अशांत मन
अशांत मन

अशांत मन

( Ashant Man )

 

शांत प्रकृति आज उद्वेलित,
हृदय को कर रही है।
वेदना कोमल हृदय की,
अश्रु बन कर बह रही है।

 

चाहती हूं खोद के पर्वत,
बना नई राह दूं ।
स्वर्ण आभूषण में जकड़ी,
जंग सी एक लड़ रही हूं।

 

घूघंटो के खोल पट,
झांकू खुले आकाश में।
लौह की परतों के नीचे,
और दबती जा रही हूं।

 

नाम से मेरे जहां यह,
जान और पहचान जाए
किन्तु मिट्टी की मूरत बन,
धीरे धीरे गल रही हूं ।

 

बन के एक तूफान,
आंधियां उड़ा दूं धूल की।
घर गृहस्थी में फंसी मैं
और धंसती जा रही हूं।

 

आज उद्वेलन हृदय का,
सीख कुछ देगा नई।
वेदना को भेदकर कुछ,
नई रचना रच रही हूं ।।

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रचना – सीमा मिश्रा ( शिक्षिका व कवयित्री )
स्वतंत्र लेखिका व स्तंभकार
उ.प्रा. वि.काजीखेड़ा, खजुहा, फतेहपुर

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