बेजुबान की आवाज़

बेजुबान की आवाज़ | Kavita

बेजुबान की आवाज़

( Bezubaan ki awaz )

 

महाकाल तेरे इश्क़ में, चूर हो गया।

ये लिखने पर, मजबूर हो गया।

मैं नहीं था बुरा, मुझे तुमने बनाया है।

इसलिए मैने भी, ये गाना रचाया है।।

समझते क्या है तू, अपने आप को।

मैने भी तेरे जैसों, को सिखाया है।।

मैं महाकाल का लाल हूं…

और तू सोचे, तुझसे सीखने आया हूं।

तो एक बात, मेरी भी सुन…

ना मैं आया था, ना कुछ लाया था।

तूने सोचा कैसे, की तुझसे पाया था।

अबे वो जानता है, की उनसे बचाया था।

भूखा था तब, तूने नहीं खिलाया था।

उसके दिए हुए, पैसों से खाया था।

           तुम्हारी  औकात क्या, मेरे सामने।

           और कहता है, तूने सिखाया था।

                   अबे तो जा, और अपना काम कर।

           मेरी तरह ज़िन्दगी, भोले के नाम कर।

          तू मुझे कहता, पहले जाके कुछ सीख।

          तेरे जैसों को देता मैं, ज्ञान की भीख।

          मेरी कलम में दम है, इस लिए लिख रहा।

          बेटे तू छोटा है अभी, मुझसे आके सीख।

         सोच रहा होगा, यहीं रुक जाऊंगा।

         अबे ये तो, शुरुवात है।

         लौटकर फिर से आऊंगा।

         तेरे कानों पे, चढ़के चिल्लाऊंगा।

         चाहे आग लगे, चाहे सब राख हो।

         मेरा क्या जाता…

         मैं तो इसी वजह से, महाकाल को पाऊंगा।

         तू लड़ता रहेगा, और मैं उसका हो जाऊंगा।

तू रह गया वहीं, और मैं आज और कहीं।

क्यूंकि, खोटा नहीं, काम का हूं।

फोकट नहीं, दाम का हूं।

अब खत्म कर, तेरी – मेरी लड़ाई।

बन्द कर बे, तू अपनी बड़ाई।

होता कौन है तू, मुझे बताने वाला।

पहले जाके अपनी, शकल देख लाला।

तू आंखों वाला अंधा, जिसे दिखता नहीं।

और मैं चमकुं जैसे, सच्चा उजाला।

मेरे बेटे, जाके पहले ज्ञान ले।

फिर करियो बात, कहना मेरा मान ले।

नहीं सुनेगा तो, मैं फिर से सुनाएगा।

आके वापस, तेरे कानों पे चिल्लाएगा।

शोर मै मचाएगा, महाकाल चिल्लाएगा।

चुप था अभी तक, तो समझ रहे थे पागल।

तो अब जीते कैसे, तेरेको मैं दिखाएगा।

समझा क्या मामू…. चल ख़तम कर।।।।

 

 लेखक : निखिल वर्मा

 

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