Zara si Aankh Kya Lagi
Zara si Aankh Kya Lagi

जरा सी आंख क्या लगी

( Zara si Aankh Kya Lagi )

 

जरा सी आंख क्या लगी शाम ढलने लगी।
सिंदूरी होकर हसीन सी वह मचलने लगी।
रजनी आई रूप धरकर फिर सजने लगी।
नींद के आगोश में घंटियां भी बजने लगी।

अंधियारी रात हुई नभ में घटाएं छाने लगी।
सपनों की मलिका मस्त हो मुस्कुराने लगी।
ख्वाब मन को सुहाने से फिर लुभाने लगे।
कल्पनाओं के स्वप्न महल हम बनाने लगे।

ठंडी हवाएं आकर यूं लोरियां सुनाने लगी ।
महकती बहारें भी हमको मन भाने लगी।
हुआ मौसम मस्ताना सा गुल खिलने लगे।
लगा बिछुड़े हुए दो दिल ज्यों मिलने लगे।
सैर सितारों की मगन हो फिर हुई रात भर।
सुबह खुली जो आंखें कब लौट आए घर।

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

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