होली पुरानी
( Holi Purani )
याद है वो होली मुझको।
बीच गांव में एक ताल था,
ताल किनारे देवी मन्दिर,
मन्दिर से सटी विस्तृत चौपाल,
जहां बैठकर बुजुर्ग गांव के,
सुलझा देते विवाद गांव के,
फिर नाऊठाकुर काका का,
आबालवृद्ध के मस्तक पर,
पहला अबीर तब लगता था,
फिर दौर पान का चलता था,
बन जाती वहीं पर टोलियां,
चुन ली जातीं हमजोलियां,
पूरब वाली, पच्छिम वाली,
उत्तर वाली, दक्खिन वाली,
हर घर में जाती थी टोली,
हंसती खिलखिलाती बहुत भोली,
कुछ घर के बाहर थे रहते,
कुछ घर के अन्दर तक जाते,
मां बहनों के चरण पखारें,
भाभी सम से लें चटखारें,
स्वागत तरह तरह व्यंजन से,
मेल मिलाप हर जन का जन से,
ना शिकवा ना कोई गिला था,
जन-जन-मन तब स्नेह घुला था,
वैसी होली अब रही नहीं है,
किसी के पास अब समय नहीं है,
है पता प्रेमपगी ठिठोली किस को?
याद है वो होली मुझ को।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)