नज़रों का सच
नज़रों का सच

नज़रों का सच

( Nazron Ka Sach )

 

देखती  है  जो  नज़रे वो होता नहीं,
चाहती है जो नज़रे वो दिखता नहीं।
मन को छू जाए जज़्बात होंठो पे हो,
आसूं बनके बहे मानता मन नहीं ।।

 

भीड़  को  देखा  राहों  पे बढ़ते हुए,
दे  के  धक्का  बगल  में संभलते हुए।
आंख  में  पहने चश्मा जो पहचान का,
बन के अनजान उनको गुजरते हुए।।

 

याद  आया समय था  मुझे  जानते,
दर्द  में  सिर्फ  मुझसे  वफ़ा  मांगते।
आज बदला हवा ने है रुख हर तरफ,
फिर वो मुझको भला कैसे पहचानते।।

 

सोच  पर  सोच  मेरी  ये  भारी पड़ी,
कष्ट दिखते न जिसको क्यों द्वारे खड़ी।
आत्मबल  से  बड़ा  कोई  बल न यहां,
करले साहस अगर सबपे भारी पड़ी।।

 

है अगर रात सुबह भी आएगी फिर,
नज़रे देखेगीं वो जो दिखाएगी फिर।
मन  को छू जाए वो बात होंठो पे हो,
आइना नज़रों को वो दिखाएगी फिर।।

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रचना – सीमा मिश्रा ( शिक्षिका व कवयित्री )
स्वतंत्र लेखिका व स्तंभकार
उ.प्रा. वि.काजीखेड़ा, खजुहा, फतेहपुर

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