यह विचारणीय विषय है | Vicharniy vishay kavita
यह विचारणीय विषय है
( Yah vicharniy vishay hai )
आज-कल के दौर में कोई घर-घर नहीं लगतें है,
मक़ान तों है बड़े-बड़े पर इन्सान नहीं दिखते है।
होतें पहले कच्चे-मकान पर रिश्ते पक्के होते थें,
अपनें आपको आज सभी होशियार समझते है।।
पहले का ज़माना और था आज ज़माना और है,
केवल बोलचाल की भाषा से टूट रहीं यें डोर है।
चेहरे पर उदासियों की धूल है व श्वास भी बैचेन,
भाई भाई में बैर है आज चारों तरफ़ा यें शोर है।।
संस्कृति को आज-कल सब ताक में रख दिऍं है,
विश्व गुरु बनने के लिए मोबाइलों में लगें हुऍं हैं।
अपनों से दूरियाॅं परायों से नजदीकियाॅं बना रहें,
नयें दौर के आईनो में वें पुराने चेहरे भूल गऍं है।।
जहाॅं पर आदर नहीं होता वहाॅं पर जाना नहीं है,
जो सुनता नहीं है ऐसों को समझना भी नहीं है।
जो हज़म नहीं होता है वह कभी खाना भी नहीं,
जो सत्य बात पर रूठ जाऍं उसे मनाना नहीं है।।
यह विचारणीय विषय है पहले वालें दिन नहीं है,
सद्गुणों को भूल रहें है प्याज़ की भी कद्र नहीं है।
ज़िगर का टुकड़ा सौंप देने से भी दहेज़ माॅंगते है,
बेशर्म ज़िद्द पर अड़े रहतें यह बात सही नहीं है।।
हिन्दी साहित्य एवं साहित्यकारों को समर्पित द साहित्य मंच एवं पदाधिकारियों को सादर प्रणाम करता हूं जिन्होंने हमें इतना अच्छा मंच बनाकर दिया जिसमें प्रकाशित रचनाएं देश-विदेश तक पहुंचा
कर हमारी रचनाओ को पहचान दिलाई।