डॉ प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार की कविताएं | Dr. Preeti Singh Parmar Poetry
“माँ-बाप का बुढ़ापा: एक मौन विलाप”
बुढ़ापा बन गया अब एक अभिशाप देखो ।
दो रोटी को तरसते माँ-बाप हैं देखो।
जिनसे जीवन मिला, वो आज बेहाल हैं।
अपने ही घर में आज मेहमान हैं देखो।
जिनकी गोदी थी कभी शीतल छाँव सी,
अब उन्हीं की आँखें हैं, आँसू की नाव सी।
जिसे झुलाया था बाँहों की पनाह में,
वही संतान अब बात नहीं करता चाह में।
जिसको लोरी गाकर गाकर रातों में सुलाया,
खुद भूखा मुस्कुराया उसे कौर-कौर खिलाया।
हाथ पकड़कर जिसने चलना सिखाया,
आज वही हाथ तन्हा, काँपता, लजाया।
बेटा अब कहता “घर छोटा है माँ-पिता के लिए”,
और पत्नी मुस्कुराती है वृद्धाश्रम के लिए।
वो आँगन जहाँ गूंजती थी माँ की हँसी,
अब वहाँ सन्नाटा है, आँखें हैं भीगी-सी।
पिता जो वज्रवत थे, रीढ़ की तरह अडिग,
अब मौन हैं, कमर झुकी, हृदय में बस पीर।
माँ जो कभी छुअन से दुख हर लेती थी,
आज खुद उपेक्षा की आँच में जलती है।
समय है ठहरो, सोचो, समझो कहीं देर न हो जाए जीवन
के इस बँधन को यूं मत तोड़ो।
माँ-बाप स्वर्ग का द्वार हैं, उनके चरण तीर्थ मत छोड़ो
बिना उनके जीवन अधूरा, अस्तित्व को न मिटाओ
समय रहते युवाओं संभल जाओ
संस्कारों का दीपक मन में जलाओ,
उठो अपने माँ-पिता को दिल से लगाओ।
हों न कभी ऐसा कि वे कहते रह जाय
हमने ही जीवन दिया पर तुझे बुढ़ापा न आए।
जिंदगी का सफर इतना था रह गए बस साये।
