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वो नहीं ज़िद ठानता | Zid Shayari

वो नहीं ज़िद ठानता

( Wo nahi zid thanta ) 

 

वो नहीं ज़िद ठानता तो मुख़्तलिफ हालात होते
इस चमन में ग़ुल भी खिलता महकते लम्हात होते।

अब बहुत ही मुख़्तसर सी गुफ़्तगू होती हमारी
दिन हुए कुछ इस तरह रस्म़न ज़रा सी बात होते।

जीतने की थी हमें आदत मगर अब हाल है ये
बाजियां उलटी हुई अब रोज़ ही शह मात होते।

वह नहीं है चाहता रिश्ता बचाना दोस्ती का
हमने देखा है उसे रुख़ फ़ेर कर मोहतात होते।

ये हुआ कि हो ख़फा सब खत चला डाले हमीं ने
जो बचा रखते वही माज़ी कि अब सौगात होते।

छोड़ दी हमने अना फ़िर भी नहीं कुछ हाथ आया
काश चुप रहते अगर तो साहिबे औकात होते।

याद है वह सर्द लहज़ा आज भी उस संगदिल का
हो गए हैं दिन बहुत इस नयन से बरसात होते।

 

सीमा पाण्डेय ‘नयन’
देवरिया  ( उत्तर प्रदेश )

मुख़्तसर- संक्षिप्त
मोहतात- सावधान
गुफ़्तगू- बातचीत
रस्म़न– औपचारिक
माज़ी– बीता वक्त

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