
फिर भी मेरा मन प्यासा
( Phir bhi mera man pyasa )
मृगतृष्णा वासना न छूटी छूटी निज जिज्ञासा।
कितने सरोवर मन में बसते फिर भी मेरा मन प्यासा।।
जीवन को ज्वाला में तपते देखा है,
लज्जा को घूंघट में सिसकते देखा है,
उदर में रखा दूध पिलाया बड़ा किया,
उसको भी पानी बिन मरते देखा है,
सारे घुंघरू टूट गये पर टूटी न अभिलाषा।।कितने सरोवर ०
गह्वर कानन सघन पार कर जाता है,
अम्बर से अपना सम्बन्ध बताता है,
कितनी सरितायें अस्तित्व में आती हैं,
अश्रुबिंदु को जहां जहां बिखराता है,
जीवन है एक पवन झकोरा आया और गया सा।।कितने सरोवर०
प्रयाग काशी तीर्थ नहाना बाकी है,
कोरे से मस्तक पर तिलक लगाना बाकी है,
शेष रात भर चमके सूरज अंतस तक,
मन मंदिर में दीप जलाना बाकी है,
प्राण पखेरू उड़ जायेंगे क्या आशा क्या निराशा।। कितने सरोवर०
लेखक: शेष मणि शर्मा “इलाहाबादी”
प्रा०वि०-बहेरा वि खं-महोली,
जनपद सीतापुर ( उत्तर प्रदेश।)
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