जंगल मे | Laghu Katha Gungle Mein
कोई एक शब्द भी नहीं बोलेगा। मैने अभी-अभी किसी बाघ की आहट सुनी है और उसके पैरों के ताजा निशान देखकर आ रहा हूं, जो कि हल्की गीली मिट्टी मे बने हुए थे…., हरीश ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा-“सब लोग फटाफट सामान बांधो और गाड़ी की तरफ चलो….।”
डब्बू उसके पिता हरीश, बहन नेहा, जीजा देवेश और माँ प्रेमा, लगभग सभी के चेहरे मे घबराहट के भाव थे। सभी जल्दी से जल्दी गाड़ी तक सुरक्षित पहुंचना चाह रहे थे। सबने अपने अपने हिस्से का सामान उठाया और सड़क किनारे खड़ी गाड़ी की तरफ भागे…
हरीश डब्बू से – “अरे, तुम्हारे पाॅव मे मेहदी लगी है क्या ? ? थोड़ा जल्दी चलो ना…। सभी ने देखा, कि ‘डब्बू’ ने जैसे ही रफ्तार बढ़ाई, ‘उसका कुर्ता झाड़ियों मे फॅस जाता है और वह धड़ाम से नीचे गिर जाता है, जहाॅ कि ढालान होने के कारण वह लुढ़कते हुए, गंतव्य के विपरीत दिशा मे चला जाता है’..ऐसा देखकर, सब के मुंह से एक साथ चीख निकल जाती है।
तभी.. झाड़ियों मे हलचल होती है। हलचल बढ़ते देख सब की साँसें थमती सी प्रतीत होतीं हैं। उधर, डब्बू के हाॅथ और पैर बुरी तरह से छिल जाते हैं और जन्मदिन मे बुआ का उपहार मे दिया हुआ कुर्ता भी फट जाता है। वह दर्द से कराहते हुए, देखता है कि सब लोग उससे काफी दूर पर भयभीत खड़े हैं।
किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही कि डब्बू की मदद कर सकें। थोड़ा हिम्मत करके प्रेमा आगे बढ़ती है तो हरीश फुसफुसाते हुए उसे रोकते हैं “तुम्हारी चूड़ियां और पायल की आवाज इस समय खतरनाक हो सकते है।”
कभी-कभी क्या सोचो और क्या हो जाता है। कहाॅ तो डब्धू के जन्मदिन का त्यौहार जैसा माहौल था कहाॅ ये सब हो गया।
डब्बू उठने की कोशिश करता है मगर उठ नहीं पाता है। उसे लगता है उसने अपने पैर खो दिए। मन मे दिव्यांग शब्द आते ही वह अधीर हो उठता है।
लगभग दस मिनट तक सब साॅस साधे खड़े रहे जब सब को तसल्ली हो गई कि अब झाडियों मे कोई हलचल नही है, तो हरीश और देवेश मिलकर डब्बू को गोद मे उठाकर किसी तरह गाड़ी तक लाते हैं और जंगल से घर की तरफ प्रस्थान करते हैं।
रचना: आभा गुप्ता
इंदौर (म.प्र.)