आज मैं बहुत खुश हूं कि लीक से हटकर लिखी गईं आर. पी. सोनकर जी की ग़ज़लें पढ़ रही हूं । हम देखते हैं कि पारंपरिक ग़ज़लों में प्रेम , मोहब्बत,और विरह की शायरी होती है ।

क्योंकि शे’रो – शायरी ज्यादातर समृद्ध वर्ग के लोग ही लिखते आए हैं और उन्होंने सामाजिक न्याय, समता , स्वतंत्रता और बंधुत्व पर शेरो-शायरी नहीं की हैं , ग़ज़लें नहीं लिखी हैं।शोषित ,वंचित वर्ग की समस्याओं को उन्होंने अनदेखा किया है ।

उनकी ग़ज़लें सामाजिक- व्यवस्था पर चोट करने वाली ग़ज़लें नहीं होती हैं परंतु आर . पी. सोनकर जी की ग़ज़लें सामाजिक अन्याय, असमानता, जाति -द्वेष , वर्ग -द्वेष व धर्म- द्वेष आदि को न केवल दर्शाती हैं बल्कि उन्हें दूर करने के लिए दोनो ही तरफ़ के लोगों को समझाने की भरपूर कोशिश भी करती हैं ।

मुख्यधारा के लोगों को उनकी चालाकी भरी बातों से अवगत कराती हैं।
जैसे:-
“कहते हैं आप धन से मोहब्बत न कीजिए
ख़ुद अपने आप को भी तो समझाइए हुजूर”
ये ग़ज़लें शोषित समाज को सोचने पर मजबूर करती हैं और उनमें कुछ कर गुज़रने की आशा भरती हैं। जैसे:-
“सितारों की बुलंदी को कभी वह छू नहीं सकता,
जो क़िस्मत और भगवन के भरोसे पर उछलता है”

सोनकर जी ख़ुद हाशिए पर रह रहे समाज से आते हैं। जहां उन्होंने हाशिए पर रह रहे समाज के दुख- तकलीफ़ को देखा ही नहीं बल्कि भोगा भी है और उनसे निजात पाने के लिए संघर्ष भी किया है। जैसे:-
“बग़ावत की सुनामी आ रही है,
लहर से दूर इतना भी नहीं तू”
मतलब हाशिए पर फेंके गए समाज का संघर्ष उनकी शायरी में पूरी तरह से लक्षित हुआ है। उस दुख-दर्द से निजात पाने के लिए किए गए संघर्ष को उकेरने में भी वे पूरी तरह से सफल रहे हैं। उन्होंने शायरी को एक नया आयाम, नई सोच और नई दिशा दी है ।

अपनी शायरी को मेहनतकश लोगों की आवाज़ बनाया है। उनकी इस हिम्मत को और साहस को सलाम।
वे मानवता की पैरवी करते हुए दिखते हैं।उनकी शायरी में मानवता पर फोकस है। जैसे:-
“जौहरी हैं वफ़ा की समझ है हमें,
आदमीयत को गहना समझते हैं जी”
समृद्ध वर्ग में भी मानवीय गुणों को भरने की शिक्षा देते हैं। जैसे:-
“नहीं है जिसके अंदर आदमीयत,
उसे मैं आदमी कैसे कहूंगा”
उन्होंने अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया है। समाज की सच्चाई को, उसकी गहराई को, ग़ज़लों में लिखा है।
नारकीय, पशु तुल्य जीवन की झलकियां उनकी ग़ज़लों में दिखाई देती हैं।

वे बहुजनों को इस बदहाल जीवन से निकलने के लिए उन्हें शिक्षित करना ज़रूरी समझते हैं। दूसरों की बातों में न फंसने की चेतना जगाते हैं।

उन्होंने शिक्षा पाबंद जीवन को प्रकाशमय बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया है। जैसे:-
“जो कहते हैं अहिंसा ही हमारा धर्म है यारो,
उन्हीं के दिल हमेशा जंग के मैदान बनते हैं”
सोनकर जी प्रकृति व पर्यावरण के रक्षक भी हैं।

जैसे :-
“शजर, नदी, जल, हवा बचा लें,बचा लें कुदरत की नेमतों को ,
ये धरती गर्मी उगल रही है मुआफ़ करिए, मुआफ़ करिए।”
सोनकर जी बहुजनों को राजनीतिक सत्ता भी प्राप्त कराना चाहते हैं।क्योंकि वे बामसेफ के एक्टिव सदस्य भी रहे हैं। इसलिए वे मानते हैं कि सत्ता ही वह चाबी है जिससे हर समस्या का ताला खोला जा सकता है ।

बहुजन सत्ता प्राप्त न कर सके इसके लिए सवर्ण कैसे-कैसे बहुजनों को बहलाते- फुस लाते हैं और उन्हें अपने फेवर में लाने के लिए, उनके वोटों को हासिल करने के लिए, उन्हें गले तक लगाते हैं।

जरुरत पड़ने पर उनके पैर भी छूते हैं । पर उन्हें सत्ता में आने नहीं देना चाहते हैं।वे हर चाल खेलेंगे। हर षड्यंत्र करेंगे और बहुजन मूलनिवासियों को आज़ादी, स्वतंत्रता ,स्वाभिमान ,सुरक्षा, स्वेच्छा से निर्णय नहीं लेने देंगे। इसलिए वे बहुजनों को अपने वोटों की हिफाजत करनी के लिए सावधान करते हुए कहते हैं जैसे_:
“वोटों के बदले तू उनसे, गेहूं -चावल पा लेगा ,
लेकिन वाजिब हक़ पा लेगा,नामुमकिन,नामुमकिन है।”
एक और ग़ज़ल देखिए।
“वो वादा करेंगे उठाएंगे कसमें
जुबां से मुकर जाएंगे देखिएगा।”
सोनकर जी नारी वादी दृष्टिकोण भी रखते हैं ।अपनी ग़ज़लों के माध्यम से वे कहते हैं कि औरत को केवल देह की दृष्टि से ही नहीं देखना चाहिए बल्कि उसे भी एक इंसान के तौर पर देखना चाहिए।
जैसे:-
“कोई औरत नहीं है देह फक़त,
रूह में झांकिए शराफ़त से”
हिंदी ,उर्दू मिश्रित कलात्मक शब्दावली सभी भावों जैसे दुख, उदासी, उठने की चेतना, जागरुकता आदि सभी भावों को चित्रित करती है। उन्होंने अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया है ग़रीब , शोषित मज़दूरों को ज़ुबान दी है। बहुत सी यादों और अनुभवों से संवरी ग़ज़लें हैं।

विषय की गंभीरता होते हुए भी उनकी ग़ज़लें पाठकों से तादात्म बना रही हैं। आपसी मेल -जोल को दर्शा रही हैं ।उनकी उम्दा लेखनी बहुत अच्छी सीख देकर समाज को आइना दिखा रही हैं ।
अंत में मैं अपनी यही कहना चाहूंगी।

सोनकर जी नज़र अंदाज समाज को उनके नारकीय जीवन से, उनकी रोज़ की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने का हौसला देते हैं। उन्हें हिम्मत से उठने की कोशिश करती ग़ज़लें लिखते हैं ।

साथ ही साथ ज्यादातर संपत्ति पर कब्जा करने वालों की हरकतों को परत- दरपरत खोलते हैं। सामाजिक बुराइयों के प्रति विद्रोह प्रकट करते हैं, व्यंग्यात्मक लहंगे में ।

मानवता की पैरवी करते हुए 85% बहुजन आबादी को अपने ऊपर भरोसा रखने की चेतना जागते हैं।उन्हें दंगों में झुलसने से बचाने की कोशिश करते हैं। राजनीतिक खेल में उलझे हुए बहुजनों को उनकी ना समझी को गजलों के माध्यम से बताने की कोशिश करते हैं। मतलब वह बहुजनों के बारे में ही ज़्यादा ग़ज़लें लिखते हैं जैसे:-
“तल्ख़ नहीं लिखती है जिनके बारे में दुनिया,
क्यों न उन्हीं की बात लिखूं ,मैं आजमगढ़ का हूं।”
और ये ग़ज़ल भी
“हाशिए पर जो पड़े हैं एक नजर के मुंतज़िर,
रहबरों को उनकी भी किस्मत बदलनी चाहिए”।
बहुजनों को लड़ने की हिम्मत बंधाते हैं । उन के अंदर आसमान में उड़ने का हौसला भरते हैं।जैसे:-
” मैं तिनका हूं बगूलों से लड़ा हूं
क्षितिज के पार जाने पर अड़ा हूं।”
विप्लवी प्रकाशन ,लखनऊ द्वारा प्रकाशित, एक प्रेरणादायक और पठनीय ग़ज़ल – संग्रह के लिए उन्हें बहुत -बहुत मुबारकबाद।

डॉक्टर सुमन धर्मवीर
विशाखापत्तनम

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