दशानन | Dashanan
दशानन
( Dashanan )
( 2)
जली थी दशानन की नगरी कभी
कभी हुआ था वध रावण के तन का
जला लो भले आज पुतले रावण के
उसने चुन लिया है घर आपके मन का..
मर गया हो भले वह शरीर के रूप मे
किंतु कर रहा रमन विभिन्न स्वरूप मे
बसा ,हुआ खिल खिला रहा हर तन मे
कहीं इंद्रिय संग ,कहीं पर हर नयन मे..
खत्म हुआ नही रावण द्वापर के युग मे
है वही बोलबाला आज भी कलयुग मे
पहले तो था केवल वह पुरुष के भेष मे
आज है नर्तन हर नर नारी के वेश मे..
कहां कौन चल रहा धर्म की ले ध्वजा
कौन संतुष्ट है यहां की राजा या प्रजा
हर और बढ़ रहा अत्याचार आतंक का
सत्य कर्म को ही मिल रही केवल सजा…
चाहते हो जलाना यदि दशानन को तब
जलालो अब भीतर के रावण को सभी
बचा लो लाज बहन बेटियों की अपने
राम की धरा पर क्यों रहे रावण कभी..
( मुंबई )
(1 )
दशानन मरा नही है, आज सामने पुनः खड़ा है।
मार सकता ना कोई, रक्तबीज सा रूप धरा है।
बदलता हर युग में बस रूप,छद्म धारण कर लेता,
सभी देवों ने मारा फिर भी जिन्दा,आज खडा है।
यही महिषासुर था अरू हरिण्यकश्यप भी ये ही था।
भवानी चण्डी बन गयी हरि,नरसिंह का रूप धरा था।
अधर्मी धर्म परायण हो ना सकता,कल भी आज भी,
कालनैमी सा रूप बदलता है वो, आज भी वैसा।
दशानन त्रेता का पाखंड लिए, अदभुद अभिलाषी।
हृदय में काम क्रोध प्रतिशोध लिए सम्पूर्ण विकारी।
भावना विकल हुई, हर मानव में वो आज भी रहता,
खड़ा हो जाता है वो रौद्र रूप ले, बन कर कामी।
दशानन ही खर दूषण, शिशुपाल और कंस बना था।
यही वो कालयवन था हर युग में जो रक्त चखा था।
मार लो जितना भी हर साल, उभर कर आ जाता है,
दशानन पुनः जन्म ले आया,राम से जो की मरा था।
भरों हुंकार सनातन मान, विर्धमी बन कर रावण।
करे संघार बनो विकराल, उठा लो शिव का काँवण।
जन्म ले जब जब रावण, तब तब तुममे राम समाए,
उभर कर अग्नि पुंज बिखरे ऐसे की जैसे श्रावण।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )