Kalam
Kalam

कलम

( Kalam )

हाँ, मैं कलम हूँ
रहती हूँ मैं
उंगलियों के मध्य
लिख देती हूं कोरे
कागज पर
जो है मेरी मंजिल पर
खींच देती हूँ
मैं टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों से
मानव का मुकद्दर
छू लेता है आसमां कोई
या फिर जमीं पर
रह जाता है
या किसी की कहानी
या इबारत लिख देती हूँ।
पिरोती हूँ अक्षरों को
मोती-सा
अपनी अदा दिखाती हूँ
कभी प्रेम के गीत
लिखती हूँ—
कभी वेदना का स्वर
बन जाती हूँ
या फिर कभी
सुख-दुःख का
समागम बन जाती हूँ
कहीं महादेवी, कहीं मीरा बन
प्रेम -विरह गीत
लिख जाती हूँ।।

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मप्र

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