Poem mausam-e-gul
Poem mausam-e-gul

मौसम-ए-गुल!

( Mausam-e-gul )

 

ख्ब्वाब अपना पांव पसारने लगे हैं,
परिन्दे घोंसले को लौटने लगे हैं।
दिल के दस्तावेज पे लिखा उसने नाम,
आजकल दिन उसके इतराने लगे हैं।

बुलबुल भी खुश है और चमन भी खुश,
मौसम-ए-गुल देखो बिहसने लगे हैं।
खिजाँ के दिन कब टिके हैं जहां में,
मेंहदी वाले हाथ महकने लगे हैं।

वही चाँदनी रात अब खलती नहीं,
दिल के वे प्याले छलकने लगे हैं।
एक फासले से दोनों मिलते थे पहले,
होंठों से होंठ अब सटने लगे हैं।

उम्र कट रही थी दोनों की रतजगे में,
एक दूजे में वो रस घोलने लगे हैं।
कौन किसके साँस की तलाशी ले,
खुलकर वो शरारत करने लगे हैं।

दोनों के सीने में जो थी कसक,
दो जिस्म, एक जां होने लगे हैं।
जब भी दम निकले एक साथ निकले,
ऐसी कसम दोनों खाने लगे हैं।

 

रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )
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