मुहब्बत से मगर देखा नहीं था | Muhabbat poetry
मुहब्बत से मगर देखा नहीं था
( Muhabbat se magar dekha nahin tha )
मुहब्बत से मगर देखा नहीं था
उसी ने ही मुझे समझा नहीं था
गिले शिकवे करें है जब मिले वो
लगे आकर कभी लगता नहीं था
उसे आवाज़ दी है खूब मैंनें
किया मेरे तरफ चेहरा नहीं था
भला कैसे उसी का हाथ पकड़ूं
मगर दिल से रहा अपना नहीं था
खुदा क्यों याद आये फ़िर मुझे वो
उससे कोई रहा रिश्ता नहीं था
जुड़ा रिश्ता नहीं उससे मगर यूं
कि मेरे पास में पैसा नहीं था
करें है गुफ़्तगू कल तल्ख़ आज़म
मुहब्बत से मगर बोला नहीं था