मुसाफिर हैं आदमी: अहं किस बात की ?
मुसाफिर हैं आदमी: अहं किस बात की ?
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न कोई हैसियत अपनी,न स्थायी मकान,
जिंदा हैं जब तलक,तभी तक है पहचान।
ढ़ाई किलो का था,जब तू आया था यहां,
बस उतना ही रह जाओगे,जब जाओगे वहां।
विश्वास न हो तो उठा लाना!
राख के उस ढ़ेर को-
जो चिता की अग्नि में जल कर बच जाती है,
धर्मकांटा पर ले जाकर तौलना-
देखना माप क्या आती है?
ठीक उसी प्रकार-
जब अस्पताल में बच्चा पैदा होते ही-
नर्स उठा लाती है,
कांटा पर चढ़ा, बताती है।
ढ़ाई किलो का है,
स्वस्थ और तगड़ा है।
सभी चैन की सांस लेते हैं,
ख़ुशी ख़ुशी घर लौट आते हैं।
फिर शुरू होती है एक नई जिंदगी,
जद्दोजेहद भरी दुनिया में रहती हैं बढ़ती।
फिर एक उम्र हैं आता,
जब पास आने से हर कोई है कतराता!
मानों न रह गया हो कोई नाता?
फिर एक दिन दीया है बुझ जाता।
और बच जाता है सिर्फ राख!
वही कोई ढ़ाई किलो के आसपास।
यही क्रम चलता रहता है,
मुसाफिर आता है जाता है;
कमाता खाता रिश्ते नाते है बनाता।
फिर एक दिन यहीं सबकुछ छोड़ जाता है,
बचता है तो सिर्फ राख?
उसे भी गंगा में प्रवाहित कर दिया है जाता-
ऐ मुसाफिर !
तू अहं क्यूं है दिखाता ?