हे रावी!
( Hey Ravi )
मुझे जिसकी तक़दीर पे
आज भी अभिमान है
वो भूखा-नंगा ही सही,
मेरा हिन्दुस्तान है
इस बांस-बन में छांव का
आना है सख्त मना,
चांद को भी जैसे यहाँ
फांसी का फरमान है
अब शहर मांस के दरिया
में तब्दील हुआ,
इसीके जख़्मो का मवाद
अपने दरमियान है
कल वही शख़्स हिन्दुकुश
पर्वत से चला था,
पामीर के पठार तक आया
तो मुसलमान है
हे रावी! तेरे बहते ये
धरती क्यों बांझ रहे,
तेरी मिट्टी खुश्बू हमारी
तेरा पानी हक़े-ईमान है
मेरे बचपन की यादों वाला
पेड़ था, कट गया,
दूर– उजडी़ हुयी गली
के पत्ते लामकान है
तू लाख टके की बात
कर ले बंजारा मगर,
बहरों की बस्ती में —
कौन तेरा कद्रदान है
सुरेश बंजारा
(कवि व्यंग्य गज़लकार)
गोंदिया. महाराष्ट्र
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