जज़्बातों की दास्तान | Poem on Jazbaat in Hindi
जज़्बातों की दास्तान
( Jazbaaton ki dastaan )
जीवन की आधी रातें सोच-विचार में
और आधे दिन बेकार हो गए,
जो थे आंचल के पंछी
अब हवा के साहूकार हो गए,
हर रोज़ कहती है ज़िंदगी मुझसे
जाओ तुम तो बेकार हो गए,
हम भी ठहरे निरे स्वाभिमानी,
लगा ली दिल पर चोट गहरी,
उठा कर पोटली अपनी
महल से बाहर हो गए,
अब भटक रहे हैं,
थोड़ा सटक गए हैं,
अब कंठ की आवाज़ लिख देते हैं,
कुछ विशेष तो हासिल हुआ नहीं,
बस! कुछ लोगों से दुलार मिल गया,
कुछ कच्चे-पक्के रिश्ते पकाए,
कुछ को हमने पीठ दिखाई
और कुछ के राज़दार हो गए,
रास नहीं आती अब ये दुनियादारी
लोग कहते हैं कि हम बीमार हो गए।
वंदना जैन
( मुंबई )