कागा की कविताएं

मेरा दिल दीवाना

मेरा दिल दीवाना मस्ताना तेरा हो गया
मेरा दिल अलबेला बेगाना तेरा हो गया

नाज़ से सहज रखा था सीने में
बेवफ़ा बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

दिल बावफ़ा नहीं बेवफ़ा होता है स़नम
बेऊर बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

किसका का क़ुस़ूर कहें आंखों का दिल का
बेवक़ार बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

दिल पर नहींं करना यक़ीन बड़ा बदचाल
बेईमान बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

दिल धड़कता मेरे सीने में बन पराया
बेकरार बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

बेदर्द बन हमदर्द हो जाता ग़ैर का
बेक़ुस़ूर बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

बेवजह दर्द मोल लेता क़रीब बन ‘कागा’
बेबाक बन दीवाना बेगाना तेरा हो गया

ह़ाले ह़क़ीक़त

मत सुन मेरी हाले ह़क़ीक़त
मत पूछ मेरी ह़ाले ह़क़ीक़त

मत छेड़ दास्तान दिल का
मत सुन साज़ ह़ाले ह़क़ीक़त

जलती आग अंगीठी में सुलगती
मत कुरेद ज़ख़्म ह़ाले ह़क़ीक़त

राज़ को राज़ रहने दो
मत खोल पर्दा ह़ाले ह़क़ीक़त

कोई नहीं अपना जहान मे
किसको सुनायें अपनी ह़ाले ह़क़ीक़त

ज़ख्म पर बांध रखी पट्टी
मत खोल अपनी ह़ाले ह़क़ीक़त

मुठ्ठी भर बेठा नमक ‘कागा’
छिड़क देगा सच्ची ह़ाले ह़क़ीक़त

ग़रीब

ग़रीब की गाथा ग़मग़ीन कोई नहीं सुनता
ग़रीब की व्यथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

ग़रीब का साथ ग़रीबी देती जीवन भर
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

ग़रीब ग़रीबी चोली दामन का साथ क़रीबी
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

जीवन बसर करने का कोई बसेरा नहीं
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

खाने पीने के लाले पड़ते सूखा जिस्म
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

पेट धंस गया पसलियों तक चेहरा चिपका
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

छाया वास्ते छपरा टूटा फूटा घास फूस
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

धूप गर्मी सर्दी घुस जाती पानी टपकता
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

फटे मेले कुचेले पेवंद लगे बदन चीत्थड़े
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

मां ख़ुद दोनों बीमार दवा दारू नहीं
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

खांसते दोनों ख़ूब बारी-बारी बुरा ह़ाल
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

ग़रीबी ने कमीन बनाया कभी शरीफ़ थे
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

अपने हो गये पराये भूखे की बूअ से
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

अर्थी उठाने वाला कोई नहीं लावारिस ‘कागा’
ग़रीब की गाथा ग़मगीन कोई नहीं सुनता

बंदगी

कर बंदा बंदगी मिटे मन की गंदगी
कर बंदा बंदगी सुधर जाये निजी ज़िंदगी

छल कपट फ़रेब झूठ झांसे छोड़ बंदे
सच्च बोल अनमोल बेश-क़ीमती रत्न बंदे

दिल में दर्द रख हमदर्द बन ह़िमायती
द्वेष ईर्ष्या से दूरी रखो बन ह़िमायती

मुख में राम बग़ल में छुरी बंदे
आदत बुरी अ़दावत अच्छी नहीं बेकार बंदे

इंसान बन इंसानियत रख जीवन मिला मोती
दाग़ नहीं लगे दामन पर महंगे मोती

संगठन में शक्ति भाव भक्ति से चल
एकता में नेकता अनेकता युक्ति से चल

बंदगी कर स़ाह़ब की मन चित्त से
त्याग काम क्रोद्ध लोभ मोह चित्त से

‘कागा’ दुनीया मत़लब की झूठा सारा संसार
कलेश कलह से कोसों दूर सारा संसार

बरखा बहार

बरखा बहार आई धरती पुत्र का चेहरा खिला
मुरझा मायूस उदास धरती पुत्र का चेहरा खिला

छाये काले बादल घने करें घनघोर मचायें शोर
नाचे मन मोर धरती पुत्र का चेहरा खिला

बूंदें बरस पड़ी झूम झमाझम प्यासी धरा पर
महक उठी मिट्टी धरती पुत्र का चेहरा खिला

उमड़ घुमड़ बरसे बादल बिजली चमके चका-चौंध
गूंज उठा गगन धरती पुत्र का चेहरा खिला

आई ऋतु बरखा की हुई हरियाली खेतों में
उगा अन्न घास धरती पुत्र का चेहरा खिला

पशु पक्षी जीव जंतु प्राणी वनस्पति सब मुस्काये
छाई ख़ूब ख़ुशी धरती पुत्र का चेहरा खिला

हाळी हाळी जोता धरती भीगी महका तन मन
बेल बजी घंट घुंघरु धरती पुत्र चेहरा खिला

बरखा बहार आई करें कुरंजां कोयल कलोल ‘कागा’
पणिहारी पग सरवर धरती पुत्र का चेहरा खिला

आवाज़ परिदों की

आवाज़ परिंदों की मीठी मन मोहनी
आवाज़ परिंदों की सुंदर दिल सोहनी

डालो चुग्गा पानी परिंडा लगा कर
दरिंदों को दूर डंडा लगा कर

चिड़िया कबूतर तोत़ा मीना तीतर बुलबुल
रहें साथ स्नेह प्रेम से मिलजुल

परिंदे मानव प्राणी के संगी साथी
चली आई परम्परा पुरानी संगी साथी

मेल-जोल आगे बढ़ाये करूणा से
दरिंदो से बचायें हार्दिक करूणा से

पैड़ पोधे लगाये बाग़ बग़ीचा सजायें
छाया का छपरा बना सुंदर सजायें

‘कागा कोयल तक संदेश पहुंचे प्यार
जीओ जीने दो का शुभ समाचार

टूट गया सपना

टूट गया सपना बनने से पेहले
टूट गया अरमान बनने से पेहले
शेख़ चिल्ली की पुलाव पकी नहीं
रूठ गया ईमान बनने से पेहले
आरज़ू अनेक संजोये सपने एक समान
लूटा सारा सामान बनने से पेहले
लोग मिलते सफ़र में रही बनकर
छूट गया साथ बनने से पेहले
हम सफ़र कोई नहीं सब लुटेरे
रहबर होते रहज़न बनने से पेहले
सांसों पर यक़ीन नहीं करना ‘कागा’
आना जाना मुश्किल बनने से पेहले

राजनीति के रंग

नाम कमाने आया मैं राजनीति में
दाम कमाने नहींं आया राजनीति में
चाह थी वो राह मिल गई
नाम कमाया रंग जमाया राजनीति में
कथनी करनी में अंतर नहीं रखा
कहां वो कर दिखाया राजनीति में
क्या खोया क्या पाया ग़म नहीं
झूठा झुनझुना नहीं थमाया राजनीति में
देरी दूरी दरार दीवार नहीं फ़लसफ़ा
दलाल को दूर भगाया राजनीति में
चाटूकार चापलूस कोई नहीं रहा आज़ाद
घूसख़ोर को सबक़ सिखाया राजनीति में
गिरगिट की त़रह़ रंग नही बदले
चाहे अपना चाहे पराया राजनीति में
मत़लब को दरकिनार कर बेदाग़ बना
सामने हाथ नहीं फेलाया राजनीति में
भाई भतीजा वाद जाति धर्म ‘कागा’
दलगत संगत रंगत आज़माया राजनीति में

ज़िंदगी ज़रा रुक

ज़िंदगी ज़रा रुक जाओ अभी अरमान बाक़ी
बंदगी कर बंदा बेबाक अभी अरमान बाक़ी
ख़िदमत कर ख़लक़ की दिलो जान से
मुकमल नहीं इरादे वादे अभी अरमान बाक़ी
इंसान बन इंसानियत के साथ ख़ास़ ख़ुलूस़
फ़ज़ीलत से पैश आना अभी अरमान बाक़ी
ज़माने की शराफ़त नहीं कोई गिला शिक्वा
रसूख़ रुतब्बा बरकरार रख अभी अरमान बाक़ी
हम सफ़र बन राही मुश्किल घड़ी में
रहबर बन रहज़न नहींं अभी अरमान बाक़ी
ख़्वाब का ताबीर बन जीना जहान में
ज़िंदगी नहींं कर ज़ाया अभी अरमान बाक़ी
जब तक रूह़ जान में दमदार बन
कमज़ोर का नहींं कोई अभी अरमान बाक़ी
कम्मी कोताही नहीं रखना क़ल्ब में ‘कागा’
ह़ोस़ला अफ़ज़ाई रख हमेशा अभी अरमान बाक़ी

प्रेम अमर रहे

प्रेम अमर रहे हम रहें नहीं रहें
चर्चा चलती रहे हम रहें नहीं रहें
प्रेम की डोर टूटे नही कभी बंधन
दुनिया जलती रहे हम रहें नहीं रहें
प्रेम पर पेहरा देते मनचले दीवाने बन
दाद मिलती रहे हम रहें नहीं रहें
प्रेम पूजा है हम पूजारी प्रेम के
ज्योति जलती रहे हम रहें नहीं रहें
परवान जल जाता शमा पर फ़िदा होकर
आग सुलगती रहे हम रहें नहीं रहें
आग बबुला हो जाते ह़ास़द देख प्रेम
रात ढलती रहे हम रहें नहीं रहें
लगी आग प्रेम की बुझती नहीं ‘कागा’
ज्वाला भभकती रहे हम रहें नहीं रहें

इश्क़ की आग

इश्क़ की आग बुझाई नहीं बुझे
केसे क्यों हुआ जला दिया मु
आशिक़ माशुक़ का मेल-जोल मुह़ाल
प्यार की प्यास बुझाई नहीं बुझे
आंखें मिली आग लगी दिल में
मोह़ब्त की भूख बुझाई नहीं बुझे
जल रहा जिस्म झुलस गया सारा
जुदाई की ज्वाला बुझाई नहीं बुझे
जनाज़ा निकला मेरा फूल चढ़ाया नहीं
अंदर की आग बुझाई नहीं बुझे
सिसकते रहे नका़ब ओढ नज़रें छिपा
तमना त़लब तेरी बुझाई नहीं बुझे
रात कटती नहीं दिन गुज़रता नहीं
जिगर की जलन बुझाई नहीं बुझे
भूल नही सकते पुरानी यादें ‘कागा’
चाहत की चिंगारी बुझाई नहीं बुझे

कवि साहित्यकार: डा. तरूण राय कागा

पूर्व विधायक

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