लफ़्ज़ों की हकीकत | Lafzon ki Haqeeqat
लफ़्ज़ों की हकीकत
( Lafzon ki Haqeeqat )
मैं तुम्हें लफ़्ज़ों में
समेट नही सकती
क्योंकि—
तुम एक स्वरूप ले चुके हो
उस कर्तार का–
जिसे मैं हमेशा से
गृहण करना चाहती हूँ
किन्तु–
समझा नही पाती तुम्हें
कि–
अपने विजन को छोड़कर
यथार्थ जीने का द्वंद्व
वाकई में
कितना भयप्रद है।
नकार देती हूं
सामाजिकता और सांसारिकता
में बंधे दायरों को
सगुण से निर्गुण की ओर
विमुख हो जाती हूँ।
फिर—
मैं तुम्हारे रूप को
नही ले पाती
वृहद या सूक्ष्म होकर तुम
वारिधि बनते हो
तो कभी विहंगम
कभी कृष्ण तो कभी शिव।
और हाँ,
कभी-कभी तो
बयार बन चलते हो साथ
सहला लेते हो
मेरे कपोलों को
ये सिर्फ तुम ही हो
जो छू जाते हो मुझे।
तब यकायक ही मैं
अंकुरित हो जाती हूँ
और तुममें समा जाती हूँ।
मेरी जड़ें बिखरी हुई है
तुम्हारी शिराओं तक।
तुम्हारा होना ही प्रेम की
परिणीति के साथ-
एक निष्कलंक प्रेम को
गढ़ता है मेरे लिये
जिस मैं जीती हूँ
प्रतिपल स्वयं में।
डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )
अर्थ-
1 वारिधि – समुद्र
2 विहंगम – सूरज