही ज्ञान जिसका हो व्यवहार में
व्यापारी वही जो रहे व्यापार में
दुनिया है नश्वर सब माया जाल है
तब रहते ही क्यों हो संसार में

रहने का कोई तो प्रयोजन होगा
रहे जो विशेष उनका भी जीबन होगा
क्या समय आपका अलग होगा
या नियम परिणाम का अलग होगा

जुड़ाव की भावना हो प्रबल तुममे
नि:स्वार्थ की लगन हो तुममे
करनी कथनी निश्छल हो तुममे
बढ़ेगा तब ही प्रेम हृदय में

खुद बदलें तब

चाहते हैं यदि स्वच्छ भारत अपना भारत
तो कुछ बदलने से पहले
खुद को हि बदलना होगा
जाकर मतदान केंद्र पर
मतदान करना होगा

हो ली जंग बहुत राजनीतिक दलों की
रिश्वत, चुगलखोर, निठल्लों की
जंग अब व्यक्तिगत होनी है
बदलनी है मानसिकता अपनी
नव सोच विचार करना होगा
जाकर केंद्र पर मतदान करना होगा

होगा छोड़ना भाई भतीजा वाद
छोड़नी होगी जात पात की बात
बिना रुके बिना झुके
निर्णय खुद से लेना होगा
करे जो जनहित में काम
हमे बस उसी को चुनना होगा
जाकर केंद्र पर मतदान करना होगा

यह प्रश्न नही केवल आज का
निर्भर है भविष्य समाज का
हो न जाये कठिन देना उत्तर भविष्य को
निभाना है कर्तव्य स्वयं के लिए स्वयं को
कल के बच्चों का भविष्य बचाना होगा
जाकर केंद्र पर मतदान करना होगा
कुछ बदलने से पहले
खुद को बदलना होगा

मूल धर्म

सरल नहीं है
मानवता के धर्म को
व्यवहारिक जीवन में ला पाना
धर्म के नाम पर
व्यक्तिगत मान्यताएँ हि मान्य हैं

समुदाय हो, संगठन हो, पन्थ हो
सभी की अपनी अपनी
भिन्नता है, विचारों की
जबकि मानव तो सभी एक हैं
तब उनकी सत्यता अलग कैसे
निर्माता अलग कैसे

शृष्टि एक, प्रकृति एक
निर्माण विधि एक
मौसम एक, जल, वायु एक
तब नियंता भिन्न कैसे
इस भेद की व्याख्या अलग अलग कैसे

जाने किस भ्रम में उलझे हुए
सशंकित विश्वास की धारा में
स्वयं गोते खा रहे
कहाँ तक समझा पाएंगे आम जन जीवन की समझ को
क्या हो पायेगा स्थापित कभी
धर्म मानवता का जगत में

जहाँ सनातन नहीं मज हब नहीं
कोई अन्य सत्य की मान्यता नहीं
सिर्फ मानव की मानवता
मानव मे मानव की एकता
और मानव मे मानव की विश्वस्नियता हि मूल हो

मन की मानी

कर लो मन को वश मे, तो जीत पक्की है
समझ लो कच्ची सड़क की गली भी पक्की है

मोड़ के बाद तो मिलती ही हैं खाई और घाटी
ठान लो अगर मन में, तो कामयाबी पक्की है

मन की चंचलता हि, भटकाती है हमें राह से
चलते हैं जो सोच समझकर जीत उनकी पक्की है

हर लुभावनी चीज कर लेती है प्रभावित मन को
लेते हैं काम जो बुद्धि से, इज्जत उनकी पक्की है

मन ने हि बदले हैं इतिहास कई बार अतीत में
लेते नही सीख जो विगत से, हार उनकी पक्की है

मन ने समझा हि नहीं है, परिणाम कभी कल का
चला जो केवल आज देख,मौत उसकी पक्की है

मौका

सारी कलाएँ आपके भीतर
चुन लो कला अपने मन की
कर लो सार्थक जीवन अपना
भरोसा क्या है कल के तन की

आज ही आज है आपके नाम
कौन जाने कल भी हो या न हो
छू लो नभ, नाप लो धरती चाहे
कौन जाने कल ये मौका हो न हो

है प्रयास का मुहूर्त शुभ हरदम
लगन से हि हो लगाव हरदम
जीत होगी संकल्प के साथ ही
यूं तो होती रहेगी दिन रात हरदम

साथ जायेंगे पुराने ,नये आयेंगे
सिलसिला है ये चलता ही रहेगा
करना है सफर तय सोच से अपनी
सही गलत तो जमाना कहता रहेगा

जीत के बाद पहचानते हैं लोग
देखकर ही तुम्हे मानते हैं लोग
बेयकिनी हो गया है जमाना ये
अपने मतलब को हि मानते हैं लोग

नया संकल्प

जो खो गया वह आपका था हि नही
जो चला गया वह आपके लिए था हि नहीं
जो आपका होगा वह आपको मिल हि जायेगा
जो तुम्हे पाना है
उसी के लिए जीना है

मंजिल की दिशा तय करनी होगी
राह खुद की तुम्हे हि धरनी होगी
पहली ईंट का महत्व है मकान में
हर अंधेरे से लड़ना होगा
प्रभात तक चलना होगा

जो टूट जाये वो जुड़ता कहाँ है
जो छूट जाये वो मिलता कहाँ है
अतीत मे हि घूम रहे हो क्यों
अब तो आगे बढ़िये
कुछ तो करिये

कल को छोड़ नये कल से जुड़िये
हो रही नई हलचल से जुड़िये
मिल रहे नये संबल से जुड़िये
नया संकल्प लेना होगाया
तुम्हें चलना होगा

दांव पेच

( Dav Pech )

रह गई इंसानियत जबान पर
दिल मे तो मगर जहर भरा है
चल रहे कदम शराफत की राह
दिल में मगर फितूर हि भरा है

कहने और करने मे फर्क बहुत है
सोचने और दिखावे मे फर्क बहुत है
मिलते तो हैं दौड़कर गले अपना बन
दिल के भीतर मग़र जलन बहुत है

उतावले हैं खीचने को पैर नीचे की ओर
तैयार हैं धकेलने को हर ऊँचाई से
देते हैं सहयोग भी हमदर्दी भी रखते हैं
आस्तीन मे खंजर भी छिपाये रखते हैं

हवाले मे खाते हैं सौगंध भी रिश्तों की
कसम मे भगवान् को भी नही छोड़ते
देते भी हैं दिलाते भी हैं मिशाल औरों की
अपनी हि माँ बहन को भी घसीट लेते हैं

करते हैं जतन में बहुत कुछ मगर फिर भी
बेचारे खुद मे भी सुकून कहाँ ले पाते हैं
गुजर जाती है उम्र सारी दांव पेच चलाते ही
न देते हैं जीने, और न खुद हि जी पाते हैं

पीले पत्ते

( Peele Patte )

अब हम हुए शाख के पत्ते पीले।
रह पाएंगे और कब तक गीले
बस एक हवा के झोंके आना है
थोड़ी देर तू और भी सबर कर ले

दे चुके जो दे सके हम छाया अपनी
हमे भी तो है अपनी राह पकड़नी
हमारे कमियों की खता माफ करना
दुआ है हो बढ़त हमसे दुगनी, चौगुनी

समानता किसी से किसी की नही होती
हर किसी की मंजिल एक सी नहीं होती
करते हैं सभी प्रयास अपनी क्षमता से
सफलता सभी की एक सी नही होती

हम चाहे थे तुम हमसे आगे बढ़ो
तुमने चाहा तुम्हारे तुमसे आगे बढ़ें
दस्तूर यही है सभी के जिन्दगी का
चाहता नही कौन की उचाई ना चढें

इम्तिहान की कसौटी पर है हर कोई
मिलता है वही जो बोता है हर कोई
मिल हमे भी जो कर्म थे हमने किये
मिलेगा तुम्हे भी धर्म से जो तुमने किये

गुलबदन

( Gulbadan ) 

निभा लो आज भले ,रवैया तुम अजनबी
आयेंगे नजर हम भी कभी,यादों के पन्ने मे

आज हैं हमराज कई,आपके सफर मे
तन्हाई के आलम मे ,हमे ही याद कर लेना

जवां चांद की रात मे,सितारे जगमगाते हैं
उतरती चांदनी मे,तारे भी नजर नहीं आते

आज हो गुल बदन गुलजारे गुलशन मे
पतझड़ मे डालियां भी पहचानी नही जाती

उड़ लो ,आकाश की अनंत ऊंचाई मे आज
सिवा जमीन के आशियाना कहीं नहीं होता

हमे तो आदत है ,कर लेंगे बेवफाई भी सहन
आएंगी याद बातें हमारी,जब हम न होंगे

था भी हूं भी

( Tha bhi hoon bhi ) 

मान अपमान की चिंता नही
लोभ नही किसी सम्मान का
अंतिम स्वांस के पहले तक
करूं कर्म धर्म और इंसान का..

खुशियां जमाने की तुम्हे ही मुबारक
तुम्हे ही हर महफिल मे हार मिले
मेरे हर शब्द मे शामिल हो मानवता
फिक्र नही ,मिले जीत या हार मिले..

पहुंच नही पाया हजारों की भीड़ तक
चंद लोग भी लाखों हैं मेरे लिए
तनहा सफर मे ही चलता रहा हूं
करूं क्यों अभिमान मैं किसके लिए..

आया था हांथ खाली,कर्म खातिर
तमन्ना है की धर्म अपना निभा सकूं
जमाने से ही मिला यह जीवन मुझे
काश!इसके खातिर ही काम आ सकूं..

है विश्वास मुझे कर्म पर मेरे
आश्वस्त हूं कर्जदार नही रहा
दे रहा वाह मेरा नही,यहीं का रहा
मैं था भी हूं भी रहूंगा भी,यही मेरा रहा..

कल की सोच

( Kal ki soch )

भले जियो न जियो तुम धर्म के लिए
धर्म के साथ तो तुम्हे जीना ही होगा
अपनाओगे नही यदि तुम सतनातन को
निश्चित ही है की बेमौत तुम्हे मरना होगा

न आयेगी काम ये सारी दौलत तुम्हारी
न मोटर न गाड़ी न कोई ये साधन सारे
आ गई हुकूमत जब किसी गैर की द्वारे
बचाने को जान अपनी भागोगे मारे मारे

कोई कह रहा है सनातन एक रोग है
कोई कह रहा है राम ही काल्पनिक हैं
कोई कह रहा तुम्हे भगवा आतंकवादी
कोई कह रहा मजहब ही वैकल्पिक है

कानों मे तेल अभी आंखों मे मैल है
रहो खामोश,कुछ दिन का ही खेल है
सिखाता नही गलत,सनातन कभी
किंतु कहता जरूर है भूलें न कर्म कभी

बीत जायेगी तुम्हारी,कुछ बच्चों की सोचो
आज है आनंद का,जरा कल की भी सोचो
हम आज हैं ,होंगे जल्द ही अतीत के घेरे मे
पर,तुम न गंवाओ इसे महज सो लेने मे

अटूट बंधन

( Atoot bandhan )

अब तक भी न समझे तुम हमे
हम भी तुम्हे कहां तक समझ पाए
समझ मे ही गुजर गई उम्र सारी
न कुछ तुम, न कुछ हम कह पाए

अलग न तुम हुए, न हम दूर गए
न कह पाने की कशिश मे रह गए
चाहत न कम थी ,किसी की कहीं
लफ्जों मे बयां हम कर नही पाए

समझते रहे तुम,नासमझ हमे सदा
जानकर भी हम ही अनजान बने रहे
तुमसे ही तुम्हारी शिकायत भली लगी
होकर भी अलग,हम एक ही बने रहे

बातें बहुत थीं,शिकायतें भी बहुत थीं
करते भी क्या,हममें मुहब्बत बहुत थी
सहते रहे खामोशी मे रहकर सभी
दिलों मे मिलने की हसरत बहुत थी

अब तो,हर पड़ाव से हम,दूर चले आए
इच्छा नही,भावनाओं का ही आलिंगन है
होंगे कभी तो हम तुम भी ,संग अपने ही
यही तो जगती मे प्रेम का अटूट बंधन है।

सहारा

( Sahara ) 

सहारा भी जरूरी है हर किसी के लिए
उम्मीदें भी वाजिब हैं जिंदगी के लिए

भरोसे पर ही न बैठें पर,भूलकर भी कभी
कदमों मे जान भी जरूरी है चलने के लिए

बड़े ही बेवफा हैं लोग,तसल्ली भी धोखा है
रखते हैं खयालों मे,अपने मतलब के लिए

सहारे की चाहत में,सहारा कहां मिलता है
बना लेते हैं खुद का सहारा,वो अपने लिए

रखना संभलकर कदम,जमीन दलदली है
बिछाकर रखे हैं धोखे,तुम्हे गिराने के लिए

सहारा जो होता ,तो सहारे की जरूरत न थी
बना लेते हैं बेचारा वो,सहारा बनने के लिए

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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