ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र की ग़ज़लें | Zafaruddin Zafar Poetry
चौड़ी जो हुई सड़क मेरा घर चला गया
कुछ पाए बग़ैर, पूरा मुक़द्दर चला गया,
चौड़ी जो हुई सड़क मेरा घर चला गया।
थक गया हूं सफ़र में, आता नहीं नज़र,
कहां रास्ते से मील का पत्थर चल गया।
चेहरा मेरा इसलिए रहता है अब उदास,
मां गई तो खुशियों का मंज़र चला गया।
रहबर को जो देख लिया दुश्मनों के घर,
मेरे सीने के आर-पार खंज़र चला गया।
मुश्किल नहीं मुक़ाबला अमीरे शहर से,
लोगों के मन से मौत का डर चला गया।
खोना क्या होता हैं जा के उससे पूछिए,
जिसके होंठों से दूर, समन्दर चला गया।
ज़फ़र दर्द ये है कि शिकायत कहां करूं,
रोज़ है ये जवाब कि अफ़सर चला गया।
सड़क पर नहीं अच्छा हक़ फैसला कोई
दौलत कमाओ दोस्तो, इज़्ज़त के वास्ते,
तुम इज़्ज़त मत गंवाओ दौलत के वास्ते।
माना कि ज़रूरी, बहुत से काम हैं मगर,
कुछ लम्हे तो निकालो इबादत के वास्ते।
वो पढ़ा है, लिखा है, मालूम है, गुनाह है,
मगर झूठ बोलता है, सियासत के वास्ते ।
सड़क पर नहीं अच्छा हक़ फैसला कोई,
ये काम छोड़ दीजिए, अदालत के वास्ते।
माना कि हर इंसान हो फ़ौलाद का मगर,
इस्तिमाल नहीं अच्छा, बग़ावत के वास्ते।
बदनामी हो रही है दिसावर में आजकल,
ये चौकीदार नया ढ़ूंढो रियासत के वास्ते।
मुमकिन अगर हो, पुराना हिन्द लौटा दो,
चाहे ज़िन्दगी भी लेलो ज़मानत के वास्ते।
गुनहगार ना पकड़ो, अलग बात है मगर,
बेगुनाह भी ना पकड़ो हिरासत के वास्ते।
ज़फ़र ज़मींदारी लौटने वाली है मुल्क मे,
ऊंचा ओहदेदार जो है हिमायत के वास्ते।
वो पल नहीं है जिसमें चुनौती नहीं देखी
मैंने पोलज सी ज़िन्दगी में परौती नहीं देखी,
वो पल नहीं है जिसमें चुनौती नहीं देखी।
उसे बढ़िया समझ कर, चुन तो लिया मगर,
घोड़े की किसी ने भी कनौती नहीं देखी।
वो कहते हैं कि पले हैं सिर्फ चाय बेचकर,
कभी साहिबे मसनद ने खतौनी नहीं देखी।
सुनार भी रखता है तो सोने को परखता है,
मैंने सच को परखने की कसौटी नहीं देखी।
पांव इसलिए भी अपने सोता हूं सिकोड़कर,
मैंने शहर में आकर, बपौती नहीं देखी।
दिन रात की मेहनत से, इतनी तो अमीरी है,
मैंने बच्चों के खर्चे में कटौती नहीं देखी।
वो सच कहने वालों की, क़दर क्या करेंगे,
जिन्होंने उम्र भर झूठ की घटौती नहीं देखी।
दूसरों के जूते सिल के पहुंचे हो शिखर तक,
कैसे कह दिया कि तुमने कठौती नहीं देखी।
फिर कैसे मान लूं कि वो पुराने अमीर हैं,
मैंने उनके घर में ईंट लखौरी नहीं देखी।
वो मजमून क्या लिखेंगे, पीने के पानी पर,
ज़फ़र, शहर के बच्चों ने घड़ौंची नहीं देखी।
Literal meaning of words: शब्दों का शाब्दिक अर्थ
पोलज (Polaj) – Land that is cultivated continuously without allowing it to rest or lie fallow.
परौती (Paraouti) – Land that is cultivated intermittently, with intervals of rest to regain fertility.
चुनौती (Chunauti) – Challenge
कठौती (Kathauti) – Small basin or bowl (traditionally made of wood or metal)
खतौनी (Khatoni) – Land record or register of land holdings
कसौटी (Kasauti) – Criterion or touchstone
बपौती (Bapauti) – Inheritance or ancestral property
कटौती (Katauti) – Deduction or reduction
घटौती (Ghatauti) – Reduction or decrease
लखौरी (Lakhauri) – Lakhauri bricks (traditional small-sized bricks used in old constructions)
घड़ौंची (Ghadounchi) – This often refers to a traditional spot in Indian households where water pots or clay vessels are placed for easy access.
मेरी चाहतों की आजमाइश छोड़िए
( वज़्न 122 1222 212 212 )
“मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन”
बहर: हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़सूर
चांद सितारों की, फरमाइश छोड़िए,
मेरी चाहतों की आजमाइश छोड़िए।
तुम अपनी ही कहते रहोगे हर लम्हे,
मुझे भी बोलने की गुंजाइश छोड़िए।
मुझको ख़बर हो या तुमको ख़बर हो,
हसरतों की जहां में नुमाइश छोड़िए।
बात चाहे पूछ लो किसी भी दौर की,
तजुर्बा बहुत है, मेरी पैदाइश छोड़िए।
कंकड़ चुनिए बस जन्नत के रास्तों से,
घर की दीवारों की आराइश छोड़िए।
अपने क़िरदार को मुकम्मल बनाईये,
लोगों के ज़हन की आलाइश छोड़िए।
रब्बुल आलामीन सुब्ह बांटते हैं रोज़ी,
तुम देर से उठने के आसाइश छोड़िए।
शब्दार्थ:
नुमाइश – दिखावा
आराइश – सजावट
आलाइश – लंपट
आसाइश – सुख, चैन , आराम
रब्बुल आलामीन – सृष्टि संचालक
कब तक
अब तो अश्क़ों की भी क़दर नहीं,
यूँ ही बहती रहेगी ये नदी कब तक।
बेवफ़ाई की कुछ तो हद होती,
ज़ख़्म खाएगा आदमी कब तक।
तू नहीं है तो ये बहारें भी,
रंग लाएँगी आख़िरी कब तक।
आइने से भी दुश्मनी कर ली,
ख़ुद को देखेगा आदमी कब तक।
इश्क़ गर जुर्म है तो कह दो सनम,
यूँ सज़ा देगा क़ाज़ी कब तक।
क़त्ल होता। रहा। हूँ हर लम्हा,
अब ये बाक़ी है ज़िन्दगी कब तक।
बाद मरने के मसीहा बन गए
बाद मरने के मसीहा बन गए
पर मेरे ज़ख़्मों पे था कोई नहीं
वो जो अपने थे, पराए हो गए
अब मेरा हाल पूछता कोई नहीं
छोड़कर सब को चले आए यहाँ
फिर भी दिल से मिट सका कोई नहीं
झूठ की बुनियाद पर कायम रहे
सच कहे ऐसी सजा कोई नहीं
अब दुआओं में असर बाकी नहीं
रो रहा हूँ पर सुना कोई नहीं
दिल्ली में रहकर भी बिजनौर के हो तुम
इस दौर के अंदर भी उस दौर के हो तुम,
दिल्ली में रहकर भी बिजनौर के हो तुम।
मुझे दोस्त कहते हो, अलग बात है मगर,
मुझे हो गया पता किसी और के हो तुम।
आदतों ने बता दिया, बुनियाद का पता,
पूछना भी क्या कि किस ठौर के हो तुम।
इंतिखाब में डटे हैं, कई और भी लेकिन,
ये दावा है केंडिडेट,ख़ास तौर के हो तुम।
कूड़ों के ढेर लगे हैं, मौहल्ले में आज भी,
कैसे मान लूं आदमी महापौर के हो तुम।
श्यामा का कूकना इस बात का सुबूत है,
खुशबू किसी बग़ीचे की बौर के हो तुम।
ज़फ़र लहज़े में तुम्हारे है चांद सी ठंडक,
कैसे कह दूं कि मिजाजे सौर के हो तुम।
किसके कितने वोट हैं
कैलकुलेशन होती रही, बस यही शुरुआत में,
किसके कितने वोट हैं अपनी-अपनी ज़ात में।
मिसलेनियस लोगों ने फैसला ऐसे किया,
सबने देखी फ़ायदे की बात अपनी बात में।
ज़मीर बिकता रहा कुछ दावतों की दौड़ में,
सच दबा के रख दिया, सियासत की मात में।
जो खड़े थे साथ में, सौदे में शामिल हुए,
कौन अपना रह गया, इस कड़वी औक़ात में।
वादे सारे खो गए, नारों की भीड़ में,
फिर जले हैं ख़्वाब कितने तंग हालात में।
मंज़िलों के ख़्वाब थे, रास्ते छलावों के,
हम भटकते रह गए, झूठी इबारात में।
फिर सजेगी महफ़िलें झूठे दिलासों की यहाँ,
फिर सुलगेंगे लोग, अपने ही जज़्बात में।
कोई फिर से बेचेगा ख़्वाब सब्ज़-रंग के,
फिर लुटेंगे बेख़बर हम अपनी ही सौग़ात में।
आइनों में देख लो, चेहरों की सच्चाई को,
वरना रह जाओगे, बस ख़ाली हसरात में।
फिर से जलते देखना, उन घरों के चिराग़,
जो फँसे थे हर दफ़ा, बिन किसी हालात में।
कोई पूछेगा नहीं, दर्द किसका कितना था,
सब बँटेंगे फिर से बस काग़ज़ी औक़ात में।
ख़त्म कब होगा ये खेल झूठे वादों का,
कब सियासत आएगी, इंसानी जज़्बात में।

ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
एफ-413, कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली -32
zzafar08@gmail.com
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