घूरती निगाहें | Poem ghoorti nigahen
घूरती निगाहें
( Ghoorti nigahen )
सिर पर तलवारों सी लगती हमको घूरती निगाहें
अंगारों से वार सहती रहती अक्सर जीवन राहें
जाने क्यों भृकुटियां तनी नैनो से ज्वाला सी बरसे
झील सी आंखें दिखाती तीर तलवार भाला बरछे
घूरती निगाहों का भी हौसलों से सामना कर लो
बर्बादियों का कहर है बढ़कर मुकाबला कर लो
घूरती निगाहों ने ही कलियों को शिकार बनाया
मर्यादा की हदें पार की महका चमन बिखराया
वहसीपन भरा होता भयावह घूरती निगाहों में
जाने क्या राज छिपाए रखती नजरें इन राहों में
घूरती इन निगाहों का राज जाने वो ऊपर वाला
घूर घूर घूरती रहती जाने अब क्या होने वाला
नजरें क्या खेल दिखाती रोती और हंसती गाती
घूरती निगाहे संसार में शक की सुई को दर्शाती
घूरती निगाहों में भी राज छुपाने की है भावन अदा
अतीत के पन्ने समेटे ढूंढती रहती वो खुद को सदा
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )