
उलझन
( Uljhan )
मचा हुआ है द्वंद हृदय में, कैसे इसको समझाए।
यायावर सा भटक रहा मन, मंजिल तक कैसे जाए।
उलझी है जीवन हाथों की,टेढी मेढी रेखाओ में।
एक सुलझ न पायी अब तक,दूजी कैसे सुलझाए।
वो मुझको चाहत से देखे, पर मन मेरे और कोई।
मेरे मन मे रमा हुआ जो, उसके मन मे और कोई।
उलझा है हुंकार इसी में, जीवन पथ पर इधर उधर।
कैसे किसको समझाए हम,मन समझे न और कोई।
जीवन पथ का अर्ध शतक को, पार किया है मैने।
सोच रहा हूँ पाया क्या, और खोया क्या है मैने।
क्यो अब तक सन्तुष्ट नही मन,व्याकुल क्यो है मेरा।
आखिर मन मे उलझन क्या जो,सुलझाया न है मैने।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )