Ghazal Mushkil tha Daur | मुश्किल था दौर और सहारे भी चंद थे
मुश्किल था दौर और सहारे भी चंद थे
( Mushkil Tha Daur Aur Sahare Bhi Chand The )
मुश्किल था दौर और सहारे भी चंद थे
मैं फिर भी जीता क्यूं कि इरादे बुलंद थे
राहें निकाली मैंने वहां से कई नयीं
देखा जहां पहुंच के सब रस्ते बंद थे
समझा तमाम उम्र ये वादे निभा के मैं
फिरते हैं जो ज़ुबां से वही अकलमंद थे
आंखें हमारी खुल गईं जिनके फरेबों से
उन सबके हम हमेशा ही अहसानमंद थे
डोला ये मन कभी भी तो टोका ज़मीर ने
अंदर की थी लड़ाई ये खुद ही से द्वंद थे
अर्जुन की तरह हम न चला पाए बाण को
जब मारने को अपने ही सब लामबंद* थे
वो डायरी अजीज़ थी जां से भी ‘ राज ‘ को
ग़ज़लें थीं उसमें फूल थे और थोड़े छंद थे
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कवि व शायर: राजिंदर सिंह ‘ बग्गा ‘
लंदन, ओंटारियो ,
( कैनेडा )
लामबंद :– लड़ने को तैयार , all set to fight