Basant poem

पुलक उठा

पुलक उठा


पुलक उठा रितुराज आते ही मन।
नाप रहे धरती के पंछी गगन ।।

पनघट के पंथ क्या वृक्षों की छाँव
धरा पर नहीं हैं दोनों के पाँव
लगा हमें अपना गोकुल सा गाँव
कहा हमें सब ने ही राधा किशन।
पुलक उठा –++++

प्रेम राग गाती हैं अमराइयांँ
उठती हैं श्वासों में अंगड़ाइयांँ
रास रंग करती हैं परछाइयांँ
भीग गया प्रेम की बूंदों से तन
पुलक उठा -+++++

धूप का हो या फिर साँझ का समय
सागर की गोद में मीन का प्रणय
मेघों से छादित सूरज का निलय
ज्वाल और भड़काये सन – सन पवन।।
पुलक उठा —++++

प्रणय पंथ जुगनू हैं उल्लास के
नयनों में काजल हैं मधुमास के
बिछे दिखते बिस्तर हरी घास के
रहे नित्य हम दोनों दिन भर मगन ।।
पुलक उठा -++++—+

बीते है पल – पल ही अनुराग का
सुरभित बदन में है रंग फाग का
मौसम भी साग़र है रस राग का
लिए साथ रहने के हमने वचन।।
पुलक उठा —+++

Vinay

कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003

यह भी पढ़ें:-

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *