Kavita | अपना बचपन
अपना बचपन
( Apna Bachpan )
बेटी का मुख देख सजल लोचन हो आए,
रंग बिरंगा बचपन नयनों में तिर जाए ।
भोर सुहानी मां की डांट से आंखे मलती,
शाम सुहानी पिता के स्नेह से है ढलती।
सोते जागते नयनों में स्वप्निल सपने थे,
भाई बहन दादा दादी संग सब अपने थे।
फ्राक नहींअच्छी जिद दूजी दिला दो पापा,
पेंसिल बैग में भरी किन्तु नई मंगा दो पापा।
सेहत थोड़ी नरम मातु को चिन्ता भारी,
पापा को सपने में दिखती राजकुमारी।
तितली के रंगों से भरा था मेरा बचपन,
एक कांटा नहीं चुभा था कभी भी तन।
कहते पिता भाग्य मेरा मेरी बेटी है,
गर्व मेरा मेरे प्राणों की अनुभूति है।
माता कहती अपना ही प्रतिबिंब मैं देखूं,
अपने सपने बेटी के आंखो में मैं देखूं।
एक दिवस मेरे बिन रह न पाते थे,
मेरी खुशियों में रहते उल्लासित थे।
मैं भी अपनी बेटी में निज बचपन देखूं,
अपने सपने बुनते और सच करते देखूं।।
रचना – सीमा मिश्रा ( शिक्षिका व कवयित्री )
स्वतंत्र लेखिका व स्तंभकार
उ.प्रा. वि.काजीखेड़ा, खजुहा, फतेहपुर
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