
किंवदंती
( Kimvadanti )
किंवदंती बन हम प्रेम का,
विचरण करे आकाश में।
जो मिट सके ना युगों युगों,
इस सृष्टि में अभिमान से।
मै सीप तुम मोती बनो,
तुम चारू फिर मै चन्द्रमा।
तुम प्रीत की तपती धरा,
मै मेघ घन मन रात सा।
तुम पुष्प मै मधुकर बनूँ ,
मै पवन और तुम रागिनी।
हम दीप बन जलते रहे ,
तुम ज्योति और मै बाती।
मै कृष्ण की मुरली बनूँ ,
तुम पवन की गति दामिनी।
जो मन को भी झिँझोर दे,
तुम सुर की ऐसी स्वामिनी।
मै तीर तुम तडकश बनो,
मै शब्द और तुम भावना।
तुम प्रेम की निश्छल नदी,
जिसे शिव जटा की साधना।
जो गति रति से पूर्ण हो,
तुम नयन हो मै ताडना।
किंवदंती है हम प्रेम के,
तुम शेर की हो कामना।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )
शेर सिंह हुंकार जी की आवाज़ में ये कविता सुनने के लिए ऊपर के लिंक को क्लिक करे
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