Kavita | पत्रकार हूँ पत्रकार रहने दो
पत्रकार हूँ पत्रकार रहने दो
( Patrakar Hoon Patrakar Rahne Do )
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लिखता हूं
कलम को कलम
कागज़ को काग़ज़
ग़ज़ल को ग़ज़ल
महल को महल
तुम रोकते क्यों हो?
टोकते क्यों हो?
चिढ़ते क्यों हो?
दांत पीसते क्यों हो?
मैं रूक नहीं सकता
झुक नहीं सकता
बिक नहीं सकता
आजाद ख्याल हूं
अपनी आजादी बेच कर-
पिंजरे में रह नहीं सकता।
दो निवाले दो सांसों को
तरस नहीं सकता
श्वान की भांति दुम हिला नहीं सकता
तलवे किसी के घाट नहीं सकता!
असत्य को सत्य दिखा नहीं सकता
हिंसा को छुपा नहीं सकता
मैं पत्रकार हूं।
मुझे कोई आकार पसंद नहीं
मुझे निराकार रहने दो
अक्षरों से प्यार करने दो
इसी में सबकी भलाई है
देश की दुनिया की
इंसान की इंसाफ की
बेजुबानों के आवाज़ की
जनतंत्र के परवाज़ की
इसी से बचेगी देश की अस्मिता
चौथा स्तंभ यूं ही नहीं कह गए राष्ट्र पिता।
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।
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