फिर चुनावी मौसम में,बारूदी है गंध।
फिर चुनावी मौसम में,बारूदी है गंध।

दोहा दशक

( Doha Dashak )

 

फिर  चुनावी  मौसम  में, बारूदी  है  गंध।

खबरों का फिर हो गया,मजहब से अनुबंध।

 

अपनों  से  है  दूरियां,उलझे हैं संबंध।

भावों से आने लगी,कड़वाहट की गंध।

 

ढूंढ़ रहे हैं आप जो,सुख का इक आधार।

समझौता  हालात  से, करिए  बारंबार।

 

उसका ही संसार में,है जीवन अति खास।

निज गुण प्रभुता-पुष्प से,लाये जो मधुमास।

 

बेशक ऊंचा जाइए,भरिए खूब उड़ान।

बनी रहे हर हाल में,धरती से पहचान।

 

औलादें  चाहे  बने, देशों  के  सम्राट।

मातु पिता के सामने,बौने उसके ठाट।

 

मानव दुख की वजह है,माया का जंजाल।

जो निकले इस परिधि से,हुए वही खुशहाल।

 

इक दूजे में हो भले,वैचारिक मतभेद।

रहें परस्पर पुत्रवत,कहता है यह वेद।

 

टेढ़ी-मेढ़ी  है  बहुत, राजनीति की चाल।

धर्म-नीति का फिर यहां,उठता कहां सवाल।

 

औरों का दुख देखके,जिसके मन में दर्द।

नेक  वही  इंसान  है,औरत या के मर्द।

✍️

कवि बिनोद बेगाना

जमशेदपुर, झारखंड

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here