Abhimanyu kavita
Abhimanyu kavita

अभिमन्यु को हम अक्सर इसलिए याद किया करते हैं कि उसने मां के गर्भ से ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीख ली थी। कहां जाता है कि अभिमन्यु जब मां के गर्भ में ही था तो अर्जुन उसकी मां सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदने कि कला का वर्णन कर रहे थे ।

जब वह चक्रव्यूह में प्रवेश की कला को बता रहे थे तो सुनते-सुनते अंतिम रूप से जब निकलने की बात आई तो उनकी मां सो गई। और वह उसे सुन नहीं सकें।

जिसके कारण महाभारत युद्ध में चक्रव्यूह में तो चले गए लेकिन निकल नहीं पाए जिसके कारण कौरवों द्वारा उनको मार दिया गया। यह घटना यह सिद्ध करती है कि शिशु में मां के गर्भ से ही संस्कार पलने लगते हैं।

जिस प्रकार का चिंतन मां का होता है शिशु में भी उसी प्रकार के संस्कार प्रस्तुत होते हैं। यदि चिंतन अच्छा होगा तो संसार श्रेष्ठ होंगे यदि चिंतन गलत है तो बालक में भी संस्कार गलत पड़ेंगे।

वर्तमान समय में अनेकानेक प्रकार की वैज्ञानिक शोधों के बाद आज चिकित्सक , मनोवैज्ञानिक परामनोवैज्ञानिक तथा जेनेटिक साइंस स्वीकार कर रही है कि केवल जींस ही नहीं बल्कि माता-पिता के आचार- विचार एवं परिवार समाज के वातावरण का भी गर्भस्थ शिशु पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

गर्भावस्था से ही उसका व्यक्तित्व, व्यवहार और स्वभाव बनने लगता है। मां इस अवस्था में जो भी कुछ सुनती बोलती या विचार करती है गर्भस्थ शिशु के अवचेतन मन पर उसका पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। अल्ट्रासाउंड, हार्मोनल स्टडीज आदि द्वारा इन तथ्यों की पुष्टि हो चुकी है।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के डॉक्टर रोपार्टसेडलर के सिद्धांत ‘फॉर्मेटिव काजेशन’ के अनुसार-” मां के विचार, भावनाएं, आहार एवं वातावरण द्वारा एक मेटामार्फिक , मार्फोजेनिक फोर्स (शक्ति ) उत्पन्न होती है, जो गर्भस्थ शिशु के व्यक्तित्व एवं गुणों के लिए उत्तरदाई होती है। शिशु का 80% मस्तिष्क गर्भ में ही बन जाता है ।

इस समय मस्तिष्क पर जैसे विचारों एवं भावनाओं का छाप पड़ती है वही उसके व्यक्तित्व हेतु उत्तरदाई होती है । मां प्रसन्न रहती है तो विधेयात्मक हारमोंस जैसे सेरोटोनिन , एंडार्फिन , एनकेफलीन का स्राव होता है। यदि मन दुखी रहती है तो नकारात्मक हार्मोन एड्रीनलीन,नारएड्रीनलीन, कॉर्टिसोल आदि का स्राव होता है।

यह हारमोंस रक्त द्वारा शिशु के अवचेतन मस्तिष्क जिसे चिकित्सा भाषा में हाइपोथैलेमस एवं लिम्बिक सिस्टम कहते हैं पर छाप डाल देते हैं और वैसे ही व्यक्तित्व वाला शिशु बनता चला जाता है।”

शोध अध्ययनों द्वारा देखा गया है कि -” प्रसन्न, संतुष्ट, विधेयात्मक चिंतन वाली मां का बच्चा प्रसन्न, तनावमुक्त , खुशमिजाज ,एकाग्रचित , होशियार, व्यवहार कुशल, अच्छी भावनात्मक शक्ति, सकारात्मक सोच वाला, अपनी बात अच्छी तरह से रखने वाला, आत्मसम्मानी, शांत ,सही निर्णय लेने वाला, रचनात्मक एवं समझदार दिमाग वाला, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता अर्जित करने में सक्षम बच्चा होता है।”

इसी प्रकार से देखा गया है कि तनावग्रस्त , दुःखी एवं क्रोधी, निषेधात्मक चिंतन वाली , असंतुष्ट मां का बच्चा कम वजन, कम विकसित अंगों वाला, छोटा, चिड़चिड़ा, रोने वाला, गुस्सेबाज , निरुत्साहित ,नकारात्मक सोच वाला, कुंठा ग्रस्त, निराशावादी हो सकता है ।मानसिक ,भावनात्मक एवं व्यावहारिक रूप से असंतुलित व्यवहार वाला भी होता है।

मां के आहार में कमी के कारण कुपोषित बच्चा जल्दी-जल्दी बीमार पड़ने वाला, वा भविष्य में जल्दी अनेकानेक बीमारियों का शिकार हो जाता है। जैसे दिल की बीमारी, डायबिटीज, कैंसर, उच्च रक्तचाप, अधिक कोलेस्ट्रॉल, मानसिक, भावनात्मक एवं व्यावहारिक समस्याओं से ग्रसित बच्चा हो सकता है।

इस प्रकार से हम देखते हैं कि प्राचीन काल में घटित अभिमन्यु के जीवन की महाभारत की घटना सत्य मालूम पड़ती हैं।
वर्तमान समय में बच्चों में बढ़ती दुष्टता का एक बहुत बड़ा कारण मां का नकारात्मक चिंतन भी है। यदि बीज ही सड़ा गला होगा तो स्वस्थ वृक्ष का निर्माण किस प्रकार हो सकता है।

इसलिए यदि हम चाहते हैं कि वर्तमान पीढ़ी में सुधार हो सके तो सबसे पहले माता-पिता के चिंतन को सुधारना होगा। बच्चों में बढ़ती उदंडता के कारण सम्पूर्ण विश्व परेशान है । इसका समाधान तब तक नहीं हो सकता जब तक माता-पिता के चिंतन , चरित्र एवं व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता।

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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