Shahro ki or

शहरों की ओर | Kavita

शहरों की ओर

( Shahro ki or )

 

 

छोड़ दिया घर बार गांव चल पड़े शहर की ओर
चकाचौंध के पीछे दौड़े भूल गए सुहानी भोर

 

भागदौड़ भरी जिंदगी फुर्सत का कोई नाम नहीं
शहरों का जीवन ऐसा अपनेपन का काम नहीं

 

फैशन के दीवाने होकर लोग चले शहर की ओर
अंधाधुंध भागमभाग होता गाड़ी मोटर का शोर

 

ऊंची शिक्षा ऊंचे सपने जीवन शैली आलीशान
बस दिखावा रह गया शहरों में नहीं बढ़ता मान

 

मीठे बोल अपनापन प्यारा मिलता नहीं शहरों में
अपना उल्लू सीधा करते स्वार्थ झलकता चेहरों से

 

मान और मर्यादा का शहरों में होता ह्रास मिला
गांव में अतिथि सत्कार दया प्रेम विश्वास मिला

 

कुछ धन के पीछे दौड़े सपनों की उड़ान भरने को
कुछ जीविका को आये परिवार का पेट भरने को

 

प्रतिभाये प्रगति करने चल दी शहर की ओर
गांव से पलायन हो रहा नित नई बनाने ठौर

   ?

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

यह भी पढ़ें :-

आज की शाम दोस्तों के नाम | Poem on aaj ki shaam dosto ke naam

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *