Gustakh poetry
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मेरा सुकुं

( Mera sukoon )

 

 

मेरा  सुकुं  ओ  नींद  भी  मेरी उड़ाई है

जबसे जवानी , टूट के जो तुझपे आई है

 

शोला बदन को देख के , गुलशन हुआ हैरां

बूटे  भी  खिले  ,  आग ये कैसी लगाई है

 

यूं ही नहीं , गुलाब हुआ सुर्ख रू जालिम

आरिज से सुर्खी आपके , उसने चुराई है

 

इतराती , उड़ी फिरती , चढ़ी चर्ख पे , लेकिन

रंगत ,  घटा ने ,  आपकी  जुल्फों से पाई है

 

जी चाहता है , दस्त उसके चूम लूं , जिसने

आँखों को तेरी , देखकर , कश्ती बनाई है

 

गुस्ताख  देखने  के  लिए ,  बेकरार  है

लगता , मेरी निगाह की शामत ही आई है

?

 शायर: गुस्ताख हिन्दुस्तानी

( बलजीत सिंह सारसर )
दिल्ली

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