परिन्दे | Parinde par Kavita
परिन्दे!
( Parinde )
परिन्दे ये तारों पे बैठने लगे हैं,
बेचारे ये जड़ से कटने लगे हैं।
काटा है जंगल इंसानों ने जब से,
बिना घोंसले के ये रहने लगे हैं।
तपने लगी है ये धरती हमारी,
कुएँ, तालाब भी सूखने लगे हैं।
उड़ते हैं दिन भर नभ में बेचारे,
अपने मुकद्दर पे बिलखने लगे हैं।
खाने लगे हैं खौफ देखो परिन्दे,
दौैर- ए- जमाने से डरने लगे हैं।
कुदरत बनाई है सुन्दर-सी धरती,
इनके मगर दिन सिसकने लगे हैं।
चलाओ न आरी शाखों पे कोई,
परिन्दों के अरमां लुटने लगे हैं।
पतझड़ को लाके खुशबू न ढूँढों,
हवाओं के दम भी उखड़ने लगे हैं।
प्यासा है सूरज,ये प्यासी है धरती,
औकात अपनी हम खोने लगे हैं।
लहरें विकास की तोड़ी किनारा,
बिना पंख देखो हम उड़ने लगे हैं।