क्या खोया, क्या पाया
क्या खोया, क्या पाया

क्या खोया क्या पाया

( Kya Khoya Kya Paya )

 

उन गलियों से जब भी गुजरी
आँखों मे अश्रुधार लिये
सोच रही थी
चलते-चलते
कि—-
यहाँ मैंने क्या खोया, क्या पाया है।
पाकर सब कुछ फिर सब कुछ खोना
क्या यही जिंदगी का फ़लसफ़ा है
जब है फिर ये खोना या फिर पाना
तो क्यूँ यहाँ लौट के आना है ?
वैसे ही तो सब कुछ खो दिया
फिर क्यूँ ये यादों का समंदर है
सोच रही थी चलते- चलते
कि—
क्या यही खोना और पाना है ?
सोचती इन रास्ते से जल्दी-जल्दी
अपने पग बढ़ाकर गुजर जाऊं
पर इस गली ने मुझे पकड़कर
जो पूछा, जिससे मैं सिहर उठी
इस गली मे घर की चौखट पर
दो आँखे राह तकती थी
न जाने कहाँ खो गईं वे आँखे ?
जिन्हें देख मैं खुश हो जाती थी।
बहुत कठिन है अब इन गलियों से गुजरना
सोच रही थी चलते-चलते
कि—
क्या यही खोना और पाना है।
उन गलियों में न रहे
अब कोई जज़्बात भी
फिर भी भरा हुआ था
दिल का कोना—
चले गये जो छोड़कर मुझे वो
हाँ, क्या कहीं यही खोना है ?
झड़ गये शाखों से पत्ते सब जो
क्या नये मौसम में फिर वो आयेंगे ?
सोच रही थी चलते-चलते
कि—-
क्या यही खोना और पाना है ?

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मप्र

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