मुक्तक | Muktak
मुक्तक
( Muktak )
1
सच जो लिख न सके वो कलम तोड़ दो,
ये सियासत का अपने भरम तोड़ दो,
इन गुनाहों के तुम भी गुनहगार हो,
यार सत्ता न संभले तो दम तोड दो।।
2
भटक रहा हूँ मैं अपनी तिश्नगी के लिए..
ज़रूरी हो गया तू मेरी जिन्दगी के लिए..
फक़त सूरज ही नहीं है इसका तलबगार
हर इक जुगनू है कीमती रोशनी के लिए।।
3
जिस दिन मेरे विश्वास को फांसी पर लटकाया गया,
उसी रात बेगुनाहों को सूली पर चढ़ाया गया ।
गुनाहगार था नहीं फिर भी सजा सुनाया गया मुझे ,
मेरे जेहनी सुकरात को फिर जहर पिलाया गया।।
4
पानी की तलाश में अब कुआ भटक रहा दरबदर,
प्यासा है अब्र जल लिए केचुआ भटक रहा दरबदर।
जहां की रूह में दफन हो गई है अब इंसानियत
सुकूंन की तलाश में अब इंशा भटक रहा दरबदर।।
5
प्यासे हैं बेजुबा कहने से डरते हैैं हमसे,
तुम इंसान नहीं शिकारी हो कहते हैं हमसे।
सींचो पौधे या रखो छतो पर पानी,
जिंदा रखो इंसानियत बेजुबा कहते हैं हमसे।
6
कोरोना तू डॉक्टरों का धंधा हो गया
गरीबों का तू फांसी का फंदा हो गया
मास्क न लगाना हजारों का जुर्माना है
मगर पुलिस का पांच सौ का चंदा हो गया।
7
कोरोना तू जिंदगी के लिए जंग हो गया
जब से आया तू डॉक्टरों का धंधा हो गया
पूजते हैं लोग तुम्हें धरती का इंशा समझकर
करके कत्ल इंसानियत का अब तू नंगा हो गया
लेखक– धीरेंद्र सिंह नागा
(ग्राम -जवई, पोस्ट-तिल्हापुर, जिला- कौशांबी )
उत्तर प्रदेश : Pin-212218
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