Prem poem
Prem poem

जगने लगी हूँ मैं

( Jagne lagi hoon main )

 

 

देखी हूँ जब से उनको संवरने लगी हूँ मैं,
बेकाबू हुआ दिल मेरा जगने लगी हूँ मैं।

 

दिन- रात दुआ माँगती हूँ उनके वास्ते,
इस जिन्दगी से जुड़ गए उनके रास्ते।
मुझको बिछाएँ फूल या वो बिछाएँ काँटे,
हर साँस में अब उनके घुलने लगी हूँ मैं।
बेकाबू हुआ दिल मेरा जगने लगी हूँ मैं,
देखी हूँ जब से उनको संवरने लगी हूँ मैं।

 

ये भीनी-भीनी खुशबू तन से बिखर रही,
किस दुनिया में हैं खोए देखो खबर नहीं।
मेरे अनछुए बदन को छुए थे पहली बार,
उस कोरे बदन पे देखो मरने लगी हूँ मैं।
बेकाबू हुआ दिल मेरा जगने लगी हूँ मैं।
देखी हूँ जब से उनको संवरने लगी हूँ मैं।

 

घिर चुके हैं बादल औ बारिश का ये कहर,
भींगने से उतरेगा हम दोनों का जहर।
उस इश्क के रंग में खुद रंगने लगी हूँ मैं,
बेकाबू हुआ दिल मेरा जगने लगी हूँ मैं।
देखी हूँ जब से उनको संवरने लगी हूँ मैं।

 

 

रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )
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