उर्मिला
( Urmila )
हे मधुकर क्यों रसपान करे, तुम प्रिय प्रसून को ऐसे।
कही छोड के तो ना चल दोगे,तुम दशरथनन्दन जैसे।
हे खग हे मृग हे दशों दिशा, हे सूर्य चन्द्र हे तारे,
नक्षत्रों ने भी ना देखा, उर्मिला से भाग्य अभागे।
वो जनक नन्दनी के सम थी, मिथिला की राजकुमारी।
निसकाम प्रेम की वह देवी, लक्षण के संग थी ब्याही।
जिसने ना कोई प्रतिकार किया,जो मिला उसे स्वीकार किया।
माँगा ना कभी अधिकार कोई, खुद से ही खुद वनवास लिया।
निःशब्द रही निसकाम रही, अच्छुण्य मगर सौभाग्य रही।
जिस पे ना कभी कुछ लिखा गया,दिन मे भी जैसे रात रही।
चौदह वर्षों का था वियोग, चक्षु नीर भरे पर नही गिरे।
कुल के गौरव में बँधी हुई, मन मचल रहे पर नही डिगे।
उस पर बोलो मै क्या लिखूँ, हुंकार लिखूँ या हूंक लिखूँ।
मन शेर वेदना में लिपटी, संयोग का अमिट वियोग लिखूँ।
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कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )