टपकती उसके न लब से शबनमी है

आज़म की शायरी | Aazam ki shayari

कब मुझे

कब मुझे ही करार मिलता है
ग़म यहाँ बेशुमार मिलता है

कर लिये फोन भी बहुत उसको
कब मुझे आकर यार मिलता है

सिर्फ़ अब तो भरी हसद दिल में
कब दिलों में ही प्यार मिलता है

कब किसे ही सनम मयस्सर हो
इश्क में इंतिज़ार मिलता है

इश्क़ से ही अमीर होते हम
इश्क़ पर कब उधार मिलता है

बोलता कौन है मुहब्बत से
अब ज़ुबां पे ही खार मिलता है

सिलसिले दुश्मनी के है आज़म
प्यार का कब ख़ुमार मिलता है

खुशबुएँ हो वतन में सदा

प्यार की खुशबुएँ हो वतन में सदा
इस कदर हो महक वो सुमन में सदा

वो झुकेगा अदू भी तुम्हारे आगे
प्यार हो बस वतन का ज़हन में सदा

एकता में न हो नफ़रतों की बातें
प्यार हो बस तुम्हारे चलन में सदा

हादसा साथ कोई किसी की न हो
व़क्त गुज़रे सभी का अमन में सदा

उम्रभर देश की शान जिससे बढ़े
प्यार के गुल खिले वो चमन में सदा

सैनिकों मात दो दुश्मनों को ऐसी
हो अमन हर सुब्ह की किरन में सदा

रोज़ रब से करें है आज़म ये दुआ
की लहराए तिरंगा गगन में सदा

टपकती उसके न लब से शबनमी है

टपकती उसके न लब से शबनमी है
प्यार की उसमें नहीं वो ताज़गी है

दोस्ती थी जिससे ही गहरी ये मेरी
अब उसी से ही हुई ये दुश्मनी है

कुछ कहा भी तो नहीं उससे ग़लत
ये कैसी उसको भला नाराज़गी है

क्या हंसी होगी लबों पे देख मेरे
रोज़ आंखों में ग़मों की ही नमी है

पास में वरना सभी मेरे यहाँ तो
जिंदगी में बस उसी की इक कमी है

कर दिया इंकार करके प्यार जख्मी
इस क़दर जिससे हुई ये आशिक़ी है

हम सफ़र अपना नहीं आज़म बना वो
आरजू जिसकी मुहब्बत की रही है

शायर: आज़म नैय्यर

(सहारनपुर )

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