बहु राज || Kavita
बहु राज
( Bahu Raj )
छोटे-छोटे जब थे लाल
मात-पिता कितने खुशहाल !
जननी जनक दुलारे सुत को
पुत्र प्रेम में हारे खुद को !
पाल पोस कर बड़ा किया
पैर पर उनको खड़ा किया !
मन में जागे फिर नए सपने
बहू बिना घर सुने अपने !
घर में आई फिर बहुरानी
शुरू हुई फिर नई कहानी !
थोड़ा समय खुशी से बीता
मानो तात स्वर्ग को जीता !
घर घर की फिर वही कहानी
कौन है जेठ कौन देवरानी !
साशन सत्ता बदला ताज
घर में आया अब बहु राज !
होने लगी तब घर में फूट
मात पिता अब लागे ठूठ !
पालन पोषण उनका भारी
पिता पुत्र पर हुआ अभारी !
छुटकी बहुु भी मारे ताना
रोज न देबई हमहूं खाना !
अब आई है जेठ की पारी
भोजन देबई बारी-बारी !
कुछ दिन करें उधर गुजारा
फिर देबई हम खाना चारा !
कभी इधर कभी उधर सहारा
मारा जाये बाप बेचारा !
रोज मनावे बाप महतारी
हर लो प्रभु हो प्राण हमारी !
बेटवा करे खूब अब काज
बहु करे निष्कंटक राज !
छूटे माया का जंजाल
अब न चाहे रोटी दाल !
कवि : रुपेश कुमार यादव ” रूप ”
औराई, भदोही
( उत्तर प्रदेश।)
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